बोलो क्या कर पाये प्यारे
इतने बड़े महल को पाकर,
बोलो! क्या कर पाये प्यारे।
सरल स्वच्छता त्याग दिये व,
गंदगी का अंबार लगाये प्यारे।
खोल न पाये मन की खिड़की,
दूर किया न अँधेरा।
सूरज की लाली न देखा,
देख न पाये सबेरा।
सदा अँधेरे में तुम रहकर,
मन में अंधकार फैलाये प्यारे।
निकला न कमरे से बाहर,
देखा नहीं उजाला।
काल कोठरी में तू रहकर,
बनाये अपना दिल काला।
दूर रहे रीति-नीति-प्रीती से,
संस्कार नहीं तुम पाये प्यारे।
घूमा नहीं खुले आंगन में,
ताजी हवा न पायी।
घुंटी हवा में सांस लिए तुम,
खुली
घुट-घुट कर रहना तुम सीखे,
मन में घुटन समाये प्यारे।
सफलताओं की अनगिनत सीढियांँ,
नहीं कभी चढ़ पाये।
धीरे धीरे उन्नति नहीं कर,
ऊँची छलांग लगाये।
जा चढ़े ऊँचे कोठे पर,
उच्चता का ज्ञान न पाये प्यारे।
शीश उठाकर कभी न देखा,
ऊपर बैठा नीलाकाश।
घर की छत को ही तुमने,
माना अपना गगन उजास।
सूरज-चाँद की चमक न देखा,
देख न पाए तारे प्यारे।
निकला नहीं तुम घर से बाहर,
देखी नहीं बस्ती पूरी।
नगर-जनपदों की पहचान भी, तुम्हारी रही अधूरी।
सीमित क्षेत्र में ही रहकर,
संकुचित दिल बनाए प्यारे।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
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