Thursday, October 31, 2019

पुरुष प्रधान समाज की नारी

बड़ी ही दुखित-पीड़ित और बुरी दसा में नारी हैं।
हाँ - हाँ हम पुरुष - प्रधान समाज की मारी हैं।

तूने कोख में हमको मारा।
जनम पे जिन्दा फेका गाड़ा।
रख भी लिए तो जैसे हम तेरी लाचारी हैं।
हाँ हम पुरुष-प्रधान समाज की नारी हैं।

हमारे जनम पे शोक मनाते।
संतति कहने में शर्माते।
तेरा वंश बढ़ाने की हम ना अधिकारी हैं।
हाँ हम पुरुष-प्रधान समाज की नारी हैं।

भैया-सा हमको नहीं पढ़ाया।
पर घर  भेज किया पराया।
गौ-सा दूसरे खूटे बाँधा हम बेचारी हैं।
हाँ हम पुरुष-प्रधान समाज की नारी हैं।

दहेज की खतिर रोज सताते।
अग्नि में जिन्दा हमें जलाते।
यह न सोंचा तेरे घर की हम रखबारी हैं।
हाँ हम पुरुष-प्रधान समाज की नारी हैं।

बनते कभी नहीं हमारे  रखवाले।
हमारी अस्मत पर तू डाका डाले।
न थमती शिलशिला हर काल में यह जारी है।
हाँ-हाँ हम पुरुष-प्रधान समाज की नारी हैं।

सुन पुरुष तू जनम हमीं से पाते।
पढ़-लिख जग में पहचान बनाते
अंत समय में हम तो लगते तुझको भारी हैं।
हाँ-हाँ हम पुरुष-प्रधान समाज की नारी हैं।
                            सुजाता प्रिय

Monday, October 28, 2019

भैया दूज

कार्तिक की यमद्वितीया है भैया,
आज मेरे घर तू आना।
यम खाते थे यमुना घर जाकर,
आज मेरे घर तू खाना।
मुन्ने मुन्नी और भाभी को भी,
लेकर आना साथ में।
हँसी-खुशी से झोली भरकर,
लाना तू सौगात में।
पान,सुपारी और बजरियाँ,
कूट तुम्हें खिलाऊँगी।
दही-रोली का लम्बा टीका,
ललाट तेरे लगाऊँगी।
धवल ऱूई का मनका गढ़कर,
माला तुम्हें पहनाऊँगी।
हर मनके में पचास बरस का,
तेरी उमर बढ़ाऊँगी।
गोबर के चौकोने घर बनाकर
तेरे दुश्मन को कूटूँ।
कूटूँ तुम्हारे सब अबरे-भँवरे,
यम के घर- द्वार भी कूटूँ।
मिर्च राई से बुरे लोगों की,
बुरी नजर उतारूँ मैं।
बुरा मनाने वालों को रेंगनी के
काँटों को चुभाऊँ मैं।
पावन पर्व है भाई-बहनों का,
भाई के लिए आशीष भरा।
जीयो मेरे भैया लाख बरस तू
भाभी का रहे सुहाग भरा।
       सुजाता प्रिय

श्री श्री चित्रगुप्त भगवान की आरती

जय चित्रगुप्त महाराज। स्वामि जय चित्रगुप्त महाराज।
अपने सेवक जन के, अपने कूल रतन के,
बिगड़ी बनाते काज ,जय चित्रगुप्त महाराज।
मस्तक कुमकुम चंदन फूलों की माला।
रेशम वस्त्र पहनाऊँ, रंगकर शुभ पीला।।जय चित्रगुप्त...
अक्षत,शम्मी, पुष्प से करें पूजन तेरी।
शंख ,मृदंग , बजाएँ ,डमरू शुभ भेरी।।जय चित्रगुप्त...
लड्डू भोग लगाएँ ,घृत- गुड़ मिश्रीत हम।
नए कलश में जल भर पूजा करते हम।।जय चित्रगुप्त...
धूप , दीप जलाएँ, बाती है  कर्पूर की।
हमसब करें आरती,व्याधी हरें मन की।।जय चित्रगुप्त...
हाथ ले लेखनी-कटनी,सबको लिपि देते।
अक्षर ग्यान देकर सबको सुघड़ करते।।जय चित्रगुप्त...
लेखन जिविका देकर,पालन करते आप।
सबके संकट हरते ,बाधा दुःख, संताप।।जय चित्रगुप्त...
दुष्ट सौदास उबारे,बैक्ण्ठ- धाम दिया।
भीष्म पितामह को स्वेच्छित मृत्यु दिया।।जयचित्रगुप्त..
जो जन यह गुण गाये, निश्चित फल पाये।
दुःख न कोई सताये, सुख सम्पत्ति पाये।।जयचित्रगुप्त...
हे चित्रगुप्त महाराज, तुम्हें बार-बार नमस्कार।
सबके  संकट हर ले, बेड़ा कर  दे पार।।जय चित्रगुप्त...
                            सुजाता प्रिय

Saturday, October 26, 2019

हे लक्ष्मी माँ तेरी महिमा अपार है

तेरी कृपा से सुखी सारा संसार है।
हे लक्ष्मी माँ तेरी महिमा अपार है।

सबको तुझपर रहता आस।
सबको तुझ पर  है विश्वास ।
जग भर के सब प्राणियों पर,तेरा उपकार है।
हे लक्ष्मी माँ तेरी महिमा अपार है।

तू ही झोली सबकी भरती।
तू ही दुखड़े  सबके  हरती।
तेरी ममता बड़ी निराली ,सबपर तुझको प्यार है।।
हे लक्ष्मी माँ तेरी महिमा अपार है।

बड़े-बड़े सब  काम  बनाती।
सुख-सम्पति सबको बरसाती।
उनके पास सदा ही आती,जो करते पुकार हैं।।
हे लक्ष्मी माँ तेरी महिमा अपार है।

सबको सुखी बना दो माता।
हे जगजननी हे सुख दाता।
घर-घर में है गूँजती माँ तेरी जय-जयकार है।
हे लक्ष्मी माँ तेरी महिमा अपार है।
                         सुजाता प्रिय

Friday, October 25, 2019

घरौंदा

देख तो रघु की बेटी कितना सुंदर घरौंदा बनाई है।राजमहलों के नमूना ही पेश कर दिया।खिड़कियों की तो बात ना करो।महारानी पद्मिणी का झरोखा लगता है ।नक्काशी में बादशाहत झलकता है।
एक तू है जो जो साधारण घरों जैसा भी नहीं बना पाती ।घरौंदा क्या,वयाओं का घोंसला बनाई है।दरवाजे चूहे का बील है और खिड़कियाँ छछुंदर के।
अपने घरौंदा की लिपाई करती हुई दीपा सुनैना चाची द्वारा बोली जा रही बातें सुनकर मग्न हो रही थी।सामने चाची जितना भी मुँह बिचकाती है ,पीठ पीछे तो तारीफ ही कर रही हैं।
दीपावली में अभी दो दिन बाकी है। हर वर्ष दीपा मिट्टी के नये-नये प्रकार का घरौंदा बनाती है  ।जैसे विश्वकर्मा स्वयं उसके हाथों पर विराजमान हो घरौंदे में सुंदरता भर देते हों।मुहल्ले की लड़कियाँ आश्चर्य से उसका घरौंदा देख कर सोंचतीं - कैसे-कैसे नमूने उपज उठते हैं दीपा के मष्तिष्क में।दीपा के प्रति उनका मन ईर्ष्या से भर उठता।
विचारों में खोयी दीपा घरौंदे की लिपाई करती रही तभी सुनैना चाची नैना के साथ निकलीं और झुंझलाती हुई नैना से बोलीं दरवाजे खिड़कियाँ बड़े करो और आगे सुंदर नक्काशी करना ।देख तो कोई कितना  सुंदर घरौंदा बनाती है ।एक टेढ़ी-सी नजर वह दीपा के घरौंदे पर डालती चली गईं। नैना नजरें घुमा कर दीपा के घरौंदे को देखती फिर उसके अनुरूप अपने घरौंदे को सुंदर रूप देने की कोशिश करती ।
दीपा उसके इस प्रयत्न को देख रही थी पर कुछ बोली नहीं।गुमसुम -सी दोनों सहेलियाँ अपने-अपने कार्य में जुटी रहीं।आजकल दोनों सहेलियों को बीच मनमुटाव चल रहा था,और इस मनमुटाव का एकमात्र कारण है 'घरौंदा' । जब से घरौंदा बनना आरंभ हुआ, नैना दीपा से बातें करने से कतरा रही थी।यह प्रति वर्ष का नियम था,इसलिए दीपा बेफिक्र थी। वह एक नजर नैना के घरौंदे पर डाली ।दीपा घरौंदे के दरवाजे खिड़कियाँ तो बड़े कर ली लेकिन वह सुडौलता नहीं जो उसके घरौंदे में ।अभिमान और प्रसन्नता के मिले- जुले भाव उसके चेहरे पर थिरक उठे।
भला दीपा के ये भाव नैना से क्यों छिपे रहते? वह भी तो इन भावों की स्वमिनी थी । ईर्ष्या बड़ी तीव्रता से उसके मष्तिष्क पर अपना प्रभाव दिखलाने लगी। क्रोध से उसके नथुने फुल गये।बड़ा गुमान है उसे अपनी करनी पर।दो लात जमा दिया जाय उसके घरौंदे पर तो सारा गुमान चकनाचूर होकर रह जाएगा।फिर सोंची कैसे तोड़ पायेगी उसके घरौंदे को।दिन भर उसके बड़े चाचा वहीं खाट पर बैठकर टुकुर-टुकुर ताकते रहते हैं।
रात में। जब उसके चाचा सोने चले जाएँगे। उसके ईर्ष्यालु मन ने उसे सलाह दी।
ना- बाबा -ना।वह मन-ही-मन घबरा उठी ।बड़ी रात गए सोते हैं चाचा।सुनते हैं रात में भूत-भूतनियाँ  गलियों में घूमते फिरते हैं।बाप रे? वह सिहर उठी।
दीपा को नैना के इरादे नेक नहीं लग रहे थे ।उसके हाव-भाव और कुविचारों से वह भली प्रकार परिचित थी। उसे याद है-बचपन में भी जब वे दोनों नदी किनारे रेत के घरौंदे बनाती थी और उसका घरौंदा बढिया बन जाता था तो नैना जल -भुनकर खाक हो जाती और द्वेष पर ऩियंत्रण नहीं रख सकने की स्थित में मेरे घरौंदे के तोड़ डालती थी।कहीं पुराने आदतानुसार आज भी उसके घरौंदे को न तोड़ डाले।उसका मन परेशान हो गया।भला कितनी देर इसकी रक्षा कर पायेगी।?
दीपा ! तभी उसकी माँ ने आवाज दी। दीपा अनसुनी किये बैठी रही।
आई ऱी, दीपा ! माँ ने फिर हाँक लगाई।
सुनती नहीं री ? दीपा! उसके बड़े पिताजी ने उसे टोका तो दीपा घरौंदे को भगवान भरोसे छोड़ कर दौड़कर घर के अंदर चली गई।
आज दिवाली है। आज का दिन हर घर के लिए खुशियों भरा होता है।पर,रज्जुलाल के घर दोहरी खुशियाँ है ।आज दीपा का जन्मदिन भी है ।दीपा का जन्म इसी दिन ठीक उस वक्त हुआ जब दीए जलाए जाते हैं।इसलिए तो उसके माता-पिता ने उसे दीपाली नाम दिया । रज्जुलाल को अपनी कोई संतति नहीं इसलिए वे अपने छोटे भाई के बच्चों को ही अपनी संतान मान लिए। दिवाली तथा दीपा के जन्म दिन की की खुशी में रज्जुलाल की पत्नी घर को सजाने मैं लगी थी तो दीपा भी अपने घरौंदे को सुंदर ढंग से सजाने के ताने -बाने बुनने में लगी  ।सुबह ही चूने- से पुताई कर दी थी। थोड़ी देर में जलपान कर जब वह अपने घरौंदे को देखने आई कि चूना सुखा कि नहीं तो उसका छोटा भाई रोहन भी वहाँ पहुँच गया।
दीदी ! क्या इसकी सजावट भी यहीं करोगी ?
नहीं रे बुद्धु ! यहाँ पर उतनी देर कौन रहेगा ?
बहुत देर लगेगी इसकी सजावट में ?
हाँ देखना, कितना बढ़़िया सजाती हूँ इसे।वह गर्व से गर्दन अकड़ाती हुई बोली।
तो इसे उठाकर ले चलूँ अंदर ?
उँह तू ले चलेगा इसे । हिलेगा भी तुझसे ? मन भर भारी है।
बाप-रे फिर कैसे जायेगा यह घर के अंदर ?
बड़े पिता जी ने किसी को बुलाया है।वे ही ले जाएँगे। याद नहीं हर साल कैसे जाता है ?
रोहन अपने नन्हें से मष्तिष्क से वर्ष भर पुरानी बातों को याद करने की कोशिश करने लगा।
दीपा सोंच रही थी किस प्रकार से सजाउंगी घरौंदे को जो देखने में सुंदर लगे।कहाँ पर झालर लगाउँगी, कहाँ पर फुदने ? कहाँ पर पिता जी द्वारा लाए गए कागज के फूलों को सजाउंगी कहाँ पर बड़ी माँ के बक्से से जो कचकाड़े की अमिया माँगी थी उसे टाँगेगी ? और हाँ माँ जो अपनी चुनरी में सितारें टाँकती थी  वह भी तो बचा सो इसी में लगाना है कितना चमचम चमकेगा उसका घरौंदा।वह मन-ही-मन झूम उठी।
वह सोहन को आते देख बोली - तुम और मोहन जाकर से ढेर सारा फूल तोड़ ला ।लरियाँ गुथने बड़े पिता जी को दे दूँगी।
पाँव लागूं मालिक ! तभी दो मजदूर दरवाजे पर पहुँचते हुए कहा।
खुश रह । रज्जुलाल ने सिर झुका कर धीरे-से कहा।
आपने हमें याद किया मालिक !
हाँ रे !जरा दीपा का घरौंदा  घर के अंदर लाने का था।
यह भी कोई काम है मालिक ? हम अभी इसे पहुचा देते हैं। उन दोनों ने लपककर घरौंदे को उठाया और जहाँ दीपा ने बताया वहाँ रख दिया ।बड़ी माँ ने दोनों को अंजलि भरकर मिठाईयाँ दी।दोनों खुश होकर चले गए।
दीपा को याद आया ,चूना की बाल्टी वहीं छोड़ आई । ऐसा न कोई उठा ले जाए।बाहर बाल्टी लाने दौड़ी।देखी सुनैना चाची उन दोनों मजदूरों से कुछ कह रही थीं ।शायद नैना का घरौंदा अंदर ले चलने। वे दोनों मिलकर घरौंदा उठाने लगे।पर जैसे ही पकड़ा ।घरौंदे का अगला हिस्सा टूट गया।
आह रहती हुई दीपा ने इस प्रकार अपने सीने पर हाथ रख लिया जैसे उसका अपना घरौंदा टूट गया हो ।
हाय-हाय तोड़ दिया मेरा घरौंदा कहती हुई नैना रो पड़ी।
कैसे तोड़ दिया ,बताओ तो जरा ।सुनैना चाची चीख-चीखकर बोलने लगी ।अभी -अभी ले गया उसका घरौंदा तो नहीं तोड़ा और इसका छूते ही तोड़ डाला।
क्या हुआ ? शोर सुनकर किशोरी चाचा और नैना के भाई-बहन भी घर से निकल आए।
इन्होंने नैना का घरौंदा तोड़ डाला सुनैना चाची ने हाथ नचाते हुए कहा।
कयों जी  ! किशोरी चाचा उनकी तरफ मुड़कर बोले - क्या मिल गया तुम्हें घरौंदा तोड़ने से ?
मालिक ! कोई हमने जान- बूझकर थोड़े तोड़ी।
जान-बूझकर नहीं तोड़ी तो कैसे टूटा।उसका घरौंदा क्यों नहीं टूट गया?
उनका घरौंदा भली प्रकार सुखा हुआ था मालिक ! लेकिन यह ठीक से सुखा नहीं था ।
जाओ सुखा नहीं था।चीज बिगाड़ दी और बातें बनाते हो। ऐसी जगह तोड़े हो कि ठीक भी नहीं किया जा सकता। समय भी तो नहीं है। सुनैना चाची का क्रोध परवान चढ़ गया था।
किशोरी चाचा भी गुस्से से तमतमाये हुए एक ओर हट गए।
दोनों मजदूर अपना-सा मुँह लेकर खड़े थे ।
नैना रो रही थी।
स्वाभिमान त्याग कर दीपा वहाँ पहुँची। घरौंदे की टूटी हुई मिट्टी  उठाकर देखी।वह सचमुच गीली थी।वह सोंचने लगी ,मिट्टी गीली रहेगी भी क्यों नहीं ? दो दिन पहले ही  तो उसे सुधारने के लिए नैना उसपर गीली मिट्टियाँ लगाई थी।फिर जाड़े की नर्म धूप में दम ही कितना रहता है ।
अच्छा जो हो गया सो जाने दीजिए।आपलोग ठीक से घरौंदा को अंदर पहुँचा दीजिए।दीपा ने विनम्रता से मजदूरों से कहा।
वे सावधानी पूर्वक घरौंदा उठाकर ले जाने लगे।
नैना गुस्से से दाँत पीसती हुई दीपा को देखने लगी ।उँह कह दी अंदर ले जाने के लिए।कलेजा ठंढा हो गया होगा मेरा घरौंदा टूट जाने पर ।पहले ही गुमान से कितना इतराती थी कि -मेरा घरौंदा अच्छा बना, उसका खराब।अब सोंच रही है कि टूट गया तो टूटा हुआ ही रखबा देती हूँ ।गुस्से से भरी वह घर के अंदर चली आई। देखी घरौंदा घर में सही स्थान पर रखा हुआ था और दीपा सब्जी की टोकरी से चाकू लेकर घरौंदे के टूटे स्थान को काटकर बराबर कर रही थी। दीदी मोहन भैया और सोहन भैया फूल तोड़ कर बड़े पिता जी को लरियाँ बनाने दे दिए ।रोहन ने आते ही दीपा से कहा।
अच्छा जा सजावट का सामान जिस डब्बा में रखा है उसे उठा ला। और हाँ माँ से लेई का कटोरा भी माँगकर लेते आना।
क्यों ,वह सब यहाँ क्यों ले आऊँ ?
इसमें लगाऊँगी ।दीपा नैना के घरौंदे की ओर इशारा करती हुई बोली।
क्यों, इसमें तुम क्यों लगाओगी ? नैना दीदी नहीं लगाएँगी ? वह तुनक कर  अपने नन्हें-नन्हें होठों के पोपटे नचाते हुए बोला।
तू जाकर लाता है कि नहीं चुपचाप ? दीपा की घुड़की सुनकर वह एक-दो-तीन बोलता हुआ नौ- दो- ग्यारह हो गया। थोड़ी देर में सारे सामानों को लाकर रखता हुआ बोला - लो मैं इन्हें बिलकुल चुपचाप उठा लाया।
दीपा मुस्कुराती हुई डब्बे से कागज के झालर निकालकर नैना के घरौंदे में चिपकाने लगी।
शाम तक दीपा के घरौंदे में अपने दो दिन से मेहनत कर काटे गए कागज के फूलों को सजाती रही पर उससे कोई बात तक नहीं किया। दीपा का घंटों का उत्साह जाता रहा ।उत्सुकतावश वह मुड़कर अपने पीछे बैठी नैना को देखने लगी। नैना के नैनों में अब भी अश्रु झिलमिल कर रहे थे।दीपा समझ नहीं पा रही थी कि नैना के ये आँसू घरौंदा टूटने के दुःख स्वरूप निकले थे या घरौंदा सजने की खुशी के कारण ?
घरौंदा टूट जाने के शोक में अँधेरे कमरे में पड़ी-पड़ी सुनैना चाची जब बाहर निकली तो दीपा द्वारा सजाया गया घरौंदा देख कर दंग रह गईं । पर अपने मनोभावों को छिपाती हुई ऐसा मुँह बिगाड़ीं जैसे घरौंदा बिलकुल खराब लग रहा हो।वे दीपा से बिना कुछ बोले अंदर चली गईं।
दीपा के भी स्वाभिमान जाग उठे। मुझसे कोई कुछ नहीं बोलती तो मैं भी क्यों बोलूँ किसी से ? चुपचाप उसने अपने खाली डब्बे और कटोरे को उठाया और अपने घर को चल पड़ी।
दी s s s पा ! अभी उसने बरामदा पार भी नहीं किया था कि लरजती हुई आवाज में उसे किसी ने पुकारा।
दीपा पीछे मुड़कर देखने लगी ।
नैना आँसू भरी मुक दृष्टि से उसे देख रही थी।जो काम उसकी जुवान नहीं कर रही थी वह काम उसके आँखों के आँसू कर रहे थे।
इस हालत में दोनों सहेलियाँ ज्यादा देर तक खड़ी नहीं रह सकीं। नैना आगे बढ़ी और दीपा से जा लिपटी।दीपा ने भी उसे गले लगा लिया।
क्यों री नैना ! चुल्हे जलाने हैं या यूँ हीं गले मिलने से हो जाएगा ? सुनैना चाची की कर्कश आवाज उभरी तो  दोनों एक-दूजे को छोड़ कर अलग हो गईं।सुनैना चाची दरवाजे पर अपनी आँखें टेढ़ी किए खड़ी थीं।
दीपा लपकती हुई अपने घर चल दी।
अँधेरा घिरने लगा ।दीए जलने लगे। अब समय कहाँ है जो वह अपने घरौंदे को सजाएगी । और सजाएगी भी कैसे ? सजावट के सारे सामान तो वह नैना के घरौंदे में लगा आई । उसके तीनों भाई नये कपड़े पहनकर जेब में मिठाईयाँ भर पटाखे छोड़ने में मशगूल  थे।
जन्मदिन और दीपावली के शुभअवसर पर उसके जो नये कपड़े सिलाये थे ,उसे झट पहन कर घरौंदे पर दीये जलाने लगी । पास ही अलमारी पर बड़ी माँ का दिया हुआ अमिया और पिता जी का  लाया हुआ फूल दिखा उसे उसने घरौंदे में टाँग दिया और झूम-झूमकर फूलझड़ियाँ छोड़ने लगी।
बड़े पिता जी ने फूलों की लरियाँ घरौंदे में लटका दिया और दीपा के मुँह में मिठाई डालते हुए कहा - वाह मेरी बेटी ने इस बार हर साल से अच्छा सजाया है घरौंदा।
दीपा चौक उठी।क्या बड़े पिता जी ने उसपर व्यंग्य किया है ?वह तो अपना घरौंदा सजाई ही नहीं।
हाँ बिटिया ! 'कर भला तो हो भला' बड़ी माँ ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- जिस प्रकार तुमने दूसरे की भलाई की है ,उसी प्रकार ईश्वर तुम्हारी भलाई करेंगे।
जिस प्रकार तुमने नैना का घरौंदा सजाया है उसी प्रकार लक्ष्मी माँ तुम्हारा घर सजाएँगी।दीपा के माता-पिता भी उसे प्रसंशात्मक दृष्टि से देखते हुए बोले - कितना सुंदर लग रहा है दीपा का घरौंदा।
और सचमुच।उसका घरौंदा किसी राजा - महराजा के महलों जैसा लगे -न - लगे, सजावट में बादशाहत ना झलके ,पर सादगी और सच्चाई का बेजोड़ नमूना लग रहा था। सफेद चूने- से पुता हुआ उसका घरौंदा असंख्य दीपों की रोशनी में जगमगाता हुआ उसके स्वच्छ निर्मल मन का परिचायक लग रहा था।
आज भी उसका घरौंदा एक अलग प्रकार का नयापन लिए हुए ही था।
         सुजाता प्रिय

ैं

Thursday, October 24, 2019

जय धनवंतरी ( भजन )

कार्तिक कृष्ण त्र्योदशी,
   अवतार लिए धनवंतरी।
      अंश हो  महाविष्णु  के,
         हे रोग  नाशक  श्रीहरि।

चतुर्भुज   पीताम्बरा,
    चंदन तिलक है माथ में।
       शंख ,चक्र औषधि- पत्र,
          अमृत-कलश है हाथ में।

समुंद्र  मंथन  के समय ,
   शम्भू किए विषपान जब।
      रक्षा  हेतु  उनको आपने ,
          अमृत किया प्रदान तब।

परिपूर्ण करते अन्न-जल,
   धन-धान्य देकर यह धरा।
      वरदान का तू दान देकर,
          चलाये  दान- परम्परा।

हर जीव के उर में विराजे,
     तेरा अलौकिक  रूप  है।
        नर-नारी संत-फकीर योगी,
             वैरागी रंक और  भूप  है।

हर प्राणि तेरा पुत्र सम,
    सबसे  तुझको प्यार है।
        जीवन दाता ,प्रथम वैद्य,
              तुम्हें नमन  बारम्बार है।
          .            सुजाता प्रिय

Sunday, October 20, 2019

वार्तालाप बरसाती महीनों के

सावन बोला -मैं तो बरसा झम-झम -झम।
भादो बोला -मैं भी हूँ  कहाँ किसी से कम।
आश्विन बोला -मैने भी तो लहराया परचम।
कार्तिक बोला -मैं भी बरस रहा लगाकर दम।

सावन बोला- हम देर आये पर दुरुस्त आये।
भादो बोला- हम भी दुर्बल नहीं तंदुरुस्त आये।
अाश्विन बोला -हम भी सुस्त नहीं , चुस्त आये।
कार्तिक बोला- लो देखो हम भी एक मुस्त आये।

सावन बोला -मैने तो खेतों में खूब पानी डाला।
भादो बोला -बचे - खुचे को तो मैंने ही सम्हाला
आश्विन बोला -मैने तो लोगों का निकला दिवाला।
कार्तिक बोला- अब देख कैसा मुझसे पड़ा है पाला।
                                 सुजाता प्रिय

Friday, October 18, 2019

दिवाली के संकल्प

संकल्प करें अब दिवाली में,
    विदेशी दीप नहीं जलाएँगे।
       माटी से बना देशी तेल का
           दीया हम सभी जलाएँगे।

चाईनिज दीपों की लरियाँ,
    हम घर में  नहीं लगाएँगे
      आमपत्र का बंदनवार औ,
        पुष्पमालिका से  घर सजाएँगे

प्लास्टिक स्टीकरों की चित्र-
    स्वस्तिक कहीं नहीं चिपकाएँगे।
       आटे-चावल, हल्दी गुलाल की
           रंगोलियों से द्वार सजाएँगे।

घर की सफाई कर सड़कों पर
     हम  कचरे  नहीं  फैलाएँगे।
        कोना-कोना स्वच्छ बनाने को
             सफाई  अभियान चलाएँगे ।

कैडवरी चॉकलेट सिन्थेटिक
     मिठाईयाँ नहीं हम खाएँगे।
         घर में बनाकर शुद्ध लड्डू -
              पेड़े, खाजा-बर्फी खाएँगे।

तीब्र आवाज के पटाखे छोड़ ,
       ध्वनि-प्रदूषण नहीं बढ़ाएँगे।
          शुद्ध वायु में विषैले वारूद
               का धुआँ नहीं फैलाएँगै।

जानलेवा शराब को पीकर
     अपना सीना नहीं जलाएँगे ,
         फलरस और शर्बत पीकर
              दिवाली का जश्न मनाएँगे।

खून-पसीने की कमाई को
     हम जुए में नहीं गवाएँगे।
        पढ़ा-लिखा बेटा-बेटी को
              शिक्षित-सभ्य बनाएँगे।
      .                सुजाता प्रिय

Wednesday, October 16, 2019

धरती माँ के राजदुलारे

जीयो मेरे वीर धरती पर
हरियाली  फैलानेवाले।
साईंकिल यात्रा कर धरा पर
अनगिनत वृक्ष लगानेवाले।

मरुभूमि हो चली धरा पर
फैलाकर  तुम हरियाली।
धरती माँ  के राजदुलारे ,
वीर सपूत  इसके माली।

निर्मल मन के गंगाजल से
धरती सिंचित करने हेतु।
अमर प्रेरणा का प्रतीक
हरित क्रांति का विजय केतु।

वन-उवपन विहसा-हुलसा
पुलक उठा पवन पुनीत।
प्राणि-प्राणि में प्राण फूंक
चलाए तूने यह पावन रीत।

तेरा यह द्विचक्रिका वाहन
धूएँ का अवरोधक  है।
पेट्रोल डीजल नहीं है पीता
वायु प्रदूषण शोधक है ।

जिधर जहाँ बढ़ता जायेगा
गुंजेगा तुम सबका जयगान।
दिशा-दिशा दृष्टिगोचर होगा,
के तेरा यह विजय निशान।

तू बढ़े चलो तो जग भी तेरे
पीछे - पीछे बढ़ता जायेगा।
तेरा विजयी हरित पताका ,
जग भर  में  लहरायेगा।

तुम सब हो सच्चे कर्मयोगी,
तुमसब ही  हो  सच्चे  संत।
अमर रहेगी तेरी साधना ,
युग-युग तक और दिग् दिगंत।

तेरा गौरव सदा रहेगा,
तुमपर है सबको अभिमान।
बढ़ता जा तू , बढ़े निरंतर ,
हरित बसुंधरा का अभियान।
                   सुजाता प्रिय

Friday, October 11, 2019

प्रेम का डेरा

कोई ना समझे मन को मेरा।
यह मन तो है प्रेम का डेरा।
इस  डेरे  में प्रेम के  कमरे,
चाहो आकर रख ले बसेरा।
यह मन तो है प्रेम का डेरा

दुनियाँ समझे मोहे दीवानी।
छल-प्रपंच से मैं अनजानी।
हर प्राणि से प्रेम है मुझको।
ना कोई तेरा , ना कोई मेरा।
यह मन तो है प्रेम का डेरा।

प्रेम ही पूजा, प्रेम है अर्चन।
प्रेम ही जप तप और कीर्तन।
प्रेम आराधन , प्रेम है बंदन ।
प्रेम से गाये हम साँझ-सवेरा।
यह मन तो है प्रेम का डेरा।

प्रेम बिना यह जग है सूना।
सुगंध  बिना  जैसे  प्रसूना।
मन मेरा है प्रेम  पिपासित ।
प्रेम तू आकर लगा ले फेरा।
यह मन तो है प्रेम का डेरा।

प्रेम में ही  है  सारी शक्ति।
प्रेम में भक्ति और आशक्ति।
प्रेम में रखते हम अनुरक्ति।
चारो ओर है प्रेम का घेरा।
यह मन तो है प्रेम का डेरा।

प्रेम की महिमा अपरम्पार।
इसके वश में है सारा संसार।
ढाई अक्षर का प्रेम हो दिल में।
इसके रंग में रंगे दिल मेरा।
यह मन तो है प्रेम का डेरा।
               सुजाता प्रिय

Tuesday, October 8, 2019

मन के रावण को फूको

शहर के पुराने मैदान में,
दस मीटर ऊँचा खड़ा दशानन।
दस हजार जनों की भीड़ लगी है,
रावण का पुतला आज होगा दहन।

राम वेश में ,मंत्री जी ने,
उसपर छोड़े अग्नि तीर।
थु - धु कर जल उठा वह,
खुश हो उछली सारी भीड़।

साधु संतों को खूब सताना,
यग्य विध्वंस कर अहंकार दिखाना।
मदिरा पीना, मांस को खाना,
पर स्त्रियों को हरकर लाना।

उसकी सारी बुराइयाँ खाक हो जाए,
हर साल पुतले हम जलाते हैं।
पर इन सारी बुराइयों को हम,
मन से मार न पाते हैं।

कर सको तो कर लो अपने,
मन के रावण का संहार।
तुम भी राम -सा पुरोषोत्तम बन जा,
प्रफुल्लित हो सारा संसार।
              सुजाता प्रिय