Sunday, October 31, 2021

दीप (हाइकु )



दिवाली आयी
दीपों की देखो यह
बाराती लायी।

दीप जले हैं
घर आंगन तक
उजियारा है।

पंक्तियां बद्ध
जगमग करते
तम हरते।

माटी का दीया
कुछ लोगों को देता
रोजी औ रोटी।

बाती जलती
प्रकाशित करती
घर का कोना।

तेल में भींगी
बाती के जलने से
स्वच्छता आती।

अंधेरा भागा
दीपों को देखकर
घबराया-सा।

आओ मिलकर
संकल्प करें हम
तम भगाएं।

सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
   स्वरचित, मौलिक

Friday, October 29, 2021

तुलसी पूजन गीत (मगही लोकगीत )

तुलसी पूजन गीत (मगही लोकगीत)

हमर अंगना में शोभे,श्याम तुलसी।
श्याम तुलसी,हां जी राम तुलसी।
हमर अंगना में.................
सोने के झारी में गंगाजल भर के,
नित उठ के पटैबै हम श्याम तुलसी।
हमर अंगना में..............
सोना के डलिया में बेली-चमेली,
नित तोड़ के चढ़ैबै हम श्याम तुलसी।
हमर अंगना में.............
सोना के थारी में दाख-छोहाड़ा,
नित भोग लगैबै हम श्याम तुलसी।
हमर अंगना में...................
सोना के दियरा में रूई के बाती,
घीया देके जलैबै हम श्याम तुलसी।
हमर अंगना में..................
सोने के थरिया में कपूर के बाती,
नित आरती उतारबै हम श्याम तुलसी।
हमर अंगना में...............
दुनु हाथ जोड़के,सिर नवाके,
नित आशीष मांगबै हम श्याम तुलसी।
हमर अंगना में.............
             सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Wednesday, October 27, 2021

माटी का दीया (लघुकथा)


माटी की गुथाई करते समय फिसलकर गिर जाने के कारण पिताजी के हाथ में चोट लग गयी और पिताजी चाक चलाने में असमर्थ हो गये।नेहा ने अपने भाई बहनों को अपनी एक योजना बताई। नक्काशी दार सांचों में तो दीये बनाये जा सकते हैं।सभी भाई-बहनों ने मिलकर ढेर सारे दीये, खिलौने और मूर्तियां बनाये। उन्हें पकाकर रंग-रोगन कर सजाया और बाजार में बेचने बैठे।खिलौने और मूर्तियां तो जल्द ही बिक गये, लेकिन दीये........।जब बाजार में चीन-निर्मित बिजली से जलने वाले सुंदर दीपों की लड़ियां उपलब्ध है तो भला इन माटी के दीयों को कौन पूछता है ? तेल-बाती डालकर जलाओ और जरा-सी हवा तेज चली कि बुझ गया।इन झंझटों में कौन पड़े।
     संध्या अपने परम यौवन प्राप्त कर चुकी थी। अंधकार ने अपना साम्राज्य स्थापित करना प्रारंभ कर दिया। फूल-रंगोलियों से सभी लोग अपने घर सजाकर  दीये जलाने और पूजन की तैयारी में लग गये। नेहा भाई बहनों को बाजार की दुकान में छोड़कर घर आ गयी। क्योंकि मां बीमार और पिता लाचार थे।घर में भी पूजन करना और दीये जलाने हैं।अचानक बिजली आई और जोरदार धमाके के साथ गुल हो गई।पूरा मुहल्ला अंधकार के आगोश में समा गया।यह विद्युत-ट्रासफर्मर जलने की आवाज थी। सभी जानते थे कि इस इलाके में नये ट्रांसफर लगने में पंद्रह-बीस दिनों से कम नहीं लगते। पास-पड़ोस के लोग नेहा के घर दीये लेने दौड़ पड़े कहीं सारे दीये बिक ना जायें। विद्युत के बिना तो चीन के दीये नहीं जगमगाएंगे। नेहा के घर और बाजार के सारे दीए बिक चुके थे।अपने माता-पिता और भाई बहनों के साथ अपने घर में लक्ष्मी जी की पूजा कर माटी के दीये जलाने और खुशियां मनाने में लगी थी।यह उन्हीं की कृपा थी कि उसके बनाए सारे खिलौने और दीये बिक गए।वह जोर से बोल उठी लक्ष्मी माता की जय।
               सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
                 स्वरचित, मौलिक

Tuesday, October 26, 2021

वह काली रात (संस्मरण)



वह काली रात (संस्मरण)

एक बार दुर्गा-पूजा के अवसर पर हम भाई -बहन अपनी पसंद के कपड़े खरीदने की जिद कर बैठे । बाजार हमारे घर से कुछ दूर थी । पिताजी को कहीं जाने के लिए रात्रि की बस पक़ड़नी थी।तय हुआ कि हमारे पसंद के कपड़े खरीद कर पिताजी हमें दे देंगे और घर तरफ आने वाली भाड़े की गाड़ी में बैठा देंगे। नियम समय पर पिताजी ने हमें गाड़ी पर बैठा दिया।हम तीनों भाई बहन हाथ में लिए नमकीन खाते चले आ रहे थे।कि अचानक गाड़ी खराब हो गयी।हम बहुत देर किसी दूसरी गाड़ी के इंतजार में खड़े रहे। तभी उस गाड़ी से उतरते यात्रियों ने कहा-अब यहां रुकना सही नहीं।रात हो जाएगी तो गाड़ी भी नहीं मिलेगी । इससे अच्छा हम पैदल चल चलें। देखते-देखते सभी लोग बढ़ चले।अब वहां हम तीन भाई-बहन रह गये। हमने कहा -यहां अकेले खड़े रहने से अच्छा है हम भी इनके साथ चल चलें।कुछ दूर चलने के बाद बीच-बीच में सभी लोग अपने-अपने घरों की ओर मुड़ते चले। अब रास्ते में हम तीन भाई-बहन ही चल रहे थे। अंधेरा घिर आया था।काली-रात के अंधेरे में और सुनसान रास्ते की नीरवता मन में यूं ही भय उत्पन्न कर रहा था। लेकिन हम हिम्मत कर बढ़े जा रहे थे।कि अचानक चेहरे पर कपड़े लपेटे तीन लोग हमारे सामने प्रकट हुए और कड़कती आवाज में बोले- जल्दी से सारे सामान हमारे हवाले करो नहीं तो बहुत मारेंगे। हमारी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई थी।डर के मारे सारे सामान के थैले उनके हवाले कर दिए।सामान लेकर उन्होंने पास खड़ी साइकिल में टांग लिए फिर बोले-जल्दी से हमारी साइकिल में बैठ जाओ।इस बार बोलने का लहजा और भी तीखा था।डर और घबराहट से हम कांपने लगे।अब हमें लग रहा था कि ना हम सिर्फ लूटे गए बल्कि अगवा भी कर लिए गए। मां पिताजी ठीक समझाते थे कि बच्चों को कहीं अकेले नहीं जाना चाहिए। लड़खड़ाते कदमों से हम उनकी साईकिल की ओर बढ़ चले तभी एक जानी-पहचानी सी हंसी गूंज पड़ी। मैंने हंसने वाले की ओर देखा। सभी लोगों ने अपने चेहरे के रूमाल हटा लिए। उन्हें देखकर हमारी जान-में- जान आ गयी। क्योंकि वे हमारे चाचा और उनके मित्र थे। उन्होंने कहा-हमें लग रहा था कि तुम लोग को आने में देर होगी। इसलिए तुम्हें लेने चला आया। फिर सोचा थोड़ी शरारत भी हो जाए। तुमलोग के भय दूर करने के लिए हमें अपने चेहरे पर से नकाब हटाने पड़े।
   हम सभी का भय चाचा और उनके साथियों को देख दूर अवश्य हो गया था।पर उस भयावह परिस्थिति की कल्पना कर मन सिहर उठा।ऐसी घटनाएं सच में भी घट सकती है। हमारी जिद्द से मजबूर हो पिताजी हमें बाजार अवश्य लें गये।पर उन्हें क्या पता था गाड़ी बीच में ही खराब हो जाएगी।हम मन -ही-संकल्प कर रहे थे कि अब कभी भी इस तरह की ज़िद नहीं करेंगे।आज भी वह काली रात याद आती है तो मन कांप उठता है।
            सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
              स्वरचित, मौलिक

Sunday, October 24, 2021

चलनी की आड़ से (करवा चौथ )



चलनी की आड़ से साजन का,
दीदार प्यारा लगता है।
जब-जब भी पड़े साजन पर नजर,
संसार प्यारा लगता है।
जब-जब भी पड़े साजन.......
माथे पर सजा सिंदूर-बिदिया रहे।
हाथों में खनकाती ये चुड़ियां रहे।
हाथों में मेहंदी की ये लरियां रहे।
पांवों में झनकती ये बिछिया रहे।
लाल चुनरी अंग शोभे,हो-हो-हो
गले में यह लाल मोतियों का,
हार प्यारा लगता है।
जब-जब भी पड़े साजन ......
जब तलक आसमां में ये चांद रहे,
तब तलक मेरा-तेरा ये साथ रहे।
संग- संग गुजरता दिन -रात रहे।
सदा ही अचल मेरा अहिवात रहे।
बढ़ते रहें हम -तुम संग सनम,हो-हो-हो
तुम मेरे संग रहो तो मेरा,
घर-बार प्यारा लगता है।
जब-जब भी पड़े साजन.........
हर जनम में रहे हम साथ सनम।
आ मिलकर खा लें आज कसम।
आज दिल का मिटा ले सारे भरम।
एक-दूजे से कभी ना बिछड़ेगे हम। 
दिल ये कहे आज सनम,हो-हो-हो,
आज शुभ दिन में साजन का,
प्यार प्यारा लगता है।
जब-जब भी पड़े साजन............
           सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
              स्वरचित, मौलिक

Friday, October 22, 2021

वक्त को साथी बनाना सीख लो (गज़ल )



वक्त को साथी बनाना सीख लो।
साथ उसका तू निभाना सीख लो।
वक्त के संग चलना तुम्हें है सदा-
कदम उससे तू मिलाना सीख लो।

राह अपना तुम बनाना सीख लो।
पग उसपर तुम बढ़ाना सीख लो।
अगर राहों के कंटक पग में गड़े-
पुष्प उसपर तू बिछाना सीख लो।

वक्त को तू आजमाना सीख लो।
भरोसा मन को दिलाना सीख लो।
वक्त ने जो दिए हैं ये जख्म तुझे-
उसमें मरहम तू लगाना सीख लो।

मन को तुम समझाना सीखो लो।
सबके दिल में समाना सीख लो।
कोई तुमको न देखे फिकर ना करो-
खुद को खुद पर रिझाना सीख लो।

तुम भी करना बहाना सीख लो।
रूठों को तुम मनाना सीख लो।
कोई जलता है अगर तुझे देखकर-
दिल उसका जलाना सीखो लो।
          सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
            स्वरचित, मौलिक

Wednesday, October 20, 2021

परीक्षा



एक गुरुकुल में यह परम्परा थी कि नित्य कक्षा में आगमन और प्रस्थान करते समय शिष्य गण गुरुजी के चरण-स्पर्श करते थे।एक दिन गुरुजी ने शिष्यों से कहा-कल तुम सबकी परीक्षा है। दूसरे दिन नियत समय पर गुरुजी एक ऊंची तख्ती पर बैठ गये। उन्होंने अपना बायां पांव जमीन पर रखे और दाएं पांव को मोड़कर बांए पांव के घुटने पर चढ़ा लिया।सभी शिष्य परीक्षा देने उपस्थित हुए ।वे कतार बांध कर आ रहे थे और बारी-बारी से  गुरुजी के चरण-स्पर्श करते। गुरु जी के बैठने के अंदाज से सभी शिष्यों को चरण -स्पर्श  करने में कठिनाई हो रही थी। कोई शिष्य सिर्फ उनके नीचे रखे चरण को स्पर्श करता, कोई ऊपर वाले को , कोई बारी-बारी से दोनों को,तो कोई तिरछे हाथों से एक साथ दोनों चरणों को, कोई दोनों हाथों को दाएं बाएं घुमाते हुए दोनों चरणों को। गुरुजी प्रसन्न चित्त से सभी को आशीष देते।
अंतिम शिष्य जिसका नाम विशाल था आया। उसने असमंजस से  गुरुजी के चरणों को देखा, और क्षमा-याचना के भाव से अपने दोनों हाथ जोड़ दिए। गुरुजी शिष्य को गौर से देखकर सोचने लगे, क्या यह चरण -स्पर्श नहीं करेगा ?
   लेकिन उसनेे ध्यान से गुरुजी के चरणों को देखा फिर आदर- पूर्वक दोनों हाथों से गुरुजी के ऊपर वाले पांव पकड़ कर नीचे वाले पांव के बराबर रखा। उसके बाद दोनों हाथों से दोनों चरणों को स्पर्श किया। गुरु जी ने उसे भी आशीष दिया।
 फिर उठकर परीक्षा कक्ष में प्रवेश किए और होंठों पर मधुर मुस्कान लिए हुए कहा आज की परीक्षा में विशाल उत्तीर्ण हुआ।
सभी शिष्य गुरु जी को अचंभित हो देखने लगे।वे मन-ही-मन सोच रहे थे अभी तो हमारी परीक्षा ली ही नहीं गयी फिर परीक्षा फल कैसे घोषित कर दिया गया ?
     गुरु जी उनके नेत्रों की भाषा से उसके मन के भाव समझ रहे थे। उन्होंने कहा-आज तुम्हारे द्वारा मेरे चरणों का स्पर्श ही तुम सबकी परीक्षा थी। मैंने अपने चरणों को प्रतिकूल रखा।तुम सभी उस प्रतिकूलता को ही अपनाते रहे। परीक्षा अर्थात चरण-स्पर्श गलत तरीके से करते रहे। लेकिन विशाल ने मेरे चरणों को सही तरीके से रखा अर्थात पहले परिस्थिति को अनुकूल बनाया फिर चरण-स्पर्श किया। इसलिए प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाने वाला ही जीवन की परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकता है।
           सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
             स्वरचित, मौलिक

पत्र पेटी (लघुकथा )

हाथ में दो दर्जन पोस्ट-कार्ड लिए करुणा बड़ी तेजी से डाक घर की ओर बढ़ी जा रही थी। बाजार आते वक्त मां जी ने उन्हें उसके हाथों में थमाते हुए कहा-डाक घर जाकर इन पत्रों को पत्र पेटी में डाल देना।अब बस दस दिन ही शेष हैं।पत्र मिलने में देर होगी तो सभी लोग शिकायत करेंगे। उसने उन चिट्ठियों पर सरसरी नजरें डाली। सभी चिट्ठियों में अशीष, प्रणाम और हाल समाचार के बाद लिखा था-दस दिनों बाद मेरी दूसरी आंख का आपरेशन होने वाला है। जल्द-से-जल्द आने की कोशिश करो।
पते पर नजरें दौड़ाई। सभी चिट्ठियों पर मां जी के भाई- बहन, भतीजे-भतीजियों, बेटियों आदि के पते लिखें थे।वह सोचने लगी ,उनके रहने एवं खाने-पीने की व्यवस्था भी तो करनी है।उसे याद है मां जी की पहली आंख का आपरेशन के समय मां जी के मायके के लोग आए थे तो अलग से रसोइया रखना पड़ा था।ऊपर से वह स्वयं सभी लोगों की सेवा- सुश्रुषा एवं आवभगत में लगी रहती थी। फिर भी सभी लोग उसकी निंदा करते रहते,ताने देते रहते।अलसी,निकम्मी,अलहेली, बेवकूफ,मुंह जोर आदि कितनी उपाधियां उसे प्रदान किया गया था।उन पुरानी बातों को याद कर उसके तन-मन में आग लग गयी।रोगी से ज्यादा देख-रेख और सेवा तो रोगी को देखने आने वालों की करनी पड़ती है। कोई सेवा या मदद के लिए थोड़े ना आते हैं।मेहमानी भी होती है और काना-फूसी भी करते हैं। इलाज और आपरेशन से ज्यादा पैसा तो रिस्तेदारों ंंके आवभगत में खर्च हुए थे।
  इन विचारों में डूबी वह डाक घर के पास पहुंच गयी।उसी समय कचरे ले जाने वाली गाड़ी पत्र पेटी के पास आकर रुकी।वह उस गाड़ी के हटने का इंतजार करने लगी। अचानक उसकी नज़र कचरे वाली गाड़ी के डब्बों पर पड़ी ।वह हरे डब्बों में सारी चिट्ठियों को डालने लगी। कचरे ले जाने वाले ने उसे नासमझ समझते हुए कहा- उधर है पत्र-पेटी।इन चिट्ठियों को उसमें डालिए। लेकिन करुणा ने तेजी से उन चिट्ठियों को कचरे के डिब्बे में डालते हुए कहा- इन चिट्ठियों की पेटी यही है। चिट्ठियां ना मिलने की शिकायत अवश्य रहेंगी। किन्तु हमारे और उन सभी लोगों के पैसे और समय की बचत होंगी।साथ में परेशानियों से भी मुक्ति मिलेगी।
बेचारा कचरे वाला आवाक उसका मुंह देखता रह गया।गीले कचरे में भींग सारी चिट्ठियां गीली हो गईं थी, और करुणा राहत की सांस लेते हुऐ बाजार की ओर बढ़ गयी।
                                    सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
                                       स्वरचित, मौलिक

Tuesday, October 19, 2021

कहां खोया ये बचपन


,कहाँ खोया रे बचपन ?

हाय कहाँ खोया रे बचपन,
खेल-खिलौने सब छोड़कर।
तुतली  बोली  से रूठकर,
भोलापन से मुख मोड़कर।

कहाँ  गए वे लट्टू - घिरनी,
और कहाँ वे गिल्ली - डंडे।
साँप-सीढ़ी,लूडो - शतरंज,
और  वे ब्यापारी  के फंडे।

इक्खट - दुक्खट  का मजा,
वह कित-कित-कित करना।
रूमाल - चोर, ओ सम्पाजी,
वो आँख-मिचौनी का छुपना।

कहाँ गया वह गेंद और पिट्टो,
कूदना और फांदना  रस्सी से।
रेल बनाकर बम्बई को घुमना,
और झूला झूलना  मस्ती  से।

लउवा - लाठी, चंदन - काठी,
आईस-पाईस, चोर - सिपाही।
अटकन-मटकन दही-चटाकन,
और वो दोस्तों  की  गलबाहीं।

आहा,क्या थे दिन बचपन के,
मन में  कोई  क्लेश  नहीं था।
ना किसी से शिकायत शिकवा,
किसी से भी वैर- द्वेष नहीं था।

बड़े  हुए  तो खेलने  पड़ते हैं,
जिम्मेदारियों के बड़े-बड़े खेल।
छूट  गए  सब   संगी - साथी,
नहीं किसी से हो पाता है मेल।
          सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

राम (दोहा )


दशरथ जी के लालना,राम बड़े थे वीर।
अरिदल की सेना संग, लड़ने में रणधीर।

मंझली मां के कोप से, मिला उन्हें वनवास।
पिता की आज्ञा पा चले,मन में ले हुलास।

मातु-पिता और गुरु के,चरणों में नवाकर शीश।
सभी जन को प्रणाम कर,चले पाकर आशीष।

लघु-भ्राता लक्ष्मण बोले,जोड़ कर दोनों हाथ।
भैया अकेले  ना जाइए, मैं भी चलूंगा साथ।

त्याग राजसी वस्त्र को,पहन वलकल अंग।
भार्या सीता भी चली, ख़ुश हो उनके संग।

वन वन भटके साथ वे, खाते मूल और कंद।
छोटी-सी कुटिया बना,रहते लिए आनन्द।
                 सुजाता प्रिय'समृद्धि'
                   स्वरचित, मौलिक

Monday, October 18, 2021

कलश यात्रा

जय मां शारदे
 कलश यात्रा
शारदा की खुशी का ठिकाना नहीं ।बेटा दुल्हा बनेगा।घर में बहू आएगी।उसके पायल की रुनझुन से घर का माहौल संगीतमय हो जाएगा।उसकी शृंगार की सुगंध से पूरा घर सुवासित हो जाएगा।उसकी सुंदरता से पूरा महल सुशोभित हो जाएगा।आज उसके बेटे को तिलकोत्सव है।शुभ-घड़ी पर उपस्थित टोले-मुहल्ले के सभी लोगो तिलक-भोज से निपटकर चले गये। सम्बंधी-कुटुमब के लोग तिलक में आए सामानों को देखने लगे। किन्हीं सामानों की बड़ाई और किसी की बुराई का शिलशिला चलने लगा। लेकिन शारदा को सामानों की परवाह नहीं बहू तो सुंदर और संस्कारी मिली। किसी ने मुंह बनाते हुए कहा-इतने बर्तनो में आपकी दोनों बेटियों की शादी कैसे हो जायेगी।किसी ने कहा-होने वाले समधी की सात बेटियां हैं और यह आखिरी बेटी है कहां से दे पाते अधिक सामान। लेकिन शारदा मन-ही-मन प्रतिज्ञा कर रही थी कि बहू के मायके से आये एक भी सामान वह बेटियों को नहीं देगी।सारे सामानों को देखते-देखते अचानक उसकी नज़र तिलक में आयी कलशी पर पड़ी।उसे देख उसकी आंखों में अजीब सी चमक उत्पन्न हुई।जैसे वह अपनी कोई खोयी हुई वस्तु पा गयी।वह झट से उठी और कलशी को उठाकर देखी ।फिर उसमें की गयी कशीदाकारी में जैसे कुछ ढूंढने लगी। कशीदाकारी के बेल-बूटे पर उसकी नजरें थम-सी गयी।बूटे के बीच में उभरे अपनी दादी के दादा-दादी के नाम देख उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।वह अपने बेटे को देखते हुए बड़ी प्यार से बोली-मेरा बेटा मेरी प्यारी कलशी को बहुरा कर ला दिया।
      मतलब ? लोगों ने अचंभित हो पूछा।
शारदा ने कहा-आज से पच्चीस साल पहले यह कलशी मेरे मायके से आया था। इसमें मेरी दादी के दादा -दादी का नाम लिखा हुआ है।फिर कितनी जगह यात्रा करते हुए यह वापस मेरी बहु के मायके से आया।वह मेरे बेटे के कारण ही न। मतलब इसे मेरा बेटा वापस लाया।
*************************
शारदा अठारह वर्ष की होने वाली है। ठीक अठारह वर्ष पूरे होने पर उसका विवाह होने वाला है। तैयारियां जोर शोर से चल रही हैं।दुल्हे का जोड़ा ,सिकड़ी-अंगूठी घड़ी-मोटरसाइकल और दहेज में मांगे जाने वाले सारे सामानों की खरीदारी के साथ शारदा के लहंगे-गहने संदूक-पिटारी टेबुल पलंग और जाने क्या-क्या सामान कुछ जरूरत के कुछ दिखाबे के खरीदकर लाया गया। किन्तु,
 शारदा को उन सामानों से कोई खुशी नाराजी नहीं।वह तो खुश है, बस इस बात से कि दादी ने अपनी दादी का दिया हुआ कलश उसे दे दी। उसे याद है बचपन में उस कलशी में वह तरह-तरह के सुंदर फूलों को सजाकर रखती थी।उसे वह कलशी बहुत अच्छी लगती थी।जिसका कारण था उसमें की गयी नक्काशी। कलशी के गर्दन में इतने सुन्दर  बेल ! ऐसा प्रतीत होता था कि कोई दुल्हन अपने गले में सुंदर हार पहनी हो।बीच के चौड़े भाग की नक्काशी के क्या कहने।जो देखता दंग रह जाता। सचमुच इतने सुंदर बेल बूटे कहीं किसी गगरी में नहीं दिखे।ना किसी दुकान में ना हीं किसी के घर में। दादी कहती थी कि उसकी दादी ने ठठेरे को कहकर उसे विशेष रूप से बनवाया था। नक्काशी के बड़े-बड़े बूटों में दादी के दादा-दादी का नाम इतनी बारिकी से खुदा हुआ था कि बिना बताए किसी को नजर नहीं आता था।
जब से दादी ने घोषणा की थी कि वह  कलशी अपनी पोती शारदा को दे देगी,शारदा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। तरह-तरह के सपने देखने शुरू किए।गगरी को फूलदान बनाएगी, उसमें रोज सुंदर और ताजे फूलों के गुच्छे को सजाएगी। कभी सोचती इसमें पीने का पानी रखेगी, कभी सोचती इसमें बचत के पैसे रखेगी। कभी सोचती इसे संभालकर रखूंगी और मैं भी अपनी पोती को शादी में उपहार दे डालूंगी। धत् तेरे की s s ! उसने शर्माते हुए तकिए में मुंह छिपा लिया।यह क्या सोच रही है। अभी शादी भी नहीं हुई और पोती...... कितनी कल्पनाएं कर डाली उस कलशी को लेकर।
            खैर ! उसकी शादी बड़े धूम-धाम से हो गई। ससुराल में अपनी कलशी को देख मन इस प्रकार प्रफुल्लित हो उठा -जैसे उसकी कोई अंतरंग सहेली से मिलाप हुआ हो।टोले-मुहल्ले तथा घर-परिवार के लोग मुंह दिखाई के लिए आते तो उसकी छवि के साथ-साथ उसकी प्यारी कलशी की भी प्रशंसा दिल खोलकर करते जिसे सुनकर उसके हृदय में आनन्द के जो हिलोरें उठती उसका वर्णन कर पाना अत्यंत कठिन कार्य है।
       लेकिन उसकी शादी के ठीक आठवें दिन उसकी एकलौती ननद की शादी थी।खुशी से उसका मन-मयूर थिरक उठा ।अपनी कितनी साड़ियां, कितने लहंगे, कितने गहने खुश मन से उसने ननद को पसंद करबा कर दे दिए। एक बार भी नहीं सोचा वह उसका किसी का दिया हुआ उपहार है,उसका सुहाग-शृंगार है। लेकिन उन मनोदशाओं पर काबू पाना कितना कठिन हो गया जब उसकी आंखों के सामने से उसकी प्यारी गगरी को यह कहते हुए उठाकर ले जाया गया कि उसकी ननद को यह गगरी बहुत पसंद है, इसलिए उसे उसके तिलक में  दे देते हैं। ऐसा लगा उसके सीने से किसी ने उसका कलेजा काढ़ लिया हो। परन्तु स्वाभाविक संकोच से मना नहीं कर पायी। मायके वालों की शिक्षा कानों में अलग डंके बजा रही थी-यहां से भेजे समानों को कोई रखते हों, उपयोग में लाते हों, किसी को देते हों,तुम कुछ मत बोलना।
पति ने आकर नजरों की भाषा में कुछ नहीं बोलने की चेतावनी दी।
 उसके पास अपने कलेजे पर पत्थर रख लेने के अलावा कोई चारा नहीं था।मन को तसल्ली दी कभी ननद के घर जाउंगी तो देखूंगी। लेकिन,ननद ने ससुराल से आते ही कहा आपकी कलशी की वहां बहुत तारीफ हुई। सुनकर मन गदगद हो गया। लेकिन ....
लेकिन ? सशंकित हो वह घबराकर कर पूछ बैठी।
उसे मेरी ननद ने नेग में ले लिया।ननद ने रुआंसे स्वर में कहा।
जब वह शादी के बाद पहली बार मायका गई तो लोगों ने पूछा कलशी कहां सजायी ?
 बेचारी ! जवाब में होंठों पर स्निग्ध मुस्कान बिखेरने के सिवा कुछ नहीं कर सकती थी। कुछ वर्षों बाद उसकी ननद ने यह समाचार सुनाया कि आपकी वह कलशी , जो मेरी ननद को नेग में दिया गया था वह उसकी ननद को दहेज में दे दिया गया। ठीक हुआ जैसे को तैसा। उसने कभी सोचा नहीं कि वह मुझे मिला था। मुझे कितना पसंद था। आखिर उसका भी नहीं रहा।
 शारदा सोच रही थी जैसे को तैसे का सिद्धांत तो सबके साथ लागू होता है। उसने भी तो नहीं सोचा यह सब कि मुझे वह कलशी कितनी पसंद थी। मुझे भी तो वह कलशी दादी ने उपहार में दिया था ।वह निराश मन से सोच रही थी कि अब अपनी प्यारी कलशी को कभी नहीं देख पाऊंगी।भला ननद की ननद की ननद के घर वह क्यों जाएगी ?
मायके में बार-बार पूछे जाने पर कलशी का यात्रा-वृत्तांत जाने कैसे फिसलकर उसके मुख से बाहर आ गया । फिर क्या था ।काना-फुसी होते-होते दादी के कान तक पहुंच गयी। उसके बाद के माहौल का माहौल उसके लिए भी भारी पड़ा ।तरह-तरह के ताने-बाने सुनने को मिला। कलशी की बात उठते ही उसकी मां और दादी ने उसकी ननद को लालची,सास को नासमझ और पूरे परिवार को जाने किन-किन अलंकरणों से विभूषित करती।उनके लिए बोली गयी जली-कटी  सुन उसे बहुत बुरा भी लगता। लेकिन वह करती भी क्या ?उसे वापस मांग तो नहीं सकती थी।
दिन बीतते गए।वह कलशी को मिलने-खोने और दूर होने की बात को दु:स्वप्न समझकर भूलने की कोशिश करती। कभी भी कलशी की याद आती तो अपने मन में यह निश्चय जरूर करती कि बहू के मायके से आने वाले सामानों को कभी ना उपयोग में लाएगी,ना बेटियों को देगी। किसी के दहेज अथवा उपहार में मिले सामानों को बिना उससे पूछे लेना या किसी को देना एक ग़लत प्रथा है।इस प्रथा के रोक-थाम करने पर दूसरों पर तो वश नहीं है पर स्वयं पर नियंत्रण किया जा सकता है।यह तो महज एक संयोग है कि जहां उसकी कलशी गयी थी उसी घर में उसके बेटे की शादी हुयी, और यह तो पूर्ण रुपेण  महासंयोग है कि मेरी बहू को दिए जाने के लिए अब तक यह कलशी वहां सुरक्षित रही । नहीं तो उसकी भी ननद अथवा सात बेटियों में किसी और को दे दिया जाता। शारदा प्रसन्न मन से उस कलशी को देखती हुयी उसे उठाकर अपने सीने से लगा ली। तभी कहीं लाउडस्पीकर में फिल्मी गाना गूंज उठा।कल के बिछड़े हुए हम आज कहां आ के मिले.........
और शारदा की आंखें बिछड़ने के बाद मिलन के हर्षा-तिरेक में छलछला आईं।
               सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
                 स्वरचित, मौलिक

Sunday, October 17, 2021

ठगी का शिकार

खेल रहे ठग खेल ठगी का,हम सब हुए शिकार।
कदम- कदम पर ठग हैं देखो, ठगने को तैयार।
तरह- तरह के रोज बहाने, वे लेकर आते हैं पास।
फटे-चिथड़े परिधान पहनकर, चेहरा लिए उदास।
कोई कहते मां मरी है, कोई कहते हैं बाप बीमार।
कोई मदद में दस-बीस मांगते, मांगता कोई हजार।
कोई-अंधा-कोढ़ी बन आता, कोई बन गूंगा-बहरा।
कोई कमर झुकाकर आता, कोई बन लूला-लंगड़ा।
कोई मंदिर के नाम पर ठगता, कोई कहता है पूजा।
ठगता है लंगर-भण्डारे कह, हथकंडे और भी दूजा।
खेल रहे हैं बहुरूपिए भी, ठगी का खेल निराला।
बचकर रहना इनसे ऐ लोगों,पड़े जो इनसे पाला।
घोड़े को रंग काले रंग से,पहनाकर लोहे की नाल।
दस कदम चला दस हजार में बेचते तुरंत निकाल।
रिक्शे, टैक्सी को सजाकर, प्रतिमा उसमें रख देते।
धूप-दीप- के नाम पर भी लोगों से पैसे हैं ठग लेते।
मिलावट कर मिर्च-मसाले में, साहुकार हमें ठगते।
महंगाई का रोना रोकर, हितैषी वे हमारे हैं बनते।
ठगने के ये खेल निराले,मेहनत करने से हैं अच्छे ।
इस खेल को खेल रहे हैं, मिल युवा बूढ़े औ बच्चे।
            सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
              स्वरचित, मौलिक



Friday, October 15, 2021

रावण मरता क्यों नहीं



रावण मरता क्यों नहीं

हर साल विजयदशमी की अवसर पर बुराई के प्रतीक स्वरूप रावण को हम तीर चलाकर मारते हैं। अग्नि प्रज्वलित कर उसे धूं-धूं कर जलते हुए देखते हैं और मन में संतुष्ट होते हैं कि रावण का दहन हो गया।रावण मर गया। किन्तु आगामी साल के विजयदशमी को पुनः रावण को मारना पड़ता है।फिर हम सोचते हैं कि प्रत्येक वर्ष मारे जाने पर भी रावण मरता क्यों नहीं ? 
आखिर क्यों ? हर बार रावण को मारना पड़ता है। इस ज्वलंत प्रश्न पर हम कभी विचार नहीं करते। हम कभी यह नहीं सोचते कि कपड़े अथवा कागज के बने रावण को तो हम अग्नि में फुकते हैं किन्तु मन में पल रहे बुराई रुपी रावण को  तो हम कभी फूंक नहीं पाते।मन में उठे दुर्विचारों को, दुर्व्यवहारों को, दुराचारों को हम कभी मार नहीं पाते।तो भला हर साल मारने पर भी रावण क्यों मरेगा ? 
जिस प्रकार रावण मांस-मदिरा का सेवन करता था।उस प्रकार हम भी कर रहे हैं। जिस प्रकार रावण साधु-संतों को सताता था उस प्रकार भले लोगों के साथ हम भी दुर्व्यवहार करते हैं। जिस प्रकार रावण पराई स्त्रियों का हरण करता था उस प्रकार हमारे समाज में भी नारियों का अपहरण किया जाता है।जिस प्रकार रावण दूसरों के धन नष्ट करता था ,उस प्रकार हम भी दूसरों के धन लूट रहे हैं।इस प्रकार रावण तो हमारे मन के कण-कण में विद्यमान है। इसलिए रावण के मारने की हमारी लाख कोशिशों के बावजूद  रावण नहीं मरता है। अगर हम सचमुच रावण को मारना चाहते हैं तो इस नकली रावण को मारने का ढोंग करने वाले अभिनय  करने से अच्छा मन में उत्पन्न बुराई रुपी असली रावण को मारने का प्रयत्न करें।रावण ज़रूर मर जाएगा।
               सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Thursday, October 14, 2021

ऐ पथिक बढ़ते चलो (गीतिका छंद )

हे पथिक चलते चलो तुम, जिंदगी के रास्ते।
मन कभी विचलित न करना, छोड़ने के वास्ते।

माना पथ मुश्किल बहुत है,पर इसे मत छोड़ना।
मुश्किलों के मुकाबले को,मुख कभी मत मोड़ना।

राह में कण्टक अगर है,रौंद कर बढ़ते चलो।
हौसला रखकर हृदय में, पहाड़ पर चढ़ते चलो।

आहत होकर ठोकरों से,हिम्मत कभी मत हारना।
हर हाल में बढ़ना तुम्हें है,मन में रख लो धारना।

मन के सारे हार होती, मन के हारे ही जीत है।
हिम्मत तुम्हारा संगी-साथी,हिम्मत ही तेरा मीत है।

तुम अगर बढ़ते चले तो,राह स्वयं मिल जाएगी।
हर मुसीबत हौसलों से, राह से टल जाएगी।

                              सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Tuesday, October 12, 2021

जय मां कालरात्रि



जय मां कालरात्रि

सप्तम रूप शोभिता,शुभ भाव धारिणी।
जयंती जयप्रदा तथा मां कालरूपिनी।।

कालिके,काली कालरात्रि,काल कपालिनी ।
कालिका कपालिनी रकतपुष्प मालिनी।।

दुष्ट दलनकारिनी सदा ही सिंहवाहिनी।
भयं रूप भयंकरी भूतादि भयहारिणी।।

महा स्वरुप महाप्रदा गृहे-गृहे निवासिनी।
ददाति दानरूपिनी दारिद्र- दुखहारिनी।।

तंत्र-मंत्र से समस्त प्राणियों को तारिनी।
महारुपेण महाज्वला नमामि विंध्यवासिनी।।

विनय विवेक ले सदा हो कपालधारिनी।
भूत-प्रेत मिले कभी लगे उसे डरावनी।।

खड़ाखड़ाती खड्ग ले खड़ी खप्पर धारिनी।
तंत्र- मंत्र धारिनी, सर्वत्र सिद्धि कारिणी।।
              सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Friday, October 8, 2021

सुन ले विनती आज (मां अम्बे गीत )

जय मां अम्बे, जय जगदम्बे,
सुन ले विनती आज शरण में आई हूं।
तेरी यह दासी, बहुत उदासी,
दर्शन प्यासी आज शरण में आई हूं।
कष्ट हरो मां भक्त जनों के,
जीवन आज सुधारो।
कष्ट भुजा मां दुःख-सागर से,
नैया पार उतारो।
सुनो मां नैया पार उतारो।
सब दुःख हरनी,सब सुख हरनी,
उबारो तरनी आज, शरण में आई हूं।
जय मां अम्बे.......................
संकट हरनी नाम तुम्हारा,
सबके संकट हरती।
महिमा तेरी बड़ी निराली,
सबको समृद्ध करती।
हां हां मां सबको समृद्ध करती
बिगड़ी बनाओ,पाप मिटाओ,
कर दो कृपा आज, शरण में आई हूं।
जय मां अम्बे...................
तेरे सिवा नहीं कोई मेरा,
 किसके द्वार मैं जाऊं।
हे जगतारिणी तू बतला दे,
किसको सुनाऊं।
कहो मां किसको व्यथा सुनाऊं।
तू मन हरनी,दिल खुश करनी,
बिगड़ी बना दो आज,शरण में आई हूं।
जय मां अम्बे.....................
          सुजाता प्रिय 'समृद्धि'


Tuesday, October 5, 2021

मां दुर्गा की भोग आराधना गीत


मां दुर्गा की भोग आराधना गीत
              (लावणी छंद)

नवरात्रि में नवदुर्गा माता को मनभावन भोग लगाइए।
मां के चरणों में शीश नवाकर,मनचाहा वर को पाइए।

प्रथम दिवस शैलपुत्री मां के चरणों में गौ का घी चढ़ाइए,
अपनी प्यारी काया को, सुंदर-स्वच्छ, निरोग बनाइए।

द्वितीय दिवस ब्रह्मचारिणी मां को,शक्कर भोग लगाइए,
माता से आशीष पाकर,अपनी आयु को दीर्घ बनाइए।

तृतीय दिवस चन्द्र घंटा मां को खीर-मिठाई खिलाइए,
सदा सुखी का वरदान लिजिए, दुःख से मुक्ति पाइए।

चतुर्थ दिवस कुष्मांडा मां को, मालपुआ खिलाइए,
बुद्धि विकसित कर देंगी मां, निर्णय शक्ति बढ़ाइए।

पंचम दिवस स्कंदमाता को,कदली का भोग लगाइए,
काया कंचन सदा रहेगी, शरीर को स्वस्थ्य  बनाइए।

षष्ठम दिवस कात्यायनी मां को, मीठा शहद खिलाइए,
सुंदर,धौम्य सुकुमार शरीर, व्यक्तित्व आकर्षक पाइए।

सप्तम दिवस कालरात्रि मां को, गुड़ का भोग लगाइए,
अकास्मिक आने वाले, सारे संकट से छुटकारा पाइए।

अष्टम दिवस महागौरी मां को, नारियल भोग लगाइए,
बंध्यापन को दूर करें,और संतति के सुख को पाइए।

नवम दिवस सिद्धिदात्री मां को,तिल का भोग लगाइए,
अकास्मिक मृत्यु के भय से,सदा के लिए राहत पाइए।

दसम दिवस माता रानी के,चरणों में शीश नवाइए।
शुभाशीष, शुभकामनाएं पाकर, यात्रा शुभ बनाइए।

प्रेम से बोलो जय माता की 🙏🙏
                              सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Monday, October 4, 2021

कल हाथ पकड़ना मेरा



कल हाथ पकड़ना मेरा (लघुकथा)

सब्जियों की थैली ले कांपते कदमों से शम्भु प्रसाद जी बार-बार सड़क पार करने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन तेज रफ्तार से आती गाड़ियों को देख उनकी हिम्मत जवाब दे जाती।ना चाहते हुए उनकी नजरें मनीष को ढूंढ रही थी।वे उसका एहसान नहीं लेना चाहते थे।इतने में मनीष लपकता हुआ उनके निकट आया और उनका हाथ पकड़ कर सड़क पार कराने लगा। सड़क पार कर दोनों साथ-साथ चलने लगे। शम्भु प्रसाद ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा- बेटा तुम्हारे आफिस से आने और मेरे सब्जियां लाने का समय एक ही है। अक्सर हमारी-तम्हारी भेंट हो जाती है।तुम स्वयं थके-हारे आते हो फिर मुझे...........
शम्भु प्रसाद की बातें काटते हुए मनीष ने कहा आप भी तो आफिस से थके आते थे चाचा जी ! जब हम छोटे थे। विद्यालय से आते समय आप मेरे सभी साथियों को हाथ पकड़ कर सड़क पार कराते थे। मां ने कहा था किसी के साथ नहीं जाना।पता नहीं कैसे लोग हों क्या मकसद हो उनका। इसलिए हम आपके साथ नहीं जाना चाहते थे। आखिर मैंने आपसे एक दिन पूछ ही लिया कि क्यों आप हमें सड़क पार कराते हैं? आपने कहा था-बच्चे नासमझ और बूढ़े कमजोर होते हैं । इसलिए उन्हें सड़क पार करने में मदद करनी चाहिए।जब मैं बूढ़ा हो जाउंगा तब तुम भी मेरा हाथ पकड़ कर सड़क पार करना। आपकी यह शिक्षा मुझे बहुत अच्छी लगी।सचमुच आज वही स्थिति हो गयी। मेरे कार्यालय से आने का और आपके सब्जी लाने का समय एक ही है।जब मैं आपको सड़क पार करने में असमर्थ पाता हूं आपको सड़क पार करा देता हूं। इतना ही नहीं कहीं भी मैं किसी बच्चे और बुजुर्ग को सड़क पार करने में असमर्थ पाता हूं उन्हें जरूर मदद करता हूं।
शम्भु चाचा ने सोचा -हमारे कार्यों एवं संदेश से किसी को तो सीख मिली। हो सकता है अन्य बच्चे भी यह कार्य करते होंगे। मनीष संयोग से यहीं है इसलिए मुझे मदद करता है।उनका मन प्रसन्नता से भर गया।
             सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Friday, October 1, 2021

और कहानी छप गयी

किसी नगर में एक निर्धन और विद्वान ब्राह्मण रहते थे।उनके द्वार पर उनके शिष्यों भीड़ लगी रहती।सभी को वे उत्तम शिक्षा देते थे।गुरु दक्षिणा के रूप में वे स्वेच्छा से जो कुछ दे देते उसे संतुष्ट भाव से स्वीकार करते। उन्हें कहानियां लिखने का बड़ा शौक था।जब भी समय मिलता अच्छी और शिक्षाप्रद कहानियां लिखकर लोगों को सुनाते।सभी लोग उनकी कहानियों की खूब प्रशंसा करते। उन्हें लगता काश उनकी कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में छपती। लेकिन, निर्धनता के कारण वे अपनी कहानियों को छपबा नहीं पाते।
उनकी पत्नी मुर्ख और झगड़ालू स्वभाव की थी।आये दिन वह उनसे झगड़े करती।उनके द्वारा कहानी लिखें जाने को मुर्खतापूर्ण व्यवहार तथा कागज रोशनाई और समय की बर्वादी कहती।अवसर पाते ही उनके शिष्यों को डांट-फटकार कर भगा देती। उन्हें बस टोले-पड़ोसियों की निंदा सुनने एवं चुगली करने में ही मज़ा आता। पंडित जी उन्हें समझाते की निंदा एवं चुगली करना बुरी बात है। संसार में भांति-भांति के लोग हैं। दुर्गुणों और दुराचारियों की ओर ध्यान न देकर भले मानस और गुणवानों की कद्र तथा संगति करनी चाहिए। परंतु पंडिताइन पर उनके उपदेशों का कोई असर नहीं होता।
पंडित जी ने एक पुस्तक में पढ़ी थी कि महापुरुषों की सफलता में किसी-न-किसी नारी का साथ रहा है। वे सोचते मां-बहन तो है नहीं। पत्नी ऐसी मुर्ख है जिसकी दृष्टि में शिक्षा से बुरा कोई कार्य हो ही नहीं सकता। वे सोचते काश वे मुर्ख होते और उनकी पत्नी पत्नी कालिदास और तुलसीदास की पत्नी जैसी।
एक दिन पंडित जी किसी काम से बाहर आते हुए थे। पंडित जी की पत्नी झाड़ू लगा रही थी। अचानक उनकी दृष्टि पंडित जी के बिछावन पर पड़ी, जहां पंडित जी द्वारा लिखी गई एक नयी कहानी रखी थी। उसने सोचा? क्यों ना इसे बाहर फेंक दूं। यदि मैं उनके लिखे पन्ने को फेंकती जाऊं तो पंडित जी ऊब कर लिखना ही छोड़ दें।ऐसा सोचकर वह कहानी के पन्नों को उठाकर कूड़े के ढेर पर फेंक आयी।
संयोग से उस समय वहां से जा रहे एक पत्रकार की नजर उस पन्ने पर पड़ी। उन्होंने उसे कुछ जरूरी कागजात समझकर उठाया और कहानी पढ़ी। उन्हें वह कहानी बहुत ही रोचक और शिक्षाप्रद लगी। अंत में पंडित जी का नाम पता लिखा था। पत्रकार ने उस कहानी को उनके नाम-पते के साथ छपबा दिया।
 जब पंडित जी घर लौटकर आते तो अपने द्वार पर भीड़ देखकर अचंभित हो गये।उनके एक विद्यार्थी ने उन्हें अखबार दिखाते हुए कहा- अखबार में आपकी बहुत अच्छी कहानी छपी है। पंडित जी किंकर्तव्यविमूढ़ सा उन्हें देखते हुए सोच रहे थे-मुझे तो छपबाने सामर्थ ही नहीं फिर मेरे कहानी कैसे छप गयी ? अखबार लेकर पढ़ी। सचमुच यह तो उनके द्वारा लिखी गरी कहानी है। कहानीकार के स्थान पर उनका ही नाम है।साथ में उन्हें इस कहानी लिखने के लिए पुरस्कृत करने के लिए आमंत्रित किया गया है। आखिर यह चमत्कार हुआ कैसे?
वे घर आकर अपनी लिखी हुई कहानी ढूंढने लगे।
पत्नी ने उन्हें ऐसा करते देख तो पूछा क्या ढूंढ रहे हो?
उन्होंने कहा-यहां मैंने एक कहानी लिखकर रखी थी।
पत्नी ने कूढ़ते हुए कहा-उसे तो मैंने कूड़े पर फेंक दिया।
अब पंडित जी को सारी बात समझ में आ गयी।वे अपनी मुर्ख पत्नी को देखकर मुस्कुरा उठे।आज उन्हें अपनी मुर्ख पत्नी के कारण यह सफलता प्राप्त हुई थी।
                             सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

सेवा का संकल्प



सेवा का संकल्प (लघुकथा)

बिस्तर पर पड़े दादा जी का मल-मूत्र साफ कर रहे पिताजी को देख राजीव और संजीव का मन व्यथित हो गया। आखिर राजीव ने बोला ही दिया-क्या पिताजी आप अपने से यह सब करते हैं।एक केयर-टेकर रख लेते।
और क्या-अभी दो महीने पहले ही जब हम इन्हें लाने पटना गये थे तो देखा था देखा था चाचाजी इन लोगों के लिए केयर टेकर रख दिया था।जब दादा-दादी को कोई जरुरत होती कौंल कर देते और उधलोग आकर सब साफ़ सफाई कर देते।कुछ पैसे की ही तो बात है। संजीव ने उसकी बात खत्म होते ही कहा।
बात पैसे की नहीं बेटा! स्नेह-प्रेम और कर्त्तव्य की है। तुम्हारे चाचा बिजनेसमैन हैं।उनके पास समय का अभाव था। ‌तुम्हारी चाची भी अक्सर बीमार रहती हैं। ऊपर से घर के सारे काम नौकरों से करवाना। सो उन्होंने केयर-टेकर रख लिया ‌।
पैसे की कमी हमारे पास भी नहीं ।हम भी आदमी रख सकते हैं, इनकी देखभाल के लिए। लेकिन जब इन्हें जरुरत होगी तब तो नहीं आएगा।और जब-तक नहीं आएगा तब-तक इन्हें मल-मूत्र पर ही पड़े रहना होगा। इसलिए मैं आफिस जाने से पूर्व इनकी साफ- सफाई कर लेता हूं तो आत्मसंतुष्टि मिलती है। तुमलोग को पाल-पोस कर हमने देखा लिया कि मां बाप को बच्चों को पालन-पोषण और पढ़ाने-लिखाने में मां-बाप को क्या-क्या कष्ट उठाने पड़ते हैं। किन-किन कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। फिर वही बच्चे अपने शारीरिक रूप से लाचार मां-बाप की सेवा करने से कतराते हैं।अगर तुम्हारी चाची बीमार नहीं पड़ती तो तुम्हारे चाचू इन्हें कभी आने नहीं देते।अब हमें मौका मिला है तो हमें सहृदय इनकी सेवा करनी चाहिए। 
दादा-दादी के लिए दलिया बनाकर लाती हुई मां ने कहा-हां आप ठीक कहते हैं इस पुण्य कार्य में मैं हमेशा आपके साथ हूं।हमें इनकी सेवा अवश्य करनी चाहिए। 
दादा-दादी के लिए गर्म पानी लेकर आती दीदी ने कहा और हम भी।
और हम भी उनकी बातें सुनकर अनायास दोनों भाइयों के मुंह से निकल गया।
मां-पिताजी संतुष्ट-भाव से बच्चों को निहार रहे थे ।और तीनों भाई- बहन मन -ही- मन यह संकल्प लें रहे थे कि हम भी अपने मां-पिताजी की सेवा स्वयं करेंगे।पैसे की अधिकता से पंगु नहीं होंगे।
               सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
                 स्वरचित, मौलिक