मुझे
पता है प्रिय
तुम्हें मेरी इच्छा नहीं
फिर भी मुझे सदैव ही
तुम्हारी प्रतीक्षा लगी रहती है
तुम आओगे तो मेरी परछाई से भी
दूर रहोगे, मगर एक बार मुझे निहारोगे।
नाम लेना स्वीकार नहीं पर,मन-ही-मन पुकारोगे
क्योंकि, न तो मैं फूलों- सी कोमल हूँ
न सुंदर ! बस रंग- रूप-सुगंध विहिन
तब भी तुम आकर्षित हो कर यहाँ
कुछ पल का सांनिध्य पाने के लिए
अनजानी डोर-से खिंचे चले आओगे
फिर संकोच के आगोश में पलकें मुंद,
मन- ही -मन कुछ तराने गुनगुनाओगे
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
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