Monday, December 30, 2019

आत्मग्लानी ( एक सच्ची घटना )

किसी कारण वश मैं  रात में अकेली यात्रा कर रही थी।भाई ने टिकट कटवाकर बस में बैठा दिया।यूँ तो टिकट काउंटर पर आश्वासन देते हुए कहा गया कि किसी महिला यात्री को ही बगल की सीट दी जाएगी।पर सुरक्षा के दृष्टिकोण से भाई ने दूसरे सीट का भी टिकट कटवाकर  मुझे थमा दिया और शख्त हिदायत दी कि यदि कोई महिला इस सीटपर बैठना चाहे तो टिकट के पैसे लेकर बैठा लेना अन्यथा यह सीट भी आपके लिए सुरक्षित है। मैं अपना बैग बगल वाली सीट पर रख ली ताकी कोई उस सीट पर ना बैठे।
दूसरी ओर की सीट पर  एक उम्र दराज महिला बैठी थी।अगले ही पल उसी उम्र की एक अन्य महिला पहुँची, जिनके साथ सात- आठ साल का एक बालक भी था, कण्डक्टर ने उन्हें उस सीट पर बैठाते हुए कहा सीटें बड़ी हैं ।आप दोनों के बीच में यह बच्चा भी बैठ जायेगा।और, सचमुच उन दोनों के बीच वह बच्चा आराम से बैठ गया।पर पहली महिला को यह बात नागवार लगी कि उसके बच्चे को बैठने में थोड़ी सी जगह उसकी सीट की भी लगी।उन्होंने झट से अपने दोनों पैरों को सीट पर चढ़ाते हुए पालथी के रूप में फैलाकर आसन लगा लिया। जिस कारण बच्चे को वहाँ बैठने में कठिनाई होने लगी।बच्चा उठकर खिड़की की तरफ चला गया।
अब दोनों महिलाएँ पास-पास थीं। आसन लगायी महिला का घुटना दूसरी महिला की कमर में गड़ रहा था।वह जितना सिमटती पहली महिला के पैरों का दायरा भी बढ़ते जाता।दूसरी महिला ने अनुनय भरे स्वर में कहा-बहनजी! आप अपना घुटना थोड़ा समेट लें,तो मुझे बैठने में थोड़ी सुविधा होगी।
पहली महिला ने झिड़कते हुए कहा- एक सीट पर दो लोग बैठेगें तो दिक्कत तो होगी ही ।
दूसरी महिला ने कहा-बच्चा है।साथ-साथ बैठ गया।बेकार में एक सीट का किराया लगता।आपने पैर ऊपर कर लिया इसलिए दिक्कत हो रही है।
पहली महिला ने कहा-मैं अपनी सीट पर कुछ भी करूँ।पूरी सीट का किराया दिया है ।अपने पैर नीचे रखूँ या ऊपर ।आपको मतलब ?
इस प्रकार दोनों महिलाओं के बीच लगातार कहा- सुनी होती रही।दूसरी महिला के निवेदन पर पहली महिला बार-बार यही कहती।मैने सीट का पैसा दिया है।अपनी सीट पर जैसे चाहूँ वैसे रहूँ।आप बोलने वाली कौन ?
महिला का जवाब सुनकर मुझसे रहा न गया।मैंने गौर से उनकी तरफ देखा।सचमुच पहली महिला अपनी सीट पर बैठी अवश्य थीं परन्तु उनका घुटना बगल वाली आधी सीट तक फैला हुआ था।बेचारा बच्चा आधी सीट में पीछे की ओर दुवका बैठा था, और महिला आगे की ओर लटकी बैठी थी।तेज रफ्तार के कारण बस में झटका होता तो उसकी स्थिति फिसलने जैसी हो जाती। उन महिला की स्थिति पर मुझे बड़ी दया आई।मन किया पहली महिला से कह दूँ कि आप अपनी सीट पर बैठी अवश्य हैं पर आपने अपना घुटना दूसरे की सीट तक फैला दिया है।किन्तु कुछ उन महिला की उम्र का लिहाज और कुछ उनकी समझारी पर विचार करती हुई चुप रही।जिस महिला की सोंच खुद इतनी विकृत है कि मैं अपनी सीट का इस्तेमाल जैसे करूँ।जो खुद किसी की तकलीफ नहीं समझ पातीं,जो किसी की अनुनय विनय नहीं सुनतीं वह क्यो मेरी बातें सुनेंगी।
मैंने कुछ विचार करते हुए दूसरी महिला से कहा- चाची आप बच्चे को मेरे पास भेज दें।
महिला शायद मेरी सीट नहीं देखी थी।उन्होंने पूछा - आपके पास जगह है ?
मैंने कहा हाँ।मेरी दो सीटें है न।
उन्होंने बच्चे को मेरे पास बैठने की इजाजत दे दी।
मैंने अपना बैग नीचे रख लिया।वह खुश होता हुआ मेरे पास बैठने आ गया।
थोड़ी- सी बात- चीत से मैने जान लिया कि वह बच्चा सर्दी की छुट्टियाँ बिताने अपनी दादी के साथ बड़े पापा के पास जा रहा है।थोड़ी देर बाद वह सो गया।
मैने पलटकर उसकी दादी की तरफ देखा। वह भी बेफिक्र होकर अपनी सीट पर सो रहीं थीं।
बगल वाली महिला की ओर देखा।वह भी शांतिपूर्वक नींद ले रहीं थीं।अब उनके पाँव सीट से नीचे लटक रहे थे और शरीर अपनी सीट तक ही सीमित था।
उनके व्यवहारों के बारे में सोंचते-सोंचते ना जाने कब मेरी भी आँखें लग गयी।किसी पड़ाव पर बस रुकी थी।बच्चे की दादी उसे पुकार कर जगा रही थी मेरी भी नींद खुल गयी।बच्चा दादी के साथ जा रहा था ।दादी के इशारे पर उसने मुझे नमस्ते किया।
फिर उसकी दादी ने भी अपने दोनों हाथ जोड़कर  नमस्कार किया । मैं भी नमस्ते कहते हुए उनकी ओर देखाी।उनकी आखों में कृतग्यता के भाव दिख रहे थे।
बस आगे बढ़ी ।घंटे भर बाद बस रुकी तो पहली महिला भी उतरने लगी।मैं उनके व्यवहारों से दुःखी थी ।उनकी ओर देखना मुझे अच्छा नहीं लगा।
प्रणाम! आवाज की दिशा में मैंने नजरें घुमया।पहली महिला हाथ जोड़कर मेरे निकट खड़ी थी ।मुँह से बोल नहीं फुट रहे थे पर आँखों में आत्मग्लानी और पाश्चाताप के भाव अस्पष्ट झलक रहे थे।
मेरे भी दोनों हाथ स्वतः जुड़ गये।भारी कदमों से महिला बस से नीचे उतर गईं।
सुबह होने वाली थी।सूर्य की लालिमा कोहरे की धुंध हटाने का प्रयास कर रही थी।सप्ताह भर बाद सूरज हँसने वाला था ।
बस फिर आगे बढ़ी ।अगली मंजिल मेरी थी।ठंढ की कपकपाहट भी दिल को कुुछ सुकून दे रहा था।
      सुजाता प्रिय

Friday, December 20, 2019

न्याय

न्याय-न्याय तो सब चिल्लावे,
अन्याय न कोई छोड़े रे।
मन में न्याय कोई न लावे,
अन्याय से नाता जोड़े रे।
न्याय पर चलना सभी बतावे,
उस राह से स्वयं मुख मोड़े रे।
स्वाचरण सुधार न पावे,
पराचरण पर मारे कोड़े रे।
अपना सिर तो सभी बचावे,
दूजे का सिर फोड़े रे।
न्याय तंत्र को बुरा बताबे,
लोकतंत्र को रोड़े रे।
जन जागरण तो बहुत करावे,
मन भी जगा लो थोड़े रे।
न्याय सभी को तभी मिलेगा ,
जग हित से स्वयं को जोड़े रे।
                सुजाता प्रिय

Thursday, December 19, 2019

कुल्हड़ की चाय

खूब फरमाया आपने
कुल्हड़ में चाय पीने का
मजा ही कुछ और है।
गौर तलब हो कि क्यूँ
कुल्हड़ में चाय पीने का
मजा ही कुछ और है ?

हाँ जी हाँ मैं ही बताये देती हूँ।
भलि प्रकार
आप सबको समझाये देती हूँ।

क्यों
चाय पीने का मजा कुल्हड़ में है।
अजी प्याले में वो खुशबू कहाँ
जो हमारा प्यारा कुल्हड़ में है।
स्वदेशी माटी की सोंधी- सोंधी,
भीनी -भीनी खुशबू से भरपूर।
पवित्रता व प्यार के लिए
सारी दुनियाँ में मशहूर।

अगर चाय मिट्टी के चुल्हे पर
गोइठे की आँच पर बनी हो।
तो कुछ और मजा आता है।
चाय मिट्टी की पतीली में बनी हो
तो कुछ और मजा आता है।
चाय में चीनी की जगह,गूड़ मिला हो
तो कुछ और मजा आता है।
पाउडर के बदले गैया का दूध मिला हो
तो कुछ और मजा आता है।

वैसे,इक राज की बात बताऊँ।
सच्ची है बात, अभी समझाऊँ।
मैं खुद चाय नहीं पीती,
लेकिन सबको पिलाती हूँ।
इतने सारे अनुभव मैं,चाय
पीने वालों से ही पाती हूँ।

अगर आपको भी पीनी है,
देशी माटी की पतीली में,
देशी गाय के दूध की बनी,
सोंधी और मीठी चाय।
तो अपनी माटी की कुल्हड़ में,
गरमा- गरम पिलाऊँ।
हें तो थोड़ा अदरक और
तुलसी भी डाल स्वाद बढ़ाऊँ।
           सुजाता प्रिय

Wednesday, December 18, 2019

जीवन के पाठ

पाँच पाठ जीवन के पढ़ लो,
जनम सफल हो जाएगा।
दुःख वेदना दारिद्र कभी भी,
पास न तेरे आएगा।

प्रथम पाठ संयम का भाई,
हँसकर इसको गले लगाओ।
मन में अधीरता जब भी आए,
झट से उसको दूर भगाओ।
धैर्य धरो तो धाम तुम्हारा,
चलकर तुझ तक आएगा।

दया का दूजा पाठ रे प्यारे,
प्राणि जन पर दया करो।
निर्दयता को दूर भगाकर,
प्रेम परस्पर सदा करो।
सबसे बढ़कर प्रेम दान है,
तुझे भी मिलता जाएगा।

है तीसरा पाठ क्षमा का,
क्षमाशील बन दिखलाओ।
क्षमा प्रार्थी के अपराधों को।
कभी न मन में तुम लाओ।
अनजाना अपराध भी तेरा,
क्षम्य सदा हो जाएगा।

चतुर्थ पाठ त्याग का है,
जीवन में कुछ कर ले त्याग।
नंगे को कुुछ वसन दे अपना,
भूखे को भी दो रोटी -साग।
जितना दोगे भंडार तुम्हारा ,
उतना ही बढ़ता जायेगा।

पंचम पाठ मनोबल का है,
मन को सुदृढ़ बनाते जाओ।
दृढ़ विश्वास जगाकर मन में,
ऊँचे तक तुम  चढ़ते जाओ।
सदा सफलता स्वयं तुम्हारे,
कदम चूमने आएगा।
        सुजाता प्रिय

Friday, December 13, 2019

अलाव के निकट

निकट बगीचे से मंगली चाची,
सुखी लकड़ियाँ बीनकर
लायी।शाम ढली तो
वह घर के आगे,
उसे जोड़कर
अलाव
जलायी।
अलाव देखकर लक्ष्मी दादी,
लाठी टेक लपकती आई।
पारो काकी भी जब
देखी,झट से
आई फेक
रजाई।
चौका-पानी कर गौरी बूआ,
हाथ-पाँव फैला गरमाई।
टोले के बच्चों को
उसने,'पूस की
रात' कथा
सुनाई।
नेहा ,बबली ,चुन्नी , रानी,
गुड़िया लेकर दौड़ीआई।
पप्पु ,मुन्ना राजू चुन्नु ने,
चटपटे चुटकूले
खूब
सुनाई।
कल्लू चाचा बीरन दादा ने,
गाये रामायण की चौपाई।
बूआ, दादी, चाची
मिलकर,भजन
करी बड़ी
सुखदाई।
अलाव की यह सोंधी खुशबू,
हर पीढी के मन में भाई ।
ठिठुरन दूर किया
हम सबका,सर्दी
ने जब हमें
सताई।
एकता का प्रतीक अलाव,
एक सूत्र में सबको
बंधबाई।अलाव
ने सबको गर्मी
देकर,जग
हितकारी
संदेश
सीखाई।
    सुजाता प्रिय

Sunday, December 8, 2019

ऐ मनुज


मनुज
तू फूल बनकर,
इहलोक को कर दो सुगंधित।
अमर धरा पर रहो सदा,
इस बाग को करके सुसज्जित।

दुर्गंध
कहीं आने पाये,
दुर्भावनाओं की कभी।
वातावरण ऐसी महकाओ,
जीव सारे हो जाये पुलकित।

दुराचरण
मैला वसन है,
खोल इसको फेक दो।
छल-कपट, फरेब से मत,
कर कभी सुख ,नाम अर्जित।

अहंकार
को तुम दूर कर ,
अंतःकरण को स्वच्छ कर,
दुर्विचारों,दुर्गुणों को,
मन से,अपने कर दो वर्जित।

फूल-सी
मुस्कान तुम,
बिखेर अपने होठ पर,
हँसो और सबको हँसाओ,
जिससे सारा जग हो जाये हर्षित।
              सुजाता प्रिय

Friday, November 29, 2019

गाँव मेरे तू शहर न बनना

गाँव मेरे तू शहर न बनना।।
कोलाहल का घर न बनना।।

बड़े-बड़े आवास जहाँ हो,
छल-कपट का वास जहाँ हो।
पास-पडो़स को कोई न जाने।
अपने अपनों को ना पहचाने।
ऐसा कोई तू नगर न बनना।।
गाँव मेरे तू शहर न बनना।।

भाईचारे का भाव  नहीं हो।
मेल-जोल , संभाव नहीं हो।
अतिथियों का सत्कार नहीं हो।
परहित औ परोपकार नहीं हो।
मतलबी बेअसर न बनना।।
गाँव मेरे तू शहर न बनना।।

सूरज की परवाह नहीं हो।
और चाँद की चाह नहीं हो।
नदियों का अस्तीत्व मिटेगा।
वन पर्वत का महत्व घटेगा।
प्रकृति को बेनजर न करना।
गाँव मेरे तू शहर न बनना।।

उजड़े ना खेत- खलिहान।
जहाँ न रहेगी कोई बथान।
खेतों में फैकट्रियाँ लगेंगी।
नकली अनाज जहाँ बनेगें।
ऐसे जन पर कहर न करना।।
गाँव मेरे तू शहर न बनना।।

गौशाला बन जाएगा डेयरी।
जहाँ न होगी अब गैया मेरी।
पाउडर का दूध-दही मिलेंगे।
चर्बी के मक्खन-घी मिलेंगे।
ऐसा कोई सफर न करना।।
गाँव मेरे तू शहर न बनना।।

गलियाँ बनेगी सड़के चौड़ी।
गाड़ियाँ आएगी दौड़ी-दौड़ी
पेट्रोल,डीजल के धूएँ होंगे।
ताल- तलैया ना कुएँ होंगे।
विलुप्त पोखरे नहर न करना।।
गाँव मेरे तू शहर न बनना।।

गंदगी की भरमार बढ़़ेगी।
प्लास्टिक की अंबार रहेगी।
प्रदूषित होगी जहाँ जलवायु।
घट जाएगी जीवों की आयु।
रोगों का तू घर ना बनना।।
गाँव मेरे तू शहर न बनना।।

न होंगे दातून ,पत्तल, चटाई।
तोसक ,तकिया और रजाई।
विदेशी माल से बाजार सजेगी।
कुटीर-उद्योग बेकार मिलेगी।
ऐसा कोई तू समर करना।।
गाँव मेरे तू शहर न बनना।।
                   सुजाता प्रिय

Tuesday, November 26, 2019

युग देखो

      मानवता                 
की छवि बिगड़ता     
     युग देखो।    
            
      दानवता
का रूप निखरता
      युग देखो।

    राजनीति                 
का खेल निराला        
    युग देखो।      
          
    हर जगह
हो रहा घोटाला
    युग देखो।

   फैल रही                       
महंगाई भीषण          
   युग देखो।    
             
      हो रहा
जनता का शोषण
     युग देखो।

       कहीं है                     
कीमती ऊँची कोठी       
      युग देखो।     
             
       कहीं नहीं
    है पेट भर रोटी
       युग देखो।

       पढ़े-लिखे.                     
     बेकार पड़े हैं                  
       युग देखो।      

      अनपढ़ों  की 
     कतार बनी है  
     . युग देखो।

      सुजाता प्रिय

Saturday, November 23, 2019

बिटिया जनने का जिम्मेदार कौन(कहानी)

व्यग्रता से चहलकदमी करती हुई लक्ष्मी कभी माँ के चेहरे को गौर से निहारती , कभी कुछ बोलने को आतुर हो उठती, कभी असमंजस का भाव लिए ठिठकती। फिर इधर-उधर देखने लगती। रह-रहकर उसकी आँखों में आँसू छलक आते। उसके मन में उठ रहे सवाल बार-बार उसे कुछ बोलने को उकसा रहे थे।लेकिन माँ के ममत्व भरे चेहरे को देख वह जुबान खोलने का साहस नहीं कर पा रही थी।उसे लगता माँ ने किन कठिन परिस्थितियों में कितनी कड़ी मेहनत कर तीनों बहनों को पाल-पोसकर बड़ी किया ।पढ़ाया लिखाया ।माँ का प्यार-दुलार दिया तो पिता का फर्ज भी निभाया।कभी किसी तरह की कमी नहीं महसूस होने दिया।
उसकी माँ कौशल्या भी मशीन पर कपड़े सिलतीे हुई उसकी व्याकुलता देख रही थी।वह समझ नहीं पा रही थी कि लक्ष्मी आज इतनी परेशान क्यों है। इस तरह तो वह उस दिन भी वेचैन नहीं हुई थी जब लड़के वालों ने उसे छाँट दिया था । वह भी सिर्फ यह कहते हुए कि उसके कोई भाई नहीं। क्या पता उसकी माँ की तरह उसे भी पुत्र न हो ।
क्या बात है बिटिया! तुम इतनी परेशान क्यों लग रही? माँ ने प्यार से पुचकारते हुए पूछा तो उसकी आँखों के छलकते आँसू आँखों के बाँध तोड़ बाहर बह निकले।रुंधे गले से माँ से पूछा - माँ हम तीनों बहनें आप के लिए बोझ बन गईं।
नहीं मेरी प्यारी लाडली! यह कैसी बहकी- बहकी बातें कर रही है री तू आज।
हाँ माँ शर्मा दादी कह रही थी कि आपने हम तीनों बहनों को पाकर संतोष तो कर लिया ,पर हमारे कारण ही आपका जीवन खराब हो गया।हमारा बोझ आपको ढोना पड़ रहा है। हमारे कारण ही समाज के लोग आपको हेय दृष्टि से देखते हैं।हमारे कारण ही आपको लोगों द्वारा आपमान और अवहेलना झेलना पड़ता है।
मैं यह भी देखती आई हूँ कि पास-पड़ोस और परिवार में कोई मांगलिक कार्य होता है तो स्त्रियाँ आपका तिरस्कार करती हुई काना-फुसी करती हैं कि इसे बेटा नहीं इसलिए इससे विध - विधान न करबाना चाहिए।
जाने दे बेटी! माँ ने  उसे अपने गले लगाते हुए कहा - हम जमाने की सोंच तो नहीं बदल सकते।कौशिल्या के मन में लक्ष्मी के  जनम के समय की सारी बातें चलचित्र की भाँति घुमने लगी। जब उसका जन्म हुआ तो उसके सभी परिवारवाले खुश थे लेकिन पास-पडोस के लोग सहानुभूति पूर्वक समझाते क्या करोगी भगवान ने जो करम में लिखा वही होगा । कोई अपने मन से सांत्वना देती हुई कहती।बेटी भी क्या बुरी है ।आजकल तो बेटियाँ हवाई जहाज उड़ा रही हैं। कोई मुँह बनाती हुई कहती - क्या बात है लक्ष्मी आई है ।तो कोई तुरंत उसकी बातों का खण्डन करती हुई कहती बेटी जनम लेते ही माँ -बाप को कंगाल बना देती है ।किसे ने उसेे टोक कर कहा कमर कस लो बहू रानी ! बिटिया के विवाह में सारे गहने छिन जाएँगे। लेकिन घर के सभी लोग सचमुच उसे लक्ष्मी समझते और लक्ष्मी पुकारते।

इधर लक्ष्मी के जेहन में भी कुछ दिन पूर्व की घटना याद आ रही थी।उस दिन जब वह कॉलेज से घर आई तो माँ किसी पुरुष को तिरस्कार भरे लहजे में बोल रही थी।
कौशल्या,कैकेयी तो ले आये।अब सुमित्रा भी ले आ।शायद उससे बेटा हो जाए।तुम पुरुष यही तो नहीं समझ पाते कि बेटे या बेटी पैदा करना स्त्रियों के वश की बात नहीं ।इसके लिए तो बस पुरुष ही जिम्मेवार है । स्त्री को तो प्राकृति ने एक ही क्रोमोजोन दिया ।पर तुम्हें तो दोनों क्रोमोजोन्स मिले । फिर क्यों बेटे नहीं पैदा कर लिए?तुम तीन बेटियों से घबरा गए और उन्हें बेसहारा छोड़कर भाग गए।तो लो अब चार बेटियाँ गले पड़ गयी ।अब किस- किस से पिण्ड छुड़ाओगे ? बेटी को जनमाना तुम अभिशाप समझते हो ।अगर बेटियाँ नहीं रहेंगी तो पुरुष किस से विवाह करेगा ? अगर बेटियाँ नहीं रहेंगी तो पुरुषों का जनम कैसे होगा? सृष्टि कैसे होगी?
माँ एक बात पूछूँ? लक्ष्मी ने उन बातें को याद करते हुए   संकुचित भाव से पूछा।
हाँ बेटी ! पूछ ना ।जो पूछना है ।अब तुमलोग बड़ी हो गयी  ।दुनियादारी समझती है ।इसलिए सारी बातें जाननी चाहिए तुम्हें।
माँ वह व्यक्ति कौन था जिससे उस दिन तुम्हारी बहस हो रही थी।
वह तुम्हारे पिता थे बेटी! माँ ने जैसे किसी राज पर से पर्दा हटाते हुए कहा।
पिताजी! लक्ष्मी ने आश्चर्य जनक लहजे में पूछा।सरस्वती और पार्वती भी उनकी बातें सुनकर वहाँ आ गईं । वे आवाक हो माँ को देख रहीं थी।
लेकिन तुमने तो कहा था कि-
तेरे पिताजी गुम हो गए।कौशल्या ने उसके वाक्य को पूरा किया।फिर उन्हें बताने लगी_ पहली बेटी होने से परिवार के लोग बहुत खुश थे। लेकिन दूसरी बेटी हो जाने पर तुम्हारे पिताजी और परिवार के सभी लोग औरों की तरह मुझे ही कोसने लगे कि मैं सिर्फ बेटियाँ ही जनमती हूँ।
जब पार्वती पेट में थी तो तुम्हारे पिताजी अपने परिवार वालों से मिलकर अल्ट्रासाउण्ड द्वारा भ्रुण की जाँच करवाना चाहते कि मेरा गर्भस्थ शिशु लड़का है या लड़की। मैं इसके लिए तैयार नहीं हुई।क्योंकि मैं जानती थी कि भ्रुण बिटिया का हुआ तो वे मुझे गर्भपात करने को मजबूर कर देंगे ।उसके बाद से शुरु हुआ मुझपर जुल्म- सितम का सिलसिला।आये दिन बात -बात पर मेरे साथ मार -पिट होने लगा। हर लोग मेरा तिरस्कार  करने लगे।उसी तरह प्रताड़ित होते हुए मैने पार्वती को जन्म दिया। परिवार और समाज के लोगों ने मुझे बहुत बुरा-भला कहा तथा तुम्हारे पिताजी को भी हतोत्साहित किया।शायद इसी कारण वे किसी काम से बाजार गये तो वापस नहीं लौटे।हमलोगों ने उन्हें बहुत ढुंढा-ढुंढबाया पर वे नहीं मिले।
इधर घर के लोग भी मुझपर कहर बरपाने लगे। उनकी प्रताड़ना से उबकर मैं मायके चली गई। लेकिन मायके वाले भी ज्यादा दिन हम चारो का बोझ नहीं उठा पाये।हारकर मैने अपने लिए अलग ऱास्ता चुन लिया।सिलाई-बुनाई कर मैने अपना और तुम तीनों का पेट पालने लगी।
उस दिन अचानक तुम्हारे पिताजी इस रास्ते से गुजर रहे थे तो मुझे देख रुक गये और अत्यंत दुखी हो बताने लगे कि हमारी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़कर वे दूसरे शहर जाकर कारोबार करने लगे।फिर कैकेयी नाम की युवती से विवाह कर लिया । अब उससे भी उनकी चार बेटियाँ हैं। अब वे उसे कोस रहे थे कि उसने भी सिर्फ बेटियाँ ही.........
लक्ष्मी  सरस्वती और पार्वती बड़े गर्व और आत्मीयता से अपनी माँ को देख रही थी।और सोंच रही थीं - सचमुच बेटी जनने के लिए जिम्मेवार कौन?
                          सुजाता प्रिय

Friday, November 22, 2019

बिटिया बोली

पेट में पलती बिटिया बोली-
मुझे न मारो माँ- पिताजी।

जनम लेते ही बिटिया बोली-
मुझे न फेको माँ-पिताजी।

दूध पीती बिटिया बोली-
गले लगा लो माँ-पिताजी।

भूख से ब्याकुल बिटिया बोली-
मझे खिला दो माँ-पिताजी।

बड़ी होकर के बिटिया बोली-
मुझे पढ़ा दो माँ-पिताजी।

पढ़ लिखकर बिटिया बोली-
मुझे कमाने दो माँ-पिताजी।

पैसे कमाकर बिटिया बोली-
मैं तेरा सहारा माँ-पिताजी।

ब्याह हुआ तो बिटिया बोली-
मुझे भूल न जाना माँ-पिताजी।
                   सुजाता प्रिय

Tuesday, November 19, 2019

परत हटाकर देखो

तेरे भीतर गुण की खान,
परत हटाकर देखो।
असीम शक्ति अथाह ग्यान,
पलक उठाकर देखो।

ऐ मानव तुम तो ईश्वर की,
रचना है सबसे सुंदर।
अकूत संपदा के तुम मालिक,
भंडार छिपा तेरे अंदर।
अपनी कीर्ति को पहचान,
परत हटाकर देखो।
पलक उठाकर देखो।

धरा पर ऐसा मनुष्य नहीं,
जिसमें कोई गुण न होता है।
गुणवानों में भी कुछ-ना
-कुछ तो अवगुण होता है।
रह मत इससे तू अनजान,
परत हटाकर देखो।
पलक उठाकर देखो।

अब सबसे जलना छोड़ो ,
मन से द्वेष हटा कर तू।
उपयोग करो अपने गुण का,
मन का क्लेश मिटाकर तू।
बन जाओगे बहुत महान,
परत हटाकर देखो।
पलक उठाकर देखो।

सुजाता प्रिय

Friday, November 15, 2019

तेरे आने की आहट (गजल)

हवा के झोंके में होती जो सरसराहट है।
यूं लगता है तेरे आने की यह आहट है।

चाँद को देख चाहत का मन लुभाता है,
ऐसा लगता है तेरे प्यार की मुस्कुराहट है ।

गुल खिलते हैं जब कभी भी गुलिस्ता में,
लगता है तेरी खुशी की खिलखिलाहट है।

भौंरे छेड़ते हैं  तान कभी बागों में मधुर,
कानों में गूंजे तेरी गीतों की गुनगुनाहट है।

जाड़े की नर्म धूप में तपन मिलती थोड़ी,
एहसासों में लगता तेरे साँसों की गरमाहट है।

जब पेड़ों पर विहग चहककर कलरव करते,
क्यूँ लगता है तेरी बातों की फुसफुसाहट है।

नजरें ढूंढती ब्याकुल हो हर तरफ तुझको,
तू कहीं पास हो या मेरे मन की आकुलाहट है।
                                सुजाता प्रिय

Tuesday, November 12, 2019

नेहरू चाचा (नेहरू चाचा के जन्म दिवस पर विशेष )

नये -नये गुब्बारे लेकर
आए नेहरू चाचा।
मैं नाची और गुड्डी नाची,
चुन्नु भैया नाचा।
नाच रहे गुब्बारे सारे,
रंगों की रंगोली।
कुछ गुब्बारे लुक-छिप
नभ में खेले आँख-मिचौनी।
गुब्बारे की शान निराली,
झूमे और इठलाये।
एक साथ सब थिरक रहे हैं
अपनी तोंद फुलाये।
वश में उनके कर रखी है
नाजुक पतली डोरी ।
भाग न जाए नीलगगन में
उड़कर चुपके-चोरी।
हरे-लाल और नीले-पीले,
है कोई चम्पइया।
जो मन भाए, जी बहलाये
सो तुम ले लो भैया ।
    सुजाता प्रिय

Monday, November 11, 2019

भगवान की विजय हुई

न राम की जय हुई,
न अयोध्या धाम की विजय हुई।
हम लड़ें नहीं फिर किस संग्राम की विजय हुई।
लाख
है विविधता,
फिर भी हममें है एकता।
हम एक थे,हम एक हैं,
हम एक ही
रहें सदा।
सौहार्द्र भाईचारे के ,
आयाम की विजय हुई।
हम जानते
हैं फूट से हैं ,
देश के टुकड़े हुए।
देश अलग लेकर भी हम,
हैं आज तक
लड़े हुए।
इतिहास ना दुहरायें, इस
पैगाम की विजय हुई।
राम ही
रहीम है,
कृष्ण ही करीम है।
एक ही माटी हमारी,
एक ही
जमीन है।
जो सबको है गढ़ता सदा,
उस भगवान की विजय हुई।
               सुजाता प्रिय
          

Friday, November 8, 2019

मौन भाषा

               भाषा तो
          बहुत है दुनियाँ में,
मौन भाषा की महिमा ही अलग।
               न अक्षर
           इसके ना मात्राएँ,
फिर भी इसकी गरिमा ही अलग।
                इसकी
         कोई आवाज नहीं,
बिन बोले सबकुछ कह जाती।
             इस भाषा
         के विशाल हृदय,
सबके फिकरे को सह जाती।
       .    बोली जाती
           न सुनी जाती,
न लिखी जाती न पढ़ी जाती।
              पर जाने
           इसके पन्नें पर,
कितनी बोलियाँ हैं गढ़ी जातीं।
              इस भाषा
         को हथियारों बना,
पराजित करते हम दुश्मन को।
            हम जीतते
           हैं संग्राम बड़े,
मिलतीे हैं खुशियाँ जीवन को।
             अम्मा के
          मौन इशारे से,
समझ जाते थे हम बात बहुत ।
            पिताजी के
         मौन नजरिये से,
हम पाते थे  सौगात  बहुत।
            पर मौन
       हमें उकसाती है,
कि सदा नहीं तुम मौन रहो।
            दुनियाँ
      बोले कड़बी बोली,
कुछ मीठी वाणी तुम भी कहो।
            जब मौन
      रहोगी हरदम तुम,
समझेगी दुनियाँ कमजोर तुझे।
            कुछ उल्टी
       -सीधी बात बना,
वह देगी सदा झकझोर तुझे।
          सुजाता प्रिय