राधा संग कृष्ण-मुरारी,
बैठे हैं मधुवन में।
यह दृश्य बड़ा मन हारी,
लगता है नयनन में।
ऋतुराज ने ली अंगड़ाई,
प्रीत-मिलन रुत आई।
दिशा-दिशा वासंती छाई,
चल रहा पवन पुरवाई।
झूमें फूल हैं क्यारी,
भौंरों के गुंजन में।
राधा संग कृष्ण-मुरारी,
बैठे हैं मधुवन में।
वंशी की धुन भूल गए वे,
बैठे सुध-बुद्ध खोकर।
मोर छनन-छन नाच रहा है,
मन मतवाला होकर।
खड़ी है गैया प्यारी,
मगन हो चितवन में।
राधा संग कृष्ण-मुरारी,
बैठे हैं मधुवन में।
वो रे कन्हैया,रास रचैया,
क्यों ना मुरली बजाते।
छेड़ तू अपनी तान मनोहर,
क्यों ना हमें बुलाते।
मैं यहां खड़ी बनवारी,
अपने आंगन में।
राधा संग कृष्ण-मुरारी,
बैठे मधुवन में।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
स्वरचित, मौलिक
प्रेमी कृष्ण आज के युग की जरूरत।
ReplyDeleteअटूट व पावन प्रेम। एक ऐसा विस्तृत प्रेम जो अपने ओर के सभी पक्षों को प्रेम में बांध दे और मुक्त भी कर दे। सुंदर सृजन।
मेरी नई रचना
प्रसंशा के लिए सादर आभार भाई!
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