पांव लगियों चाचा!
खुश रह। तू सुदिनमा रे ?कने जा हीं भोरे- भोरे।
बघोर जा हिऐ । भौजी के लाबे लगी।
आज्हे घुरम्हीं कि?
हां चचा!
ठिके है ।पुतुलबा के मैया के नैहरा से लेके हमहुं घुरबै संझिया तक।
सिउर से ने चचा।
हां रे!
ठीके है चचा। एजै पेठिया भिजुन भेटैबै। फिनु सभे साथे चल अइबै।
अरे हां ठीके याद करैल्हीं ।पुतुलबा कहलकै ह पेठिया से पेड़ा लाबेले।
घुरे बेरी याद करैंहें ले लेबै।
सांझ के रामदीन चाचा चाची के लेके आउर सुदिनमा अपन भौजी के लेके डुमरी पेठिया पास पहुंचलथी तो दुनु जनानी के पीपर गाछ तर छोड़के पेड़ा लाबेले गेलथिन।
पेड़ा बड़ी महंगा रहै।तबो चाचा सेर भर पेड़ा लेलथिन तो सुदिनमों पांव भर लें लेलकै।
चाचा के सम्मान में सुदिनमा उनकर खोमचा लेबे लगलै। लेकिन चाचा के नागवार भुझैले।ऐसे नै सुदिनमा के हाथ में खोमचा देखके सब सोचै कि सुदिनमा पेड़ा किनलकै आउ रामदीन चाचा नै किनलथिन।
पेड़ा के खोमचा देख चाची के जी ललचाय लगलै । चाचा से कहलथिन थोड़े पेड़बा खिलाहो हमनी के।
चाचा पेड़ा निकलालथिन तो सुदिनमा मन मारके पेड़ा के ठोंगा जेबी में रख लेलकै आउर मुंह घुमा लेलकै काहे कि पाव भर में चार गो तो पेड़बे चढ़लै।
तब चाचा बड़प्पन में उहो दुनु एक गो पेड़ा लेलथिन।पेड़ा खैते देखके पहचान के चार आदमी अउर जुट गेलै।
लाजे चाचा उनको पेड़ा खिलैलथिन।
चाची रास्ता में समझैलथिन खोमचवा के झोलवा में रख लेहो नै तो जे देखतै से मांगतै।
लेकिन इ बात चाचा के नै जचलै।एतना महंगा पेड़ा ले जैते सभे नै देखतै तो शान कैसे बढ़तै।
राह चलते धनपुरनी चाची भेटैलथिन तो हसके कहलथिन अकेले पेठिया के पेड़ा खा हखो।
इ नै कि एका गो बाल-बुतरु के दूं। चाचा पेड़ा निकाल के देबे लगलथिन तब तक आंगनबाड़ी के बुतरुन सब लुझ गेलै । चाचा केेकरा पेड़ा देथिन केकरा नै। चाचा पेड़ा देले जाथिन।सभे हाथ पसारे जाय।
चाची मने मन पितपिताय के अपन घर चल गेलथिन।
घर तक चाचा शान से खोमचा संभालले जाथिन। के जानै कि खोमचा में एको पेड़ा नै हकै ।सभे तो सोचै होतै चाचा सेर भर पेड़ा किनलथिन। घर घुसला पर पुतुलबा माय साथ पेड़ा के खोमचा देख खुश भेलै ।कि जानै खोमचा में एको पेड़ा नै है।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
स्वरचित,मोलिक
लोक-भाषा की मिठास समेटे मजेदार कहानी,सादर नमन सुजाता जी
ReplyDeleteसादर धन्यवाद बहना! बहुत -बहुत आभार आपको यज्ञ कहानी अच्छी लगी।अब के होली में क्या विचार है । काव्य के कुछ अलग रंग जमाना है न।
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