Saturday, March 13, 2021

आस्था (लघुकथा )

जय मां शारदे 🙏🙏


मंझली मां के लिए मीठा कुआं से पानी लाने जाना है। सुबह पता चला कि आज उनका व्रत है।घर के खारे कुएं का पानी कोई व्रत में नहीं पीता। मंझली मां ने मिश्री हुमाध के लिए पैसे दिए हैं।किसी के घेरवारी से फूल भी तोड़ कर लाना है।पूजा का बर्तन धोकर तो पहले ही छप्पर पर रख दिए।सारी बातें सोचते हुए गौरव हाथ में ढेला लिए पूजा दुकान पहुंच गया।
दुकानदार ने पूछा-मिश्री -हुमाध चाहिए?
उसने चकित हो पूछा-आपको कैसे पता?
अरे हाथ में ढेला है तो समझ नहीं आया हमें कि तुम्हारे घर आज ढेला बाबा की पूजा है?
यह ढेला बाबा कौन से देवता हैं? सोचता हुआं वह हुमाध-मिश्री लाकर मंझली मां को दे दिया।
  आज वह पता लगाकर ही रहेगा कि मंझली मां व्रत करती हैं तो मंदिर न जाकर पहाड़ी की ओर क्यों जाती हैं।
जब वह उनके पीछे-पीछे पहाड़ी के निकट पहुंचा तो देखा मंझली मां एक वट वृक्ष के नीचे पत्थर पर रखे एक ढेले पर फूल प्रसाद चढ़ा रही हैं। वुक्ष की टहनियों में धागे और कपड़े से बांध कर लटकाए ढेलों को देख वह दंग रह गया।
आखिर वह प्रकट हो कर मंझली मां से पूछा ही लिया कि ये कौन-से देवता हैं?
मंझली मां ने उसके सिर पटकबा कर दण्डवत प्रणाम करवाया और प्रसाद हाथ में देते हुए बताया कि यह ढेला बाबा हैं। इनके आगे से कोई ढेला उठाकर मन्नत मांगा जाता है कि मेरा अमुक काम हो जाएगा तो इस ढेले के वजन से मिश्री का प्रसाद चढ़ाएंगे।
तुम्हारे छोटका चाचा की नौकरी के लिए हम भी मन्नत मांगने थे। और अपने पहचान के कपड़े में बांध कर सूता से पेड़ में लटका दिए। पांच महीने में ढेला बाबा तुम्हारे चाचा को नौकरी लगा दिए तो हम उपवास रखकर प्रसाद चढ़ा दिए।
     मन-ही-मन गौरव ढेला बाबा को फिर से प्रणाम किया ‌।वह सोचा कितनी बड़ी आस्था है।लोग भगवान को मंदिर -मंदिर ढूंढे फिरते हैं। तिरथों और नामों में खोजते हैं और हमारे गांव के लोग एक ढेले में ईश्वर के स्वरूप को पाते हैं।जय ढेला बाबा।
                  सुजाता प्रिय समृद्धि
                   स्वरचित, मौलिक

2 comments:

  1. जय ढेला बाबा ..... मन की आस्था ही तो है . मंदिर में भी मूर्ति तो पत्थर कि ही होती है .
    अच्छी लघु कथा .

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  2. बहुत -बहुत धन्यवाद सखी!

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