Friday, March 5, 2021

ओस की बूंद



ओ अनोखी बूंद चमकती ओस की,
पौधे को पियुष पिलाती रात को।
फुहार बनकर हो बरसती फूल पर,
क्यों नहाती पेड़ के हर पात को।

तुम टपककर मोतियों का रूप ले,
दूव कणियों में लरिया बनाती हो।
निकलती सुबह की सुनहरी धूप जब,
कांच-टुकड़े सम झिलमिलाती हो।

चमचमाती तारकों- सी घास पर,
सप्त ऋषियों की तरह घेरा बनाती।
जगमगाती जुगनुओं-सी डाल पर,
धूप से घबरा सदा ही भाग जाती।

दीप-सी जलती सुबह मुंडेर पर,
बड़े सबेरे तुम दीवाली है मनाती।
तेल बनकर हो ढलकती दीप में,
अदृश्य बाती डाल इसमें हो जलाती।

क्या किसी के अस्क की तुम बुंद हो,
गिरती द्रवित होकर हृदय की वेदना।
या बुझाती तुम किसी की प्यास हो,
या जगाती सुषुप्त मन की चेतना।

जी चाहता,उंगलियों से तुझको बीन लूं,
पर किसी के हाथ तुम आती नहीं।
जल के धरती, क्यों तू नन्हा रूप यह,
क्यों तुम अपना राज बतलाती नहीं।

            सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
               रांची, झारखण्ड
              स्वरचित, मौलिक

2 comments:

  1. वाह , नन्हीं बून्द पर कितनी प्यारी रचना । बहुत सुंदर ।

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  2. आभार प्यारी बहना

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