वसन बिना होकर फटेहाल।
भूख के मारे हो सब बेहाल।
पापी पेट का उठा सवाल।
हो मजबूर पकड़ा कुदाल।
चाहिए रोटी-कपड़ा-मकान।
भूखी न मरे अब मेरी संतान।
मांग ना हाथ फैलाकर दान।
मेहनत की रोटी पर है शान।
क्या कहूं कितना हो मजबूर।
चल पड़े कमाने घर से दूर।
लगे कमाने बनकर मजदूर।
बनी जीवन की यह दस्तूर।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
स्वरचित, मौलिक
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (03-05 -2021 ) को भूल गये हैं हम उनको, जो जग से हैं जाने वाले (चर्चा अंक 4055) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
चर्चा मंच में मेरी रचना को साझा करने के लिए हार्दिक आभार भाई!
Deleteअच्छे और जरुरी विषय पर आपका लेखन। खूब बधाई
ReplyDeleteहार्दिक आभार एवं धन्यवाद।
ReplyDeleteसमसामयिक विषय को ध्यान में रखकर लिखी गई सुंदर कविता!--ब्रजेंद्रनाथ
ReplyDeleteहार्दिक आभार
ReplyDeleteबहुत मार्मिकता से मजदुर वर्ग की व्यथा कथा लिख दी आपने सखी |
ReplyDeleteसादर नमस्कार
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