कौआ बैठा तरु के नीचे,
चिंतित होकर देख रहा है।
ठूंठ पर अपने घोंसले पर,
पल-पल नजरें फेंक रहा है।
मानव कितने निठुर हुए ये,
सारे तरुवर हैं काट रहे हैं।
सुख पाने धरती माता को,
मरुभूमि में पाट रहे हैं।
फल-फूल तो स्वप्न सरीखे,
है पेड़ों की छाया भी दूर।
कटी डालियों के बीच नीड़,
बनाते पक्षी हो मजबूर।
ठूंठ बेचारा मन मसोस कर,
कल्पनाओं के हाथ बढ़ाता।
दोनों कर-कमलों के बीच,
थाम घोंसले को है बचाता।
अंक में भर घोंसला मेरा,
अण्डे सेने का फर्ज निभाता।
पशु-पक्षियों की अंतर-पीड़ा,
मनुज यहां है समझ न पाता।
ऐ मानव अब दया करो तुम,
मत करो इनका संहार।
दिया है तेरे सुख की खातिर,
प्रकृति ने यह अनुपम उपहार।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
स्वरचित, मौलिक
प्रिय सुजाता जी , यदि कौए के सचमुच जुबां होती, तो वह इसी तरह भर -भर मानव को लानत भेजता | कवि मन में ही ये क्षमता है जो वह बेजुबानों के मन के उद्गारों से संसार को परिचित करवाता है | सुंदर काव्य चित्र सखी |आजकल ब्लोग्स पर पाठकों की अनुपस्थिति से मन को बहुत दुःख होता है | सस्नेह शुभकामनाएं आपके लिए |
ReplyDeleteआदरणीय सखी रेणुजी। कोई इन रचनाओं को पढ़ें -ना -पढ़े आपके द्वारा पढ़े जाने का मुझे बड़ा इंतजार रहता है।आप पढ़ कर प्रतिक्रिया व्यक्त करती हैं तो मेरी रचनाओं में रंग भर जाते हैं। बहुत-बहुत धन्यवाद सखी।
ReplyDeleteजी सुजाता जी पढ़ती हर बार हर रचना हु पर कई बार लिखना नहीं हो पाता आपके आभार को प्यार है, to 🙏❤️💐💐🌷
ReplyDeleteजी आपको भी मेरा सस्नेह प्यार सखी।
Delete