Wednesday, May 12, 2021

कौए की विनती



कौआ बैठा तरु के नीचे,
         चिंतित होकर देख रहा है।
ठूंठ पर अपने घोंसले पर,
        पल-पल नजरें फेंक रहा है।

मानव कितने निठुर हुए ये,
           सारे तरुवर हैं काट रहे हैं।
सुख पाने धरती माता को,
               मरुभूमि में पाट रहे हैं।

फल-फूल तो स्वप्न सरीखे,
            है पेड़ों की छाया भी दूर।
कटी डालियों के बीच नीड़,
              बनाते पक्षी हो मजबूर।

ठूंठ बेचारा मन मसोस कर,
         कल्पनाओं के हाथ बढ़ाता।
दोनों कर-कमलों के बीच,
         थाम घोंसले को है बचाता।

अंक में भर घोंसला मेरा,
      अण्डे सेने का फर्ज निभाता।
पशु-पक्षियों की अंतर-पीड़ा,
      मनुज यहां है समझ न पाता।

ऐ मानव अब दया करो तुम,
              मत करो इनका संहार।
दिया है तेरे सुख की खातिर,
     प्रकृति ने यह अनुपम उपहार।

         सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
            स्वरचित, मौलिक

4 comments:

  1. प्रिय सुजाता जी , यदि कौए के सचमुच जुबां होती, तो वह इसी तरह भर -भर मानव को लानत भेजता | कवि मन में ही ये क्षमता है जो वह बेजुबानों के मन के उद्गारों से संसार को परिचित करवाता है | सुंदर काव्य चित्र सखी |आजकल ब्लोग्स पर पाठकों की अनुपस्थिति से मन को बहुत दुःख होता है | सस्नेह शुभकामनाएं आपके लिए |

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  2. आदरणीय सखी रेणुजी। कोई इन रचनाओं को पढ़ें -ना -पढ़े आपके द्वारा पढ़े जाने का मुझे बड़ा इंतजार रहता है।आप पढ़ कर प्रतिक्रिया व्यक्त करती हैं तो मेरी रचनाओं में रंग भर जाते हैं। बहुत-बहुत धन्यवाद सखी।

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  3. जी सुजाता जी पढ़ती हर बार हर रचना हु पर कई बार लिखना नहीं हो पाता आपके आभार को प्यार है, to 🙏❤️💐💐🌷

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    1. जी आपको भी मेरा सस्नेह प्यार सखी।

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