Sunday, May 2, 2021

मजदूर आखिर क्यों मजबूर



वसन बिना होकर फटेहाल।
भूख के मारे हो सब बेहाल।
पापी पेट का  उठा सवाल।
हो मजबूर पकड़ा कुदाल।

चाहिए रोटी-कपड़ा-मकान।
भूखी न मरे अब मेरी संतान।
मांग ना हाथ फैलाकर दान।
मेहनत की रोटी पर है शान।

क्या कहूं कितना हो मजबूर।
चल पड़े कमाने घर से दूर।
लगे कमाने बनकर मजदूर।
बनी जीवन की यह दस्तूर।
 
       सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
         स्वरचित, मौलिक

8 comments:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (03-05 -2021 ) को भूल गये हैं हम उनको, जो जग से हैं जाने वाले (चर्चा अंक 4055) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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    1. चर्चा मंच में मेरी रचना को साझा करने के लिए हार्दिक आभार भाई!

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  2. अच्छे और जरुरी विषय पर आपका लेखन। खूब बधाई

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  3. हार्दिक आभार एवं धन्यवाद।

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  4. समसामयिक विषय को ध्यान में रखकर लिखी गई सुंदर कविता!--ब्रजेंद्रनाथ

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  5. हार्दिक आभार

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  6. बहुत मार्मिकता से मजदुर वर्ग की व्यथा कथा लिख दी आपने सखी |

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  7. सादर नमस्कार

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