मेरी नानी को गुजरे सैंतीस साल गुजर गए।तब मैं छोटी थी ।मेरी नानी बहुत अच्छा भजन गाती थीं ।बहुत सारे भजनों का अर्थ तब समझ नहीं पाती थी लेकिन बड़े होने पर उन भजनों का अर्थ समझ में आया।सचमुच कितना यथार्थपूर्ण और स्वार्थ से भरे असमाजिक ढोंग तथा दिखावे को आईना दिखाता नानी का यह भजन।
जगदीश गुण गाये नहीं,
गायक हुए तो क्या हुआ।
गंगा नहाए हर्ष से,
पर मन तो मैला ही रहा,
धोया न उस मन मैल को,
गंगा नहाए क्या हुआ।
खाया नमक निज सेठ के ,
चाकरी जो न कर सके,
चाकर नहीं वह चोर है,
खाया नमक तो क्या हुआ।
नारी पराई संग ले,
मोटर पे चढ़ बाबू बने।
घर की त्रिया रोती रही
बाबू बने तो क्या हुआ।
जीते जी माँ-बाप की
सेवा से जो मुख मोड़ते,
मरने के बाद श्राद्ध और
तर्पण किए तो क्या हुआ।
सुजाता प्रिय(नानी से सुना हुआ भजन)
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