Wednesday, August 4, 2021

खरगोश का वार्तालाप

झूठे -मक्कार! क्यूं यहां पर आए।
भोजन दिखलाकर जाल बिछाये।

देखकर मुझ भूखे को मजबूरी।
गाजर दिखलाते छुपाकर छूरी।

अरे जा रे तू लालच  देनेवाले।
तेरे जाल में हम ना आने वाले।

स्वतंत्र धरा के हम तो प्रणि हैं।
सह जाते जब तेरी मनमानी हैं।

बाछें तब तेरी तो खिल जाती है।
दौलत दुनिया की मिल जाती है।

पुचकार कर हमें  बुलाते हो तुम।
लालच देकर हमें फंसाने हो तुम।

तेरी चाल में नहीं मैं आने वाला।
तेरे धोखे में ना हूं अब आनेवाला।
            सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
              स्वरचित, मौलिक

2 comments:

  1. बहुत सुंदर सुजाता जी | कोई खरगोश इतना सजग हो जाए तो उसकी जान सलामत रहे | लिखती रहिये | हार्दिक शुभकामनाएं |

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  2. हार्दिक आई सखी। सुप्रभातम

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