Sunday, August 15, 2021

बंदिशें (लघुकथा )



आज खूशबू गौरव से नजरें मिलाने से कतरा रही थी।यह पहला मौका था जब उनलोगों के द्वारा बनाए गए प्लान में वह शामिल नहीं हो पाई।न जाने कैसे उसे एक ओर खड़ी देख गौरव उसके सामने आ खड़ा हुआ।
सब ठीक है न खूशबू ! तुम इतनी उदास क्यों नजर आ रही हो ? कल पिकनिक पर भी नहीं आई ? उसने लगातार प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
खुशबू ने रुआंसी आवाज में कहा-मैने मां-पिताजी को कितना समझाया कि तुम कालेज में टाप आने की ख़ुशी में सभी दोस्तों को पिकनिक पार्टी दे रहे हो। लेकिन वे नहीं माने।कहा- लड़के-लड़कियों को घर से इतनी दूर अकेले घूमना सही नहीं।
तो इसमें तुम्हें लज्जित होने की क्या बात है।गौरव ने बेवाकी से कहा। उनके विचार महान हैं।वे अपनी जगह सही हैं। लड़के-लड़कियों के मेल-जोल में थोड़ी बंदिशें होनी ही चाहिए। नहीं तो दुनियादारी से अनभिज्ञ किशोर मन को फिसलते देर नहीं लगता।अब देखो न सारे दोस्तों ने मुझे पार्टी के लिए उकसाया। इसलिए मैंने सारा खर्च किया। लेकिन वहां का नजारा कुछ और था।सारी लड़कियों ने अपने-अपने ब्याय फ्रेंड को बुला रखें थे। हमारी पार्टी जल्दी से खत्म कर उनके साथ सैर सपाटा करने लगीं। उनके माता-पिता सोंच रहे होंगे वे कालेज के दोस्तों के साथ हैं। लेकिन उन्हें क्या पता थोड़ी-सी छूट देते ही उनके बच्चे कहां फिसल रहे हैं।
उफ़ इतना बड़ा धोखा? खुशबू व्यग्र हो बोल उठी।
धोखे वे मां-पिताजी को नहीं दे रहे। स्वयं धोखे के दलदल में फंसे जा रहें हैं। इसलिए हमारे माता-पिता का हमारे ऊपर बंदिशें लगाना जायज है।
गौरव की बातें सुन खुशबू के मन पर पड़ा बहुत बड़ा बोझ हल्का हो गया।
                सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
                   स्वरचित, मौलिक

2 comments:

  1. बहुत समझदार बच्चे हैं । सार्थक संदेश

    ReplyDelete