Thursday, June 18, 2020

चल छोटू

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राय बहादूर सिंह जी पत्नी के साथ बस डिपो में उतरे।पत्नी को सामान देखने के लिए कहकर रिक्शे की तलाश करने चले।रिक्शे तो उन्हें कई मिले लेकिन भाड़ा ही अत्यधिक बोल रहा था।कई रिक्शे वाले को मनुहार किया- बाबु इतनी दूर से आया हूँ।बस वाले ने भी बोरियों के अलग से भाड़ा ले लिया।उन्हें तो तुमलोग जानते ही हो कितने बेरुखे और दवंग होते हैं।पर ,तुम तो समझदार हो।बस बजरंगी चौक तक ही तो जाना है।भारी सामान हैं इसलिए ।नहीं तो हम दोनों पैदल ही टहलते हुए चल देते।
किन्तु कोई भी रिक्शावाला तीस रुपये से कम में चलने को तैयार नहीं हुआ।
सिंह जी बीस से बढ़कर पचीस पर आ गए।फिर भी वे नहीं माने ।
उन्होंने इधर-उधर नजरें दौड़ाई।एक भोला- सा तेरह चौदह वर्षीय बालक पुराना जर्जर-सा रिक्शा थामें बेचारगी का भाव लिए खड़ा था ।
चल छोटू! सिंह जी ने बड़े प्यार से उसे पुचकारते हुए बुलायाा।
बेचारा बालक,रिक्शा चालक! तो जैसे उनकी आज्ञा रूपी पुकार का इंतजार कर रहा था।झट रिक्शा लिए बढ़ चला।सोंचा पचीस तक तो उन्होंने स्वयं देने की बात कही है।नहीं तो बीस तो अवश्य देंगे।इयलिए भाड़े पर कोई चर्चा नहीं की।दूसरे रिक्शा-चालक ने थोड़ा ऐतराज जताते हुए कहा- भाड़ा पहले ही तय कर लो ।लेकिन उनके  साथी रिक्शा-चालक ने इशारे से उसे रोक लिया ।शायद उसे उस बालक की दीनता पर तरस आ रहा था।उसने फुसफुसाते हुए कहा-जाने दो बीस रुपये ही सही कुछ तो कमाएगा।
उस छोटे-से रिक्शा-चालक ने सिंह जी की अनाज से भरी बोरियों को उठाने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी पर बोरियाँ उससे ना हिली।दूसरे रिक्शा-चालक ने दया भाव से बोरियाँ चढा़ने में उसकी मदद की।दोनों पति-पत्नी तो पहले ही बैठ चुके थे।बोरियों के ऊपर उनके दोनों बैग रखकर वह रिक्शा चलाने लगा।
रास्ते में उसके टूटे-फूटे रिक्शे के लिए उन्होंने उसे खूब जली-कटी  सुनायी । नया रिक्शा खरीद लेने की सलाह भी दी।रिक्सशा चलाने के ढंग को अल्हड़पन बताया।और जाने क्या-क्या दोषारोपण किया।
बात-बात में उन्होंने यह भी जान लिया कि उसका बाप महीने भर से बीमार है।जिस कारण मजबूर हो वह विद्यालय जाना छोड़ कर रिक्शा चला रहा है ताकि घर में भोजन का प्रबंध , पिता का उपचार और रिक्शा-मालिक का किराया भुगतान हो ।
उसकी बातों को सुन उन्होंने अपनी अमीरी दर्शाते हुए कहा- हम तो घर से चना-मसूर ले आये घर की चीज है।खरीदने पर कितने पैसे लगते हैं।
यही बजरंगी चौक है दादाजी! बालक ने रिक्शा रोकते हुए कहा।
थोड़ा गली में घुसा दे बाबु ! थोड़ा-ही दूर है उनहोंने दुलारते हुए कहा।ठीक है आपलोग उतर जाइए।उधर बहुत चढ़ाव है।
अरे हमलोग कहाँ उतरेंगे बे्टा! अभी तुमने ही न दादाजी कहा।उमर का ख्याल करो ।तुम्हारे जैसा बच्चा थोड़े न हूँ कि जब चाहूँ चढ़ूँ जब चाहूँ उतारूँ।
वह जोर लगाकर रिक्शा चलाया। पर, चढान में चलाना मुश्किल लग रहा था।
सिंह जी की पत्नी ने सुझाव दिया- जरा उतर कर खींच बेटा!
वह उतर कर खींचने लगा ।कुछ देर में थक कर बोला अब मुझसे नहीं चलेगा।
सिंह जी ने कहा -जरा और जोर लगाकर खींच ना बेटा! भारी सामान है कैसे ले जाउँगा?
लड़के ने जोर लगाकर खींचते हुए कहा दादाजी आप उतरकर पीछे से ठेल दें तब चला जाएगा।
सिंह जी ने आँखें तरेरते हुए कहा- मैं ठेलूँ ? बोलने का तम्मीज नहीं है।बड़ा-छोटा का ख्याल नहीं मुझे रिक्शा ठेलने कहता है।मारूँगा दो चाँटे खीचकर गाल में तो मुँह घूम जाएगा।मैं इतने बड़े पद पर रहा हूँ ।कोई मुझे आज तक मेरा अपना काम तक करने को नहीं कहा और यह बालिस्त भर का छोकरा मुझे रिक्शा ठेलने को कहता है।तुम्हारे जैसे बच्चे का पूरा खानदान मेरी जी हुजूरी करता आया है। खुद तनिक जोर लगाकर खींचेगा तो नहीं चलेगा।
बेचारा डर से जैसे- तैसे रिक्शा खींचते रहा।
बीच-बीच में दोनों कभी ललकारते ,कभी खीजते हुए कहते क्या बच्चा है ? एक रिक्शा भी नहीं खींच सकता।
पत्नी ने कहा जमाना खराब है लोग मुफ्त में पैसा लेना जानते हैं।गली केलोग तमाशवीन बने उस बालक के जोर-आजमाइस को देखते रहे और वह बेचारा अँगुल - अँगुल भर रिक्शा खींचत हुए लगभग सौ मीटर की दूरी तय किया ।
हुएँ उचका पर चढ़ाकर रोक दे। अचानक सिंहजी ने एक ओर इशारा करते हुए कहा तो बेचारे की जान-में-जान आई।एक बार पूरी ताकत लगाकर रिक्शा खींचते हुए ऊपर चढ़ाया और हाँफता हुआ रोक दिया ।जैसे रेस का निशान पार कर गया हो ।चेहरे से टपकते पसीने को पोछते हुए सामान उतारने लगा। स्वागत में खड़े उनके नौकर  ने मिलकर बोरियाँ उतारी।जब सारा सामान उतर गया तो  सिंहजी ने झट उसके हाथ में दस रुपये का नोट थमाकर गेट में घुसने लगे ।
इतने में क्या होगा दादाजी कम-से-कम बीस रुपये तो दिजिए।
क़्यों नहीं होगा बच्चा है ज्यादा पैसा लेकर क्या करेगा।उनकी पत्नी ने डाँटते हुए कहा।जा बिस्कुट- लेमनचूस खरीदकर खा ले।
दस रुपये और दिजिए दादाजी! पिताजी की दवा भी लाना है।
क़्यों दूँ उस समय तुमने बात क़्यों नहीं किया।मैं तो तुम्हें छोटा समझकर ही लाया।चल भाग यहाँ से नहीं तो पिटाओगे।
बेचारा छोटा रिक्शा- चालक अपनी छोटी कमाई हाथ में लिए सोंच रहा था कैसे इतने में सारे काम होंगे? वह सिंह जी के विशाल भवन को निहार रहा था। आँखों के अस्क गालों के स्वेद से मिलकर धारा- प्रवाहित हो रहा था।जिसे पोछकर विराम देने का हौसला उसमें नहीं था।
                सुजाता प्रिय'समृद्धि'
      स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित

6 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 19 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. सादर नमन दीदी जी ।मेरी रचना को सांध्य मुखरित मौन में साझा करने के लिए हार्दिक आभार।

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  3. मार्मिक कहानी
    साधुवाद..
    सादर..

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  4. बहुत-बहुत धन्यबाद सखी।सादर नमन

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  5. बहुत बढ़िया

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  6. बहुत-बहुत धन्यबाद भाई।

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