चूल्हे में आग जलता है और चुल्हे को जलाता है।
पर, बेचारा चूल्हा कुछ भी तो नहीं कह पाता है।
क्योंकि उसे जलना है बस भोजन पकाने के लिए।
और उसे तपना है सभी चीजों को तपाने के लिए।
जब चाहो रात-बिरात सुबह-शाम और दोपहर।
रहता है तैयार सदा बन- ठन और सज - सँवर।
अच्छी-अच्छी और चटपटी चीजें बनाने के लिए।
स्वादिष्ट भोजन बनबाकर हमें खिलाने के लिए।
बेचारा खाता है क्या?गोबर से बनी हुई रोटियाँ।
और साथ में सुखी हुई लकड़ियों की सब्जियाँ।
कोयले की बर्फियाँ और लड्डू उसे बहुत भाता है।
भूसे की भुजिया,पत्तों के पराठे भी पसंद आता है।
किसी जमाने में वह पीता था किरोसिन का शर्बत।
और खाना बनाने के लिए जलता था भक - भक।
धीरे-धीरे उसका रंग-रूप और स्वरूप बदलने लगा।
मिट्टी और लोहे के बाद स्टील का बन चमकने लगा।
अब तो बेचारा चूल्हा जिंदा है तो बस गैस के सहारे।
उसकेे भोजन के खत्म होते जा रहे हैं साधन सारे।
अब गोबर की रोटियाँ कहाँ मिलेगी गोपालन होता नहीं।
पत्तों के पराठे लकड़ियों की सब्जीवृक्षारोपन होता नहीं।
अब तो खादान में देखिए जाकर कोयले भी घट रहे हैं।
हरे-भरे जंगल अब गायब होकर मरुभूमि में पट रहे हैं।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि' , स्वरचित
२५/०४/२०
बेचारा खाता है क्या?गोबर से बनी हुई रोटियाँ।
ReplyDeleteऔर साथ में सुखी हुई लकड़ियों की सब्जियाँ।
बहुत खूब सखी |चूल्हे का मानवीकरण कर उसके माध्यम से आपने बहुत सुंदर चिंतन किया है | एक दुर्लभ से विषय पर सार्थक लेखन किया है | सस्नेह |
आभार सखी! हृदय तल से धन्यबाद।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
२७ अप्रैल २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत-बहुत धन्यबाद श्वेता।
Deleteवाह ! क्या बात है ! लाजवाब !! बहुत खूब ।
ReplyDeleteसादर धन्यबाद भाई !
Deleteवाह!सखी ,आपने तो चूल्हे का अद्भुत मानवीकरण कर दिया !लाजवाब!
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यबाद सखी! आभार आपका
Deleteवाह चूल्हे की कहानी बहुत सुंदर
ReplyDeleteसादर धन्यबाद
Deleteसादर धन्यबाद
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