लालच का फल
बूढ़ा बाघ नदी के तट पर।
हाथ सोने का कंगन लेकर।।
राहगीरों से हँसकर कहता।
सोने का कंकन लेता जा।।
जीवन-भर मैंने पाप किया है।
मार-खाकर, संताप दिया है।।
उसी पाप का फल मिला है।
नख-दंत सब मेरा गल गया है।।
अब थोड़ा सा पुण्य कमा लूंँ।
अपने सिर का पाप मिटा लूँ।।
एक बटोही लालच में पड़।
चल पड़ा झट लेने कंगन।।
कहा बाघ-तू जरा नहा लो।
ईश्वर का तो ध्यान लगा लो।।
चल पड़ा बटोही नदी नहाने।
सुबह-सुबह वह कंगन पाने।।
फँसे पाँव उसके दलदल में।
उठा बाघ तब उसको खाने।।
फंँसा बटोही भाग न पाया।
लालच करने पर पछताया।।
इसीलिए तो कहते हैं भाई।
मत कर लालच बुरी-बलाई।।
सोंच-समझकर करना काम।
लालच में पड़ मत देना जान।।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
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