काला-गोरा
एक बार कौआ राजा के,मन में विचार एक आया।
अपने काले तन पर कौआ,मन-ही -मन झुंझलाया।
सोच-सोच कर हार गया ! पर,हल न कोई सुझा।
राजहंस के पास जा, वह नतमस्तक हो पूछा।
क्या राज है इसका भैया! तुम गोरा मैं काला।
मुझ पर कोई नजर न डाले,तेरा जपता माला।
सुन , कौए की बात हंस,मंद - मंद मुस्काया।
मीठी बोली में बड़े प्यार से,उसको यूं समझाया।
कोई राज नहीं है इसका, मैं गोरा, तू काला।
रंग के कारण नहीं किसी का,कोई जपता माला।
तन के रंग से कोई प्राणी,भला - बुरा नहीं होता।
मन के रंग के कारण ही केवल,यश पाता और खोता।
ईश्वर की रचना है केवल, हर रंगों का प्राणी।
रंगो का तुम भेद भूल कर,बोलो मीठी वाणी।
मीठी बोली से काली कोयल भी, सबको सदा सुहाती।
वाणी की सुंदरता से ही,जग में पहचान बनाती।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
सुन्दर
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