Wednesday, July 22, 2020

वृद्धाआश्रम ( लघु कथा )

बहुत मुश्किल से राजू बाबूजी को वृद्धाआश्रम में रहने के लिए मनाया । माँ के गुजरने के बाद वे अकेलापन महसूस कर रहे थे।
उनकी देख-भाल का जिम्मा अब उसके और उसकी पत्नी पर आ गया था।उसके कार्यालय और बेिट्टु के विद्यालय के लिए नास्ता-खाना तैयार करने के साथ-साथ बाबूजी के लिए भी चाय नास्ते की व्यवस्था करनी पड़ती।सौम्या परेशान हो जाती।
वह रोज राजू को उलाहने देती हुई बोलती- बाबूजी ने तो नाक में दम कर दिया है।समय पर चाय नास्ता और भोजन चाहिए।कुछ करना-धरना तो है नहीं।अखवार- टी०वी० से चिपके रहना।रोज पार्क में टहलना जरूरी है। घुटने का दर्द का बहाना बनाकर व्हील चेयर खरीदबा लिए।एक कमरे को अलग से दखल किए रहते हैं।एक-आध घंटा विट्टु को पढाते हैं तो लगता है कितना बड़ा काम करते रहे हैं ।तुरंत चाय की फरमाईश।
पत्नी की बात सुन-सुन कर उसे भी बाबूजी का साथ रहना नागवार लगने लगा।एक दिन उसने बाबु जी को वृद्धाआश्रम में रहने की सलाह दी।
बाबूजी ने कहा- मैं तुमलोग को छोड़ कर कहीं नहीं जाउँगा।इस घर में मेरी आत्मा बसती है। इस घर में तुम्हारी माँ की यादें बसी है।तुम्हारा बचपन बसा हुआ है।बहुत मुश्किल से दो-दो पैसे जोड़कर मैने इस घर को बनाया है।इसकी एक-एक ईंट से मुझे लगाव है।

राजू ने कहा- आप वहाँ रहने लगेंगे , तो आपको वहाँ भी मन लगेगा।हमउम्रों का साथ होगा।फिर धीरे-धीरे इस घर से लगाव खत्म हो जाएगा।
आखिर कार बाबूजी मान गए।
उन्हें लेकर राजू वृद्धाआश्रम पहुँचा।बगल में अपना प्रारंभिक विद्यालय देख बाबुजी से पूछा- याद है बाबूजी !बचपन में आप रोज इसी विद्यालय में मुझे पढ़ने के लिए पहुँचाने आते थे ?
बाबुजी ने रुआंसे से स्वर में कहा।हाँ बेटा ! और यह भी याद है कि यह वृद्धाआश्रम आश्रम पहले अनाथालय हुआ करता था।और इस अनाथालय से मैं और तुम्हारी माँ तुम्हें अपने साथ ले गए थे। जब यहाँ के सारे बच्चों को निःसंतान दम्पति ले गए तो यहाँ वृद्धाआश्रम चलाया जाने लगा।उस दिन मैं नहीं सोंचा था कि जिसे मैं यहाँ से निकालकर प्यार से पाल-पोष कर, पढ़ा-लिखा कर काबिल बनाऊँगा,वह एक दिन मुझे यूँ अनाथों की तरह मेरे घर से निकालकर यहीं पहुँचा  देगा।

यह सुन राजू के पैरों के तले से जमीन खिसक गई।वह जड़वत बाबूजी का व्हील चेयर पकड़े खड़ा रहा।
          सुजाता प्रिय'समृद्धि'
      स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित

6 comments:

  1. बहुत मर्मान्तक कथा है सुजाता जी | बहुत भावुक करने वाली भी और प्रश्न उठाने वाली | राजू और उसकी पत्नी जैसे कृतघ्न लोगों के कारण ही मानवता पर से विश्वास उठ जाता है | मैं बहुत भावुक हो गयी पढ़कर | कितना हृदय विदारक होता होगा किसी भी इंसान के लिए जब कोई अपना इस कृघ्तनता का विद्रूप चेहरा लेकर उनके सामने आ खड़े होते हैं |कितना अच्छा होता पिता अपने इस बेटे को अपने खुद के मकान से ही बेदखल कर देते | पर आखिर भारतीय पिता हैं ना !!!!!!!!!!!

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  2. बहुत-बहुत धन्यबाद सखी रेणु जी।कथा के भावों को गहराई तक समझने के लिए।बहुत से परिवार ऐसे हैं जहाँ संतान माँ-बाप की सेवा से जी चुराते ।अंत समय में या तो वृद्धाआश्रम पहुँची देते हैं या फिर सेवा सुश्रुषा के लिए नौकर-नौकरानी रख देते हैं।

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  3. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 23 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. मेरी रचना को "सांध्य मुखरित मौन में " साझा करने के लिए हार्दिक धन्यबाद एवं आभार।

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  4. बेहतरीन कहानी सुजाता जी

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  5. सादर धन्यबाद एवं आभार भाई!

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