Friday, October 6, 2023

नदी की व्यथा (कविता)

नदी की व्यथा

कल- कल करती बहती नदिया।
   जन- जन से यह कहती नदिया।
      कूड़े -  कचरे मुझमें मत डालो।
         हे मानव जन ! मुझे बचा लो।

मुझमें तुम नाले बहा रहे हो।
   मुझमें  गंदगी  फैला  रहे हो।
      मूर्ति-विसर्जन मुझमें करते हो।
          फूल-अर्पण मुझमें करते हो।

पशुओं को मुझमें नहलाते हो।
   लाशों  को मुझमें ही दहाते हो।
      उद्योगों के अपशिष्ट फेंकते हो।
        मेरा  दुःख तुम नहीं देखते हो।

हो रहा है जल प्रदूषित मेरा।
   विषैले जीव ले रहे हैं बसेरा।
     घट रही है देख पवित्रता मेरी।
        विलुप्त हो रही अस्मिता मेरी।

मुझसे ही है तुम सबका जीवन।
   मुझसे है खेती,वन और उपवन।
      अपने जन को तुम  समझा लो।
         मानव तू मेरा अस्तित्व बचा लो।
            
         सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

9 comments:

  1. सुंदर सृजन सखी !

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  2. मुझमें तुम नाले बहा रहे हो।
    मुझमें गंदगी फैला रहे हो।
    मूर्ति-विसर्जन मुझमें करते हो।
    फूल-अर्पण मुझमें करते हो।...हर नदी की आत्मकथा है ये सुजाता जी

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  3. हो रहा है जल प्रदूषित मेरा।
    विषैले जीव ले रहे हैं बसेरा।
    घट रही है देख पवित्रता मेरी।
    विलुप्त हो रही अस्मिता मेरी।
    मानव को कहाँ किसी की अस्मिता की पड़ी है स्वार्थ की पट्टी जो बँधी है...
    कविता के माध्यम से नदी ही हृदयव्यथा उकेरी है...

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  4. बहुत बहुत धन्यवाद 🙏🙏

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  5. सादर धन्यवाद 🙏

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