Sunday, March 6, 2022

आँखें चुराना (मुहावरे पर आधारित)



आँखें चुराना

आँखें चुराकर आज तुम, मुझसे किधर चले।
हमको भी साथ ले चलो,जाने तू जिधर चले।

आँखें मिलाकर आँखों को,चुराना न चाहिए,
आंँखे चुराकर आज क्यों, करने सफर चले।

माना कि छोटी भूल से, बिछड़े थे हम कभी,
पर हम आज हैं मिलें,तो तुम उधर चले।

आँखें बिछाए बैठी थी, राहों में मैं तेरी,
अब तुम आये तो यहांँ,बदल कर डगर चले।

आँखें चुराना गैर से लगता है कभी भला,
आँखें चुरा तू मुझसे ,मुझे क्यूं गैर कर चले।

देखो पुरानी यादें अब, दिल में रही मचल,
यादों को अश्क रूप ले,आंँखों को भर चले।

आँखें चुराना छोड़कर,मुझसे नज़र मिला,
आँखों से बात करते थे,अब क्यों मुकर चले।

सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
  स्वरचित, मौलिक

2 comments:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (07 मार्च 2022 ) को 'गांव भागते शहर चुरा कर' (चर्चा अंक 4362) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  2. उम्दा अस्आर।
    सुंदर।

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