Thursday, December 16, 2021

जाड़े की रात (लघुकथा )

जाड़े की रात

वह ठंड से कांपती ठिठुरती सड़क के किनारे बैठी थी। अपने तन पर बेतरतीबी से लिपटी हुई फटी-पुरानी मैली- सी साड़ी और ब्लाऊज़ को फैला कर तन ढकने की कोशिश कर रही थी। सिर के मैले एवं उलझे बालों को खुजलाती हुई मुंह से टपक आये लारों को हथेली से पोंछ कर हाथ घास पर रगड़ती हुई कुछ बुदबुदाती जा रही थी।पास में इकट्ठी की गई लकड़ियों एवं पतों को इस प्रकार समेटती हुई सहेज रही थी। जैसे वह उसके अंगों के जेवरात हों। प्लास्टिक में रखी सुखी रोटियों को बार-बार गोदी में रखकर छुपा रही थी। लेकिन कुत्तों के पैनी निगाहें उसी पर अटकी हुई थी।
अचानक किशोर खिलाड़ियों का झुण्ड वहां से गुजरा और उसे देखकर यूं किलक उठा जैसे कोई परम सुंदरी को देख लिया है। उसके द्वारा इकट्ठा की गई लकड़ियों को फुटबॉल की तरह पांव मारकर दूर तक बिखराते चला गया। उसे समेटने के क्रम में उसकी रोटियां गिरकर बिखर गई और कुत्ते उन रोटियों पर झपट पड़े।
वह  कुत्तों को देख संतोष करती है। परन्तु बच्चों को देख करुणा और घृणा मिश्रित भाव लिए कराह उठी और ऊपर  आसमान में निहारकर फिर कुछ बुदबुदायी।शायद कह रही थी सारी लड़कियां इधर बिखर गयी।आज किस चीज से आग जलाकर जाड़े की रात काटूंगी।
              सुजाता प्रिय 'समद्धि'

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