Monday, December 27, 2021

रक्षा का कर्तव्य

रक्षा का कर्तव्य

जब पाण्डव वनवास में थे,तो दुर्वासा ऋषि दुर्योधन के घर पधारे। दुर्योधन ने उनकी खूब आवभगत की। क्योंकि,वह जानता था कि दुर्वासा ऋषि बड़े क्रोधि स्वभाव के हैं। आतिथ्य में किसी भी प्रकार की कोई कमी होने पर तुरंत श्राप दे डालते हैं।उसके आदर -सत्कार से प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि ने उससे कोई वरदान मांगने के लिए कहा। दुर्योधन कब चूकने वाला था। उसने हाथ जोड़ते हुए उनसे कहा-आपके आशीर्वाद से मुझे किसी भी चीज की कमी नहीं। फिर भी आप चाहते हैं कि मैं आपसे कोई वर मांगू, तो बस इतना कृपा करिए की जिस प्रकार आप हमारे यहां पधारे,उसी प्रकार वन में रह रहे हमारे भाइयों के यहां भी पधारें। दुर्वासा ऋषि ने एमवस्तु कहां और वे वन में अर्जुन की कुटिया पर पधारे और अर्जुन से बोले -मेरे साथ मेरे दस हजार शिष्य हैं।हम सभी नदी में स्नान कर आते हैं,तब तक हम सभी के लिए भोजन का प्रबंध हो जाना चाहिए।यह सुन द्रौपदी बहुत परेशान हो गयी।वह सोच रही थी इतने सारे लोगों को भोजन कैसे करवा पाएगी। वनवास में उन्हें भोजन की दिक्कत हुई तब श्रीकृष्ण ने उन्हें एक अक्षय-पात्र प्रदान किया था।उस अक्षय-पात्र की यह विशेषता थी कि उसमें थोड़ा अन्न डालकर भी पकाया जाता तब भी चाहे जितने लोगों को भोजन करवाया जा सकता है। लेकिन उस पात्र को मांजने के पूर्व तक।दौपदी घर के सभी सदस्यों को भोजन कराने के पाश्चात् उस पात्र को मांज चुकी थी। अब कुछ नहीं हो सकता था। चिंतातुर द्रौपदी ने अपनी इस विषम घड़ी में करुणाकार भाई श्रीकृष्ण को स्मरण किया।बहन के स्मरण-मात्र से श्रीकृष्ण तुरंत प्रकट हुए और अंतर्यामी होते हुए भी द्रौपदी द्वारा याद करने का प्रयोजन पूछा।
दौपदी ने दुर्वासा ऋषि के आगमन से आई परेशानियों को उनके समक्ष रखते हुए कहा-मैं आपका दिया गया।अक्षय-पात्र मांजकर रख चुकी हूं।आज उससे किसी को भोजन नहीं करवाया जा सकता।
श्रीकृष्ण ने कहा-बहन मुझे एक बार वह पात्र दिखा तो। तब  द्रौपदी ने वह पात्र लाकर दिया। श्रीकृष्ण ने उस पात्र के अंदर झांककर देखा। उसके अंदर भोजन का एक कण लगा हुआ था। भगवान श्रीकृष्ण ने भोजन के उस कण को निकालकर अपने मुंह में रखा और ऐसी डकार लगायी कि दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों के पेट से भूख की ज्वाला शांत हो गई।भोजन की अधिकता से वे नदी किनारे लेटकर सुस्ताने लगे तथा अर्जुन के घर भोजन के लिए जाने से मना कर दिया। तब दुर्वासा ऋषि ने अपने एक शिष्य द्वारा अर्जुन के घर यह खबर भिजवाई कि हम भोजन करने नहीं आ रहे ,हमें किसी अन्य शिष्य के घर जाने है। द्रौपदी ने राहत की सांस ली और श्रीकृष्ण के चरणों में शीश नवाकर बोली-हे संकटहारी, कृपालु माधव ! आज आपने हमारी लाज रखकर बहुत बड़ा उपकार किया नहीं तो क्रोधी ऋषि भूख से तिलमिला कर जाने हमें कौन-सा श्राप दे डालते।हम पहले ही अभिशापित जीवन जी रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा-हे बहन मैंने तुम पर कोई उपकार नहीं किया है। बहनों का संकट हरना,मदद और रक्षा करना प्रत्येक भाई का परम कर्तव्य है। मैंने तो सिर्फ अपने कर्तव्यों का पालन किया है।यह सिर्फ मेरा भातृत्व-भाव है। तुम्हें जब भी कोई परेशानी हो, मुझे एक बार याद जरूर करो। तुम्हारे हर कष्ट का निवारण मैं करूंगा।यह कह लें वहां से अंतर्ध्यान हो गए।
उन्होंने अपना वचन हर समय निभाया।उनकी जीता-जागता उदाहरण नीचे प्रस्तुत है।
युधिष्ठिर द्वारा किए गए राजसूय यज्ञ में परिवार के सभी सदस्यों को उनका कार्य भार सौंपा जा रहा था। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा-मैं अतिथियों के जूते उतार कर यथास्थान रखूंगा और भोज के झूठे पत्तलों को उठाकर फेंकूंगा। उन्होंने अपना कार्य हंसते-हंसते भलि-प्रकार किया।सभी लोगों की दृष्टि में उनका सम्मान पहले से ज्यादा बढ़ गया।यज्ञ के समय जब अग्र-पूजा की बात कही तो,सभी ने इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए श्रीकृष्ण  को चयन किया, क्योंकि वे सम्पूर्ण जगत के पालक एवं रक्षक हैं। श्रीकृष्ण का इतना आदर-सम्मान देख उनके फुफेरे भाई शिशुपाल ने ईर्ष्या वश उन्हें काफी भला-बुरा कहने लगा और भद्दी गालियां देने लगा। श्रीकृष्ण शांत मन से उसकी गालियां सुनते रहे क्योंकि उन्होंने शिशुपाल की माता को यह वचन दिया था कि शिशुपाल की सौ गलतियां माफ़ कर दूंगा। लेकिन जब शिशुपाल ने उन्हें सौ से अधिक गालियां दे डाली तो भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र द्वारा उसके सिर को उसके धड़ से अलग कर दिया। सुदर्शन चक्र की गतिशीलता से श्रीकृष्ण की उंगलियां घायल हो गयीं।उनकी घायल उंगलियों को देख द्रौपदी ने झट अपनी साड़ी के पल्लू फाड़े और श्रीकृष्ण की घायल उंगलियों में लपेटकर बांध दिए।बांधे जाने के कारण श्रीकृष्ण की घायल उंगलियों के दर्द घट गये। श्रीकृष्ण ने द्रौपदी द्वारा बांधे गये साड़ी के टुकड़े को बहन द्वारा बांधा गया रक्षासूत्र मान यह संकल्प लिया कि जब भी मेरी बहन पर कोई संकट आएगा।उस संकट से उसकी रक्षा अवश्य करूंगा।
जब कौरवों ने चौपड़ के खेल में पांडवों को पराजित करते हुए उससे धन की मांग की तब अर्जुन ने कहा- अब मैं निर्धन कहां से धन दे सकता हूं।सारे धन तो जूए में आपको हार कर दे दी। दुर्योधन ने मजाक स्वरूप ललकारते हुए कहा-अभी तो आपके पास द्रौपदी भाभी जैसा धन है। उन्हें दांव पर लगा दें। फिर क्या था-जीत की ललसा में अर्जुन ने दौपदी को दांव पर लगा दिया। दुर्योधन के मामा शकुनि की दुष्चक्र से वे एक बार फिर बूरी तरह पराजित हुए। और सभा में द्रौपदी को खींच कर लाया गया। द्रौपदी को देखते ही दुर्योधन के कानों में उसके द्वारा बोले गए तीखे बोल ' अंधे का पुत्र अंधा ही न होगा।' गूंजने लगा और वह बदले की आग में जलता हुआ अपने भाई दु:शासन को भरी सभा में उसका चीर-हरण करने के लिए कहा। दौपदी ने अपनी लाज की रक्षा हेतु भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण किया और भगवान श्रीकृष्ण ने वहां प्रकट होकर द्रौपदी का चीर बढ़ाने लगे। कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने द्रौपदी द्वारा बांधे गए उस साड़ी के टुकड़े को ही इतना विस्तार दिया कि दु: शासन खींचते-खीचते तक गया।सभा में साड़ी की बहुत बड़ी ढ़ेर लग गई लेकिन द्रोपदी के वदन निर्वस्त्र न हुए।इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने एक भाई के रूप में अपनी बहन की हर प्रकार की रक्षा का कर्तव्य निभाया।
             सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
                स्वरचित, मौलिक

2 comments:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(28-12-21) को मेहमान कुछ दिन का अब साल है"(चर्चा अंक4292)पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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  2. उत्तम और प्रेरक

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