Monday, October 18, 2021

कलश यात्रा

जय मां शारदे
 कलश यात्रा
शारदा की खुशी का ठिकाना नहीं ।बेटा दुल्हा बनेगा।घर में बहू आएगी।उसके पायल की रुनझुन से घर का माहौल संगीतमय हो जाएगा।उसकी शृंगार की सुगंध से पूरा घर सुवासित हो जाएगा।उसकी सुंदरता से पूरा महल सुशोभित हो जाएगा।आज उसके बेटे को तिलकोत्सव है।शुभ-घड़ी पर उपस्थित टोले-मुहल्ले के सभी लोगो तिलक-भोज से निपटकर चले गये। सम्बंधी-कुटुमब के लोग तिलक में आए सामानों को देखने लगे। किन्हीं सामानों की बड़ाई और किसी की बुराई का शिलशिला चलने लगा। लेकिन शारदा को सामानों की परवाह नहीं बहू तो सुंदर और संस्कारी मिली। किसी ने मुंह बनाते हुए कहा-इतने बर्तनो में आपकी दोनों बेटियों की शादी कैसे हो जायेगी।किसी ने कहा-होने वाले समधी की सात बेटियां हैं और यह आखिरी बेटी है कहां से दे पाते अधिक सामान। लेकिन शारदा मन-ही-मन प्रतिज्ञा कर रही थी कि बहू के मायके से आये एक भी सामान वह बेटियों को नहीं देगी।सारे सामानों को देखते-देखते अचानक उसकी नज़र तिलक में आयी कलशी पर पड़ी।उसे देख उसकी आंखों में अजीब सी चमक उत्पन्न हुई।जैसे वह अपनी कोई खोयी हुई वस्तु पा गयी।वह झट से उठी और कलशी को उठाकर देखी ।फिर उसमें की गयी कशीदाकारी में जैसे कुछ ढूंढने लगी। कशीदाकारी के बेल-बूटे पर उसकी नजरें थम-सी गयी।बूटे के बीच में उभरे अपनी दादी के दादा-दादी के नाम देख उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।वह अपने बेटे को देखते हुए बड़ी प्यार से बोली-मेरा बेटा मेरी प्यारी कलशी को बहुरा कर ला दिया।
      मतलब ? लोगों ने अचंभित हो पूछा।
शारदा ने कहा-आज से पच्चीस साल पहले यह कलशी मेरे मायके से आया था। इसमें मेरी दादी के दादा -दादी का नाम लिखा हुआ है।फिर कितनी जगह यात्रा करते हुए यह वापस मेरी बहु के मायके से आया।वह मेरे बेटे के कारण ही न। मतलब इसे मेरा बेटा वापस लाया।
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शारदा अठारह वर्ष की होने वाली है। ठीक अठारह वर्ष पूरे होने पर उसका विवाह होने वाला है। तैयारियां जोर शोर से चल रही हैं।दुल्हे का जोड़ा ,सिकड़ी-अंगूठी घड़ी-मोटरसाइकल और दहेज में मांगे जाने वाले सारे सामानों की खरीदारी के साथ शारदा के लहंगे-गहने संदूक-पिटारी टेबुल पलंग और जाने क्या-क्या सामान कुछ जरूरत के कुछ दिखाबे के खरीदकर लाया गया। किन्तु,
 शारदा को उन सामानों से कोई खुशी नाराजी नहीं।वह तो खुश है, बस इस बात से कि दादी ने अपनी दादी का दिया हुआ कलश उसे दे दी। उसे याद है बचपन में उस कलशी में वह तरह-तरह के सुंदर फूलों को सजाकर रखती थी।उसे वह कलशी बहुत अच्छी लगती थी।जिसका कारण था उसमें की गयी नक्काशी। कलशी के गर्दन में इतने सुन्दर  बेल ! ऐसा प्रतीत होता था कि कोई दुल्हन अपने गले में सुंदर हार पहनी हो।बीच के चौड़े भाग की नक्काशी के क्या कहने।जो देखता दंग रह जाता। सचमुच इतने सुंदर बेल बूटे कहीं किसी गगरी में नहीं दिखे।ना किसी दुकान में ना हीं किसी के घर में। दादी कहती थी कि उसकी दादी ने ठठेरे को कहकर उसे विशेष रूप से बनवाया था। नक्काशी के बड़े-बड़े बूटों में दादी के दादा-दादी का नाम इतनी बारिकी से खुदा हुआ था कि बिना बताए किसी को नजर नहीं आता था।
जब से दादी ने घोषणा की थी कि वह  कलशी अपनी पोती शारदा को दे देगी,शारदा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। तरह-तरह के सपने देखने शुरू किए।गगरी को फूलदान बनाएगी, उसमें रोज सुंदर और ताजे फूलों के गुच्छे को सजाएगी। कभी सोचती इसमें पीने का पानी रखेगी, कभी सोचती इसमें बचत के पैसे रखेगी। कभी सोचती इसे संभालकर रखूंगी और मैं भी अपनी पोती को शादी में उपहार दे डालूंगी। धत् तेरे की s s ! उसने शर्माते हुए तकिए में मुंह छिपा लिया।यह क्या सोच रही है। अभी शादी भी नहीं हुई और पोती...... कितनी कल्पनाएं कर डाली उस कलशी को लेकर।
            खैर ! उसकी शादी बड़े धूम-धाम से हो गई। ससुराल में अपनी कलशी को देख मन इस प्रकार प्रफुल्लित हो उठा -जैसे उसकी कोई अंतरंग सहेली से मिलाप हुआ हो।टोले-मुहल्ले तथा घर-परिवार के लोग मुंह दिखाई के लिए आते तो उसकी छवि के साथ-साथ उसकी प्यारी कलशी की भी प्रशंसा दिल खोलकर करते जिसे सुनकर उसके हृदय में आनन्द के जो हिलोरें उठती उसका वर्णन कर पाना अत्यंत कठिन कार्य है।
       लेकिन उसकी शादी के ठीक आठवें दिन उसकी एकलौती ननद की शादी थी।खुशी से उसका मन-मयूर थिरक उठा ।अपनी कितनी साड़ियां, कितने लहंगे, कितने गहने खुश मन से उसने ननद को पसंद करबा कर दे दिए। एक बार भी नहीं सोचा वह उसका किसी का दिया हुआ उपहार है,उसका सुहाग-शृंगार है। लेकिन उन मनोदशाओं पर काबू पाना कितना कठिन हो गया जब उसकी आंखों के सामने से उसकी प्यारी गगरी को यह कहते हुए उठाकर ले जाया गया कि उसकी ननद को यह गगरी बहुत पसंद है, इसलिए उसे उसके तिलक में  दे देते हैं। ऐसा लगा उसके सीने से किसी ने उसका कलेजा काढ़ लिया हो। परन्तु स्वाभाविक संकोच से मना नहीं कर पायी। मायके वालों की शिक्षा कानों में अलग डंके बजा रही थी-यहां से भेजे समानों को कोई रखते हों, उपयोग में लाते हों, किसी को देते हों,तुम कुछ मत बोलना।
पति ने आकर नजरों की भाषा में कुछ नहीं बोलने की चेतावनी दी।
 उसके पास अपने कलेजे पर पत्थर रख लेने के अलावा कोई चारा नहीं था।मन को तसल्ली दी कभी ननद के घर जाउंगी तो देखूंगी। लेकिन,ननद ने ससुराल से आते ही कहा आपकी कलशी की वहां बहुत तारीफ हुई। सुनकर मन गदगद हो गया। लेकिन ....
लेकिन ? सशंकित हो वह घबराकर कर पूछ बैठी।
उसे मेरी ननद ने नेग में ले लिया।ननद ने रुआंसे स्वर में कहा।
जब वह शादी के बाद पहली बार मायका गई तो लोगों ने पूछा कलशी कहां सजायी ?
 बेचारी ! जवाब में होंठों पर स्निग्ध मुस्कान बिखेरने के सिवा कुछ नहीं कर सकती थी। कुछ वर्षों बाद उसकी ननद ने यह समाचार सुनाया कि आपकी वह कलशी , जो मेरी ननद को नेग में दिया गया था वह उसकी ननद को दहेज में दे दिया गया। ठीक हुआ जैसे को तैसा। उसने कभी सोचा नहीं कि वह मुझे मिला था। मुझे कितना पसंद था। आखिर उसका भी नहीं रहा।
 शारदा सोच रही थी जैसे को तैसे का सिद्धांत तो सबके साथ लागू होता है। उसने भी तो नहीं सोचा यह सब कि मुझे वह कलशी कितनी पसंद थी। मुझे भी तो वह कलशी दादी ने उपहार में दिया था ।वह निराश मन से सोच रही थी कि अब अपनी प्यारी कलशी को कभी नहीं देख पाऊंगी।भला ननद की ननद की ननद के घर वह क्यों जाएगी ?
मायके में बार-बार पूछे जाने पर कलशी का यात्रा-वृत्तांत जाने कैसे फिसलकर उसके मुख से बाहर आ गया । फिर क्या था ।काना-फुसी होते-होते दादी के कान तक पहुंच गयी। उसके बाद के माहौल का माहौल उसके लिए भी भारी पड़ा ।तरह-तरह के ताने-बाने सुनने को मिला। कलशी की बात उठते ही उसकी मां और दादी ने उसकी ननद को लालची,सास को नासमझ और पूरे परिवार को जाने किन-किन अलंकरणों से विभूषित करती।उनके लिए बोली गयी जली-कटी  सुन उसे बहुत बुरा भी लगता। लेकिन वह करती भी क्या ?उसे वापस मांग तो नहीं सकती थी।
दिन बीतते गए।वह कलशी को मिलने-खोने और दूर होने की बात को दु:स्वप्न समझकर भूलने की कोशिश करती। कभी भी कलशी की याद आती तो अपने मन में यह निश्चय जरूर करती कि बहू के मायके से आने वाले सामानों को कभी ना उपयोग में लाएगी,ना बेटियों को देगी। किसी के दहेज अथवा उपहार में मिले सामानों को बिना उससे पूछे लेना या किसी को देना एक ग़लत प्रथा है।इस प्रथा के रोक-थाम करने पर दूसरों पर तो वश नहीं है पर स्वयं पर नियंत्रण किया जा सकता है।यह तो महज एक संयोग है कि जहां उसकी कलशी गयी थी उसी घर में उसके बेटे की शादी हुयी, और यह तो पूर्ण रुपेण  महासंयोग है कि मेरी बहू को दिए जाने के लिए अब तक यह कलशी वहां सुरक्षित रही । नहीं तो उसकी भी ननद अथवा सात बेटियों में किसी और को दे दिया जाता। शारदा प्रसन्न मन से उस कलशी को देखती हुयी उसे उठाकर अपने सीने से लगा ली। तभी कहीं लाउडस्पीकर में फिल्मी गाना गूंज उठा।कल के बिछड़े हुए हम आज कहां आ के मिले.........
और शारदा की आंखें बिछड़ने के बाद मिलन के हर्षा-तिरेक में छलछला आईं।
               सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
                 स्वरचित, मौलिक

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