Sunday, June 2, 2019

सुन लकड़हारे

रामु लकड़हारा चार बासी रोटियाँ अंगोछे के गट्ठर में बांधे कंधे पर लटकाते हुए, एक हाथ  में कुल्हाड़ी थामे ,अपनी मैली-कुचैली धोती की निचली छोर को  कमर में खोंसते हुए तेज चाल से सुनसान राहों पर चला जा रहा है।धूप में तीखापन आने से पूर्व वह जंगल पहुँच जाना चाहता था।
   बरसात आनेवाली है फिर भी धरती तवा समान तपती है।हवा के झोंके अग्नि- लपट - सी वदन को झुलसा जाते हैं।पंथ के दोनो ओर बिलखती बीरानियों  को देख  उसके दिल से एक गहरी आह निकल गई। पहले लकड़ियों के लिए इतनी दूर नहीं जाना पड़ता था।ज्यादा दिन नहीं हुए।बस पाँच साल पहले ही तो यहीं से लकड़ियाँ ले जाकर बापू के साथ बेचता था । आज उसके बापू की तरह यहाँ के पेड़-पौधे भी उससे अत्यंत दूर हो गए हैं।क्या जंगल की दूरी निरंतर बढ़ती ही जाएगी? लकड़ियों के लिए उसे और दूर जाना होगा?
     इन्ही मानसिक अंतर्द्वन्दों में घिरा हुआ जंगल पहुँच गया। वह तय नहीं कर पा रहा था कि किस पेड़ को काटे। सब पेड़ हरे थे और उन्हें काटने से उसे कोई लाभ नहीं।गीली लकड़ियाँ कोई खरीदता ही नहीं।लेकिन सिवा इसके दूसरा विकल्प भी कहाँ ? सुखे पेड़ों को तो वह पहले ही काट चुका । हरे पेड़ ही शेष हैं ।
       कुछ देर विचार कर निर्णय लिया । हरे पेड़ को ही काट ले जाऊँ।दो- चार दिन धूप में सुखाकर बेच दूंगा। कुल्हाड़ी सम्हालता हुआ  निकट के एक पेड़ की ओर बढ़ा ।वह पेड भी हरा ही था ,पर वृधावस्था की ओर बढ़ रहा था । एक बड़ी- सी टहनी पकड़ कर नीचे खींचा ।खींचते- ही एक तेज चरमराहट के साथ वह टहनी टूट कर भूमि पर आ गिरी। शायद यह टहनी सड़ कर कमज़ोर पड़ चुकी थी।उसने टहनी पकड़ कर अपनी ओर खींची। टहनी खीचते ही आश्चर्य और खुशी से उसकी नजरें  चमक उठी । उस टहनी में हरे- पीले अनगिनत आम लटक रहे थे । जो शायद लोगों की नजरों से ओझल रह गए थे। अन्यथा दिखने पर ये कहाँ बच पाते।उन आमों को देखते -देखते अचानक उसने  नजरें धुमाई तो देखा,पेड़ के नीचे अनगिनत छोटे- छोटे पौधे मात्र दो- दो पत्तों को नन्हें बालक के हाथों जैसे हिला रहे थे।रामु ने एक बार फिर उस आम के पेड़ को देखा फिर उन छोटे- छोटे नवजात पौधों को ।वे उस विशाल आम्रवृक्ष के ही शिशु थे।वह मौन खड़ा उन बालबृक्षों को निहारता रहा। ऐसा लग रहा था कि वे हवा के हिंडोले पर झूल अपना परिचय देता हुए कह रहे हैं -,
      मुझे पहचाना नहीं तुम।हम इस विशाल वृक्ष के ही बालक हैं।हम ही कलांतर में ऐसे विशाल वृक्षों में परिवर्तित हो जाते हैं।तुम इस स्वादिष्ट फलोंं को देख रहे हो न जिसे खाकर तुम्हारे पेट की क्षुधा मिटती है।तुम्हारी आत्मा तृप्त होती है।वह भी मेरे ही गर्भ से उत्पन्न हुए हैं।लेकिन अपनी  व्यथा क्या सुनाऊँ? अपनी छोटी- मोटी जरूरतों के लिए तुम हमें काटकर असमय ही मौत की गोद में सुला देते हो ।हमें नष्ट करने से पहले कभी तुमने अपने मन में विचार करके देखा है कि मैं जीवित रहकर भी तुम्हारे कितना काम आता हूँ।जलावन के लिए तुम हमें काटते हो।पर,कभी यह भी सोंचा है कि मेरे फलों को खाने के लिए न तो तुम्हें इंधन की आवश्यकता पड़ती है न बर्तन की।मेरी लकड़ियाँ तुम सिर्फ एक बार बेच या जला सकते हो ।लेकिन मेरे मीठे स्वादिष्ट फलों को तो जीवन भर खा सकते हो।
         ऱामु उस  बाल आम्रवृक्ष की दर्द भरी मुक व्यथा से परेशान खड़ा था । तभी शुद्ध वायु का शीतल झोंका उसकी सोचों को झकझोर गया अनायास उसकी निगाहें उन सरसराती हवाओं के उद्गम स्थल पर चली गई।उस अर्ध- नष्ट वन में तरह- तरह के सुंदर और सुगंधित पुष्प  हवा के हिंडोले पर किलक- किलक कर हठखेलियाँ- सी करती हुई मानो उससे कह रहे थे-- देखो! यह जो ठंढी- ठंढी निर्मल व शीतल हवा है न वह हम पेड़-पौधों से छनकर ही तुम्हारे पास आती हैं।तुम हमें काट- छाटकर हवा को स्वच्छ करने से हमें रोकते हो ।फलस्वरूप तुम्हारे स्वस्थय की बड़ी हानि होती है,और तुम बीमार पड़कर कमज़ोर हो जाते हो
वह पेड़ की दास्ता सुन रहा था, तभी उसके सामने कोई ढेला- सा आ गिरा ।उसने देखा - वह किसी पक्षी द्वारा कुतर कर खाया हुआ अमरूद का टुकड़ था ।रामु नजर उठाकर  ऊपर देखा।पेड़ पर एक अल्प- व्यस्क तोता अपनी नकलची बोली से काँ-काँ, चीं- चीं- करता हुआ पेड़ पर स्थित अपने घोंसले में चला गया।
  सुन लकड़हारे जंगल के पेड़- पौधों ने अपना  दुखड़ा सुनाने के लिए एक बार फिर उसे आवाज दी---------
यह देखो मैं नाना प्रकार के पशु- पक्षियों का निवास स्थान हूँ।भोजन भी उन्हें हमसे प्राप्त होता है।और तुम हमें  काट-कर प्राणि- जगत के जाने कितने जीवधारियों के भोजन तथा आवास के साधनों को ऩष्ट कर डालते हो ।
अपनी छोटी मोटीआवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर प्राकृतिक आपदाओं को सहज ही आमंत्रित कर रहे हो।पृथ्वी पर प्रदूषण का प्रकोप बढ़ रहा है ।जग की जलवायु खतरे में है ।जिसके जिम्मेवार पूर्ण रूप से तुम मानव ही हो।क्योंकि तुम हमें नष्ट तो बड़ी आसानी से कर देते हो परन्तु      निर्माण का विचार भूले से भी मन में नहीं लाते ।
यदि ऐसे ही कर्म तुम्हारे रहेंगे तो निकट भविष्य में धरती जलविहिन,वृक्ष-विहिन अन्न- विहिन और पशु- पक्षि - विहिन हो जायेंगे ।तब सोचो तुम मानव जन क्या- - - - - - - - - - -?
रामु ने स्वतः अपनी आँखें मूंद ली।क्योंकि उन पेड़ों के प्रश्नों के उत्तर देना तो दूर उसे सुनना भी उसके लिए मुश्किल था। थोड़ी देर बाद एक गहरी ,लम्बी सांस लेते हुए जब उसने आँखें खोली तो उसकी आँखों में कोई दृढ़ संकल्प झलक रहा था।
अगले ही पल वह पेड़ पर चढ़कर  आमों को तोड़ने लगा ।तत्पश्चात् वह आम के पौधों को भी बड़े यत्न से उखाड़ लिया  और अपनेअंगोछे में बांध लिया।

आम लो ! आम लो !  दूसरे दिन सड़कों और गोलियों में एक जान- पहचानी - आवाज सुनाई दी ।लोगों ने धर से निकल कर देखा- अरे! यह तो रामु लकड़हारा है।
किसी के मुँह से बरबस ही निकल पड़ा । रामु लकड़हारा नहीं ,रामु फलवाला। रामु ने मुस्कुराते हुए कहा।
पाँच साल बाद वन का वह हिस्सा जो मरुभूमि में परिवर्तित हो गया था,अनेक प्रकार के पेड-़ पौधों से भर गया ।कस्वे के निकट निर्जन स्थान में एक बहुत विशाल और हरा- भरा सुंदर उपवन लहलहा रहा था।अनेक प्रकार के फल फलते और रंग-विरंगे सुंदर- सुगंधित फूल खिलते।और रामु आज रामु लकड़हारा नहीं वल्कि रामु फलवाला,फूलवाला के नाम से जाना जाता है।पर्यावरण की रक्षा आज उसके जीवन का प्रथम लक्ष्य बन गया है।वन के फल- फूल ही आज रामु की आजीविका का प्रमुख साधन बन गया है उन्हें  बेचकर ही वह अपने परिवार का भरण- पोषण कर रहा है।
             सुजाता प्रिय

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