बातों-बातों में उनसे ही कह डाला -"भैया ! ऐसा लगता है कि मैंने कहीं आपको देखा है !" लेकिन उन्होंने साफ इनकार कर दिया कि वह उसे जानते हैं ।खैर जो हो एक बडे-भाई का प्यार और आशीर्वाद पाकर ही वह धन्य थी। अपने भाई तो उससे छोटे ही थे। उतनी दूर से रक्षाबंधन पर्व में आ भी नहीं सके।
तभी ममेरे भाई निखिल ने कॉल कर बताया कि तुम्हारी राखी मुझे मिल गई।।कभी वहांँ आउँगा, तो तुम्हारे लिए उपहार लेकर आउँगा। वह ठुनकती हुई बोली -आप मुझे हमेशा यही कहकर तो ठगते हैं । कभी आते तो है नहीं।"
उन्होंने कहा- "आऊंँगा ! हो सकता है, जल्दी आ जाऊँ। अब तो मेरा दोस्त भी तुम्हारे शहर में रहने लगा । उसके बेटे का विवाह होने वाला है तीन महीने बाद ।"
"कौन दोस्त ?"
"एक सुशील नाम का दोस्त मेरी शादी में अपनी मांँ के साथ आया हुआ था ।"
नाम सुनते ही सुशील बाबू का चेहरा उसके आंखों के सामने घूम गया। इनके बेटे का विवाह भी तीन महीने बाद है।अब उसे समझ आया की सुशील बाबू का चेहरा उसे जाना-पहचाना क्यों लगता था ।आज से पच्चीस साल पुर्व उसके ममेरे भाई की शादी में भैया का यह दोस्त अपनी मांँ के साथ आया हुआ था। भैया ने जब उसका परिचय करवाया तो उसने बड़े भाई के दोस्त के नाते उसे नमस्कार किया। परंतु जब-तक वह शादी मे रही, सुशील अजीब-सी प्यास भरी नजरों से उसे देखता रहता। कभी -भी उन्हें भैया कह कर संबोधित कर लिया तो उसके चेहरे पर नागवारी के भाव स्पष्ट दृष्टिगोचर हुआ दिखता था ।
शादी खत्म होने पर वह अपने घर आ गई। लेकिन सुशील की नजरों का मैलापन याद कर उसका मन कसैला हो जाता। फिर उसकी भी शादी हो गई और समय के साथ वह उन कड़वाहटों को भूल गई ।
आज वही सुशील उसे भाई का प्यार उड़ेल रहा है। अब वह उसके उन भावों को याद रखें या आज के ? जिन भावों की आकांक्षा वह पच्चीस साल पूर्व सुशील बाबू से करती थी, वह आज प्राप्त हो रहा है।अंत में उसने यह निर्णय किया कि "अतीत की कड़वाहटों को भूल हमें वर्तमान की मृदुलता में जीना चाहिए।" लेकिन उनके उन व्यवहारों को माफ कर देना क्या न्याय-संगत होगा ? दिल ने कहा -"जाने दो कम- से -कम अब तो समझ आया ।"
फिर वह सुधीर बाबू को राखी बांँधने के लिए थाल सजाने लगी।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
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