गाँव मेरे तू शहर न बनना।।
कोलाहल का घर न बनना।।
बड़े-बड़े आवास जहाँ हो,
छल-कपट का वास जहाँ हो।
पास-पडो़स को कोई न जाने।
अपने अपनों को ना पहचाने।
ऐसा कोई तू नगर न बनना।।
गाँव मेरे तू शहर न बनना।।
भाईचारे का भाव नहीं हो।
मेल-जोल , संभाव नहीं हो।
अतिथियों का सत्कार नहीं हो।
परहित औ परोपकार नहीं हो।
मतलबी बेअसर न बनना।।
गाँव मेरे तू शहर न बनना।।
सूरज की परवाह नहीं हो।
और चाँद की चाह नहीं हो।
नदियों का अस्तीत्व मिटेगा।
वन पर्वत का महत्व घटेगा।
प्रकृति को बेनजर न करना।
गाँव मेरे तू शहर न बनना।।
उजड़े ना खेत- खलिहान।
जहाँ न रहेगी कोई बथान।
खेतों में फैकट्रियाँ लगेंगी।
नकली अनाज जहाँ बनेगें।
ऐसे जन पर कहर न करना।।
गाँव मेरे तू शहर न बनना।।
गौशाला बन जाएगा डेयरी।
जहाँ न होगी अब गैया मेरी।
पाउडर का दूध-दही मिलेंगे।
चर्बी के मक्खन-घी मिलेंगे।
ऐसा कोई सफर न करना।।
गाँव मेरे तू शहर न बनना।।
गलियाँ बनेगी सड़के चौड़ी।
गाड़ियाँ आएगी दौड़ी-दौड़ी
पेट्रोल,डीजल के धूएँ होंगे।
ताल- तलैया ना कुएँ होंगे।
विलुप्त पोखरे नहर न करना।।
गाँव मेरे तू शहर न बनना।।
गंदगी की भरमार बढ़़ेगी।
प्लास्टिक की अंबार रहेगी।
प्रदूषित होगी जहाँ जलवायु।
घट जाएगी जीवों की आयु।
रोगों का तू घर ना बनना।।
गाँव मेरे तू शहर न बनना।।
न होंगे दातून ,पत्तल, चटाई।
तोसक ,तकिया और रजाई।
विदेशी माल से बाजार सजेगी।
कुटीर-उद्योग बेकार मिलेगी।
ऐसा कोई तू समर करना।।
गाँव मेरे तू शहर न बनना।।
सुजाता प्रिय