Wednesday, March 31, 2021

आजादी की ओर बढ़ो



आजादी की ओर बढ़ो तुम,                   
                       उठो नारियों भारत की।
झूठे बंधन तोड़ बढ़ो तुम,
                      उठो नारियों भारत की।

कपटी-रावण हर ले जाए,
                         ऐसे पल मत आने दे।
राम अग्नि में तुझे जलाए, 
                         ऐसे पल मत आने दे।
प्रतिकार मुंह खोल करो तुम,
                      उठो नारियों भारत की।

चीर- हरण करे दुशासन, 
                          ऐसे पल मत आने दे।
पत्थर तुमको कर दे गौतम, 
                          ऐसे पल मत आने दे।
बलात् अंधी मत बनो गंधारी-सी 
                        उठो नारियों भारत की।

असुरों को मार गिराने वाली,
                        दुर्गा-सी बन जाओ तुम।
यमराज से टकराने वाली, 
                    सावित्री बन दिखाओ तुम।
अहिल्या-सी पालने डाल दुष्टों को,
                        उठो नारियों भारत की।

गार्गी-सी रच वेद ऋचाएं, 
                        मैत्रेई-सी बन ब्रह्मज्ञानी।
शबरी-सी बन जा सुहृदया,
                      यशोदा मां-सी बलिदानी।
बनो अरूंधति-सी आदर्श देवी,
                        उठो नारियों भारत की।

स्वतंत्र भारत में भी तेरे, 
                         जंजीर पड़ी है पांव में।
क्यों भोली-नादान बन बैठी,
                            डुबने वाली नाव में।
घूंघट के पट खोल बढ़ो तुम,
                       उठो नारियों भारत की।

मत स्वयं को तुम कैद करो, 
                        कुरीति की सलाखों में।
दिल करुणा से भरा हुआ है,
                          नीर भरा है आंखों में।
अंधविश्वास को पीछे छोड़ बढ़ो तुम,
                        उठो नारियों भारत की।

आजादी तुम अगर चाहती,
                 कुछ करतब दिखलाना होगा।
अंग्रेजों से टकराने वाली, 
                       लक्ष्मी-सी टकराना होगा।
हैवानों से लो डटकर टक्कर,
                          उठो नारियों भारत की।
              सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Tuesday, March 30, 2021

होली के रंग, कोरोना के संग



हम सब होली खेले भाई,रखकर दो गज दूरी।
गुलाल के बदले मुखड़े पर,मास्क लगा जरूरी।

पिचकारी के बदले ले सेनिटाइजर की बोतल।
हैंडवाश साथ में रखी थी,भरी सीसी लोकल।

कोरोना से भयभीत दूर से, खेल रहे थे होली।
दूर रहें भाई-मित्रों से, नहीं बनाए हम टोली।

पिचकारी,गुव्वारे से ही हम पड़ाए सबको रंग।
दूर से गुलाल उड़ाए हम, रहे न किसी के संग।

नानी के दहीबड़े और पुआ, आनलाईन ही खाए।
फेसबुक पर होली मिलन के गीत झूमकर गाए।

बनी यादगार इस बार की होली,कोरोना के संग।
मटमैला गुलाल लगाऔ बड़ा ही फीका सब रंग।

           सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
             स्वरचित, मौलिक

Sunday, March 28, 2021

रंगों का त्योहार आया



रंगों का त्योहार आया, 
रंगों का त्योहार।
दिखता है रंग-बिरंगा 
देखो सारा संसार।
रंगों का त्योहार आया...............

रंग लाल में मिलकर पीला, 
नारंगी रंग बनाया।
पीले में मिलकर नीला,
 हरियाली है फैलाया।
हम भी आपस में मिलकर
 करें प्यारा रंग तैयार।
रंगों का त्योहार आया...........

हम सब हाथों में रंग ले,
जन को रंगीन बनाएं।
सबसे अच्छा है हम सबको 
प्यार का रंग लगाएं।
सद्व्यवहारों से रंग दें,
हम सारा संसार।
रंगों का त्यौहार आया............. 
   
     सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Saturday, March 27, 2021

नारी नहीं बेचारी



नारी है नहीं बेचारी,ना समझो हमें लाचारी ‌
 सुख की हैं अधिकारी,ना समझो हमको भारी।

जन्म लेते मत फेंको हमको,हमें भी हक जीने का।
हमको भी तुम दूध पिलाओ,जहर नहीं पीने का।
समानता की अधिकारी,ना समझो हमें लाचारी।

नारी ने नर को जन्म दिया है, नारी ने है पाला।
नारी का सम्मान न करते,ना बनते हो रखवाला।
क्यों लगती तुझको भारी,ना समझो हमें लाचारी।

नारी है ममता की मूरत और नारी ही है माया‌‌
नारी ने निर्माण किया है,वीर पुरुष की काया।
नारी ही है मां प्यारी,ना समझो हमें लाचारी।

नारी घरनी, नारी भरनी, नारी है दुःख हरनी।
नारी जग की अनमोल रतन, नारी है सुख करनी।
तुम पर हैं बलिहारी ,  ना समझो हमें लाचारी।

नारी की महिमा का कोई,पार नहीं पा सकता।
बिन नारी के कोई नर,आधार नहीं पा सकता।
ईश्वर की हैं रचना प्यारी,ना समझो हमें लाचारी।

हर जगह पुरुषों से नारी,कदम बढ़ाकर चलती।
दुख-परेशानी-बाधाओं को,पीछे छोड़ निकलती।
ना हारी थी,ना है हारी,ना समझो हमें लाचारी।
            सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
              स्वरचित, मौलिक

Friday, March 26, 2021

पुरुषार्थी बनता है पुरुषोत्तम



जिसमें है पुरुषार्थ अनुपम।
वह बन जाता है पुरुषोत्तम।

जिसके बाहु में रक्षा का बल हो।
सुरक्षा करने की इच्छा प्रबल हो‌।
जिसके विचार सदा हो उत्तम।
वह बन जाता है पुरुषोत्तम।

दया निर्बल पर जिसके मन में।
मेहनत की ताकत हो तन में।
अच्छा-भला का हो संगम।
वह बन जाता है पुरुषोत्तम।

कभी न मन में कोई छल हो।
नयनों में माया का जल हो।
विवेक-बुद्धि कभी न हो कम।
वह बन जाता है पुरुषोत्तम।

ईर्ष्या-द्वेष और क्रोध नहीं हो।
शान-घमंड का बोध नहीं हो।
आगे बढ़ता हो जो  हरदम।
वह बन जाता है पुरुषोत्तम।

जो संकट में हार न मानें।
कर्म को अपने हाथ न माने।
कर्मवीर बन करता है उद्धम।
वह बन जाता है पुरुषोत्तम।

      सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
        स्वरचित, मौलिक

Thursday, March 25, 2021

होली के रंग (लघुकथा )



होली में अब चार दिन शेष हैं। लेकिन इस बार मुहल्ले में वह उल्लास नहीं जो विगत वर्षों में हुआ करता था। जिसका खास वजह कोरोना काल था।
उससे भी खास वजह
पिछली होली में स्मृति भाभी को रंग लगाने के कारण हुई प्रतिक्रिया थी।
नई नवेली स्मृति भाभी के गालों पर मुहल्ले के लड़के-लड़कियों ने इतना रंग लगाया था कि उनके चेहरे की चमड़ी पर जलन होने लगा और बड़े-बड़े फसलें पड़ गये‌। महीने भर चिकित्सा कराने के बाद घाव ठीक हुआ। कमला चाची ने गुस्से में कहा दिया। कितना घटिया रंग लगाया मेरी बहू को ? अब तुम लोग इसे रंग लगाने मत आना।उस दिन से सभी चाची से नजरें चुराने लगी थी।
आज चाची अचानक मिल गई और बोली तुम लोगों को स्मृति ने बुलाया है।
सभी सहेलियां सशंकित हो उठी। पता नहीं क्या बबाल खड़ा हो जाए। लेकिन चाची ने कहा था इसलिए भाभी से मिलने गयीं।
उनमें से एक ने भाभी को नमस्ते करते हुए कहा-पिछली होली में हमने भाभी को बहुत परेशान किया था। इसलिए भाभी नाराज हैं।
स्मृति भाभी ने मुस्कुराते हुए कहा-अरे ऐसी बात नहीं, मैं नाराज क्यों रहुंगी।आपलोग ने जान-बूझकर ऐसा थोड़े ना किया था।वह तो बाजार के रंग ही घटिया किस्म के थे। इस बार हम प्राकृतिक रंगों से होली खेलेंगी।आप सभी जरूर आइएगा।एक दिन तो मिलने-खेलने का इतना सुनहरा अवसर मिलता है।
फिर क्या था , भाभी के बताए नियमों से सभी ने होली के लिए प्राकृतिक रंग तैयार किये।
पलाश के फूलों को पीसकर उसका रस निचोड़कर लाल रंग बने।पालक अथवा सेम की पत्तियों को पीसकर हरा, चुकंदर के रस से गुलाबी,गेंदे के फूलों तथा हल्दी से पीला, और इन मुख्य रंगों के मिश्रण से नीला, नारंगी और बैंगनी।
स्म‌ति भाभी के संग सभी सखियों ने एक दूसरे के गालों में खूब रंग लगाया।
न किसी को कोई नुक़सान।
इन्हें छुड़ाना भी है आसान।
सभी ने खूब मस्ती किए।
बुरा न मानो होली है।
जोगिरा सा रा रा रा रा रा रा रा रा
              सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
                स्वरचित, मौलिक

Wednesday, March 24, 2021

शहीदों को नमन


हे शहीद वीर भारत के जन।
मुझको शत शत बार नमन।

तुझसे ही देश महान बना।
 है तेजस गौरववान बना।

तुमने ही इसे संवारा है।
इसका रूप निखारा है।

बेड़ियां इसकी तोड़ी तुमने।
कांटी है बंधन डोरी तुमने ‌।

तुम इसका रखवाला है।
इसपर तू मरने वाला है।

लोहु से धरती कर लाल।
किया उन्नत जंग में भाल।

प्राणों को कर न्योछावर।
जीवन दाता तूं हुए अमर।

अपने सिर पर बांध कफ़न।
कलि का रावण किया हनन।

खुशबू से है भर दिया चमन।
वीरों तुझको शत बार नमन।
 
    सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
      स्वरचित, मौलिक

आज का फैशन



जो कल गरीबी का पर्याय था,
                  आज वही है फैशन।
जिसे पहनने में हीन भाव था,
            वे आज कहते नो मेंशन।

फटे-चिटे परिधान है बिकते,
                दुकानों में खुले आम।
रंग-उड़े धब्बेदार कपड़ों के,
                      होते हैं ऊंचे दाम।

चिथड़े तन पर डाल सेठ भी,
                  चलते हैं सीना तान।
आज चिथड़ा बन गया है देखो,
                  अमीरी की पहचान।

इसे पहन आज हैं लोग, 
                  फैशनेबल कहलाते।
भिखारियों-सा वेश पहन हैं,
                 मन-ही- मन इतराते।

आर्थिक गरीबी की इलाज है, 
                  गरीबों को देना दान।
मानसिक गरीबी लाइलाज है,
                      बात मेरी तू मान।

व्यर्थ ही अपना खून सुखाते,
                   देख वसन बदहाल।
जो जन ऐसे वसन पहनते,
               उनको न कोई मलाल।
             
              सुजाता प्रिय 'सम‌द्धि'
                स्वरचित, मौलिक

Saturday, March 20, 2021

नमन वीरांगना पन्ना धाय



राजभक्तिन तुझसा नहीं कोई,
             हे मां वीरांगना पन्ना धाय।
अपने पुत को बलि चढ़ाकर,
          राजकुंवर को लिया बचाय।
तुम पद्मिनियों से भी बढ़कर,
        जला मरी जो जौहर-ज्वाला।
मीरा से भी तू बढ़कर हो,
    भक्ति में पी गई विष का प्याला।
षड्यंत्रों से घिरा हुआ था,
           राजकिला चितौड़ गढ़ का‌।
अभी बालक था भावी राजा,
            उदय सिंह चितौड़गढ़ का।
पिता का हत्यारा चचेरा चाचा,
           उसे मार गिराने को उद्धत।
राज माता ने पन्ना धाय से,
              बोल उठी हों नतमस्तक।
इसे बचाना तुम हे पन्ना,
               धाय नहीं तुम माता हो।
इसको अपना दूध पिलाया,
                इसके जीवन दाता हो।
विक्रमादित्य का वंश मिटाने,
            आया वनवीर उसे मारने।
पन्ना उदय की हत्या को,
                   सोंच रही थी टालने।
झूठे पत्तलों की टोकरी में,
     रख भगा दिया सेवक के साथ।
पुत्र चंदन को सुला पलंग पर,
              मुंह दिया चादर से ढाप।
धोखे में वनवीर ने उसके,
         टुकड़े -टुकड़े कर मार दिया।
राज पता न चले वनवीर को,
              पन्ना ने आंसू टाल दिया।
मृत बेटे का मस्तक चुमकर,
           कुंवर को बचाने दौड़ पड़ी।
कर्तव्य परायण देवी तूने,
         लाश भी बेटे की छोड़ चली।
किस तरह पत्थर किया कलेजा,
               बलि दे अपने लाल को।
पुत्र शोणित से सींच बचाया,
                  राजवंश के भाल को।
हे वीरांगना मां भारत की,
                 तुमको बारम्बार नमन।
स्वामी भक्ति पर बलि चढ़ाई,
              तुझे हृदय से अभिनंदन।

                    स्वरचित, मौलिक
                  सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
                     रांची, झारखण्ड

Friday, March 19, 2021

घर में होली

देख भाभी का सुंदर मुखड़ा,गोरे-गोरे गाल।
 मैं और दीदी मिलकर आई,लगाने उन्हें गुलाल।
जोगीरा सा रा रा रा रा

गुलाल लगाने जीजा जी भी, दौड़े-दौड़े आए।
गुलाल समझ धनिये का चूरा जाकर उन्हें लगाए।
जोगीरा सा रा रा रा रा

हमें लगाने मंझली भाभी,मग में घोली रंग।
रंग उठाकर छोटका भैया, रंग गये उनके अंग।
जोगीरा सा रा रा रा रा

पांव दबा भैया की शाली,आई चुपके-चुपके।
मुंह में माटी पोती दीदी,खड़ी थी पीछे छुपके।
जोगीरा सा रा रा रा रा

बहाने से मंझले जीजा बोले, हुआ हमें जुकाम।
सुखा पोटीन लगाकर हमने, मुखड़ा रंगा तमाम।
जोगीरा सा रा रा रा रा

बाल्टी में मुहल्ले के भैया,आए लेकर कीचड़।
उढ़ेल दिया जीजा के सिर पर,बन जीजा गीदड़।
जोगीरा सा रा रा रा रा

कीचड़ सुखाने भाभी ने, दी उनपर रूई डाल।
अब जीजू का रूप देख हम, हंस-हंस हुए बेहाल।
जोगीरा सा रा रा रा रा
               सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Wednesday, March 17, 2021

पत्र-पेटी



एक जमाना वो था जब हम,
        पत्र निकालते थे बोरे भर।
एक जमाना यह है देखो,
    पत्र निकलते हैं गिन-चुनकर।
पोस्ट कार्ड, अंतर्देशीय-लिफाफे से,
      भरी रहती थी यह पत्र-पेटी।
लेकिन आज नहीं मिलती है,
            इस पेंटी में कोई चिट्ठी।
नहीं अब कोई पत्र लिखता,
नहीं किसी को पाती की जरूरत।
हर घड़ी काल और मैसेज होता,
        नहीं पाती पढ़ने की फुर्सत।
फिर भी आज बनी हुई है,
    कुछ जगह उपयोगिता हमारी।
क्योंकि मोबाइल निपटा नहीं है,
        दफ्तर की कुछ बातें प्यारी।
आज भी हम संदेश-वाहक हैं।
मोबाइल जगह मेरी ले नहीं सकता।
आज भी लोगों को होती है,
           पाती पढ़ने  की आतुरता।
सरकारी दफ्तर में बनी हुई है,
  संदेश-प्रेषण में डाक की महत्ता ‌।
आज भी सभी जन को होती है,
            पत्र पाने की व्याकुलता।
         सुजाता प्रिय 'समृ‌द्धि'

यशोधरा का संदेश



सुन कबू्तर, जा तू उड़कर,
              दे संदेशा साजन को।
मन है व्याकूल, विरह में आकुल,
        चैन न चंचल चितवन को।

मन में मेरे, है चिंता घेरे,
             कैसे इसको समझाऊं।
ना यह माने,ना कुछ जाने,
          किन बातों को बतलाऊं।

रात अंधेरी,घटा घनेरी,
             सोते हमको छोड़ गए।
संग में लेटा, राहुल बेटा,
          उससे भी मुख मोड़ गए।

जागी रैना,भींगे नयना,
           हमें छोड़ क्यों मीत गए।
कहना राजा, वापस आजा,
          बहुत दिवस हैं बीत गए।

पाएंगे सिद्धि, बहुत प्रसिद्धि,
             मन में है विश्वास बहुत।
वैभव के सुख, से हो विमुख,
             इससे मन उदास बहुत।

कहना साजन, आजा आंगन,।   
                 बिन तेरे घर सूना है।
बीता सावन,मन का भावन,
                 बीता एक महीना है।

अगर लौटकर, लाया ना घर,
                तो मैं तुझको तेजूंगी।
देख यहां पर,बैठा है अपर,
             इसको फिर मैं भेजूंगी।

         सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
            स्वरचित, मौलिक

Tuesday, March 16, 2021

अधूरा प्रेम



सुनाऊं क्या तुझे किस्सा,
         जो अबतक ही अधूरा है।
किया जो प्रेम है तुझसे, 
           हुआ अबतक न पूरा है।
बसाया है तुझे दिल में, 
         बनाकर फूल तुम समझो।
सदा तुम याद रहते हो,
         सकी न भूल तुम समझो।
प्रेम के शीर्ष पर मैंने, 
              अनोखी डोर बांधी है।
उसी डोरी से अपने दिल, 
              के चारों ओर बांधी है।
अपने प्रेम की मोती, 
               पिरोकर प्रीत धागे में।
बनाकर हार मैं उसको,
                  रख दी तेरे आगे में।
प्रेम पूरा नहीं होता, 
        घड़ी-पल, दिन-महीने तक।
प्रेम तो दिल में होता है,
            मीत से अपने जीने तक‌।
तब-तक यह अधूरा है,
           सनम यह बात तुम मानो।
यह पूरा नहीं होता,
              पते की बात तुम जानो।
चलेगी जब तलक सांसें,
                  रहेगा प्रेम यह तुझसे।
रहुंगी जब तलक जिंदा, 
             जुदा ना होना तुम मुझसे।
मेरे सांसों की डोरी मैं,
                  बंधी है प्रेम की डोरी।
जब तक जान है तन में, 
                 अधूरी प्रीत यह कोरी।

                सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
                   रांची, झारखण्ड
                   स्वरचित, मौलिक

Saturday, March 13, 2021

दावत में पिटाई (हास्य रस )





फुक्कन थुक्कन दोनों भाई,
खाने में थे माहिर।
दूर-दूर तक दावत होती,
दोनों रहते हाजिर।

पहन लखनवी धोती-कुरता,
बांध सिर पर साफा।
एक हाथ में रूमाल पकड़ कर,
दूजे में खाली लिफाफा।

कोई उनसे अगर पूछता ,
भाई आप किधर से हैं।
कभी वे कहते कन्या पक्ष से,
कभी कहते हम वर से हैं।

इस तरह रोज चटकीले व्यंजन,
खूब छककर खाते।
बिना मेहनत के खा-पीकर वे,
सुख से दिन बिताते।

एक दावत में लोगों ने पूछा-
भाई जी आप कहां से आये।
माफ़ करेंगे आप कौन हैं,
पहचान नहीं हम पाये।

फुक्कन बोले कन्या पक्ष से हूं,
थुक्कन बोले बारात से आया।
यह सुनते ही दावत वालों ने,
झन्नाटेदार चपत लगाया।

यहां श्राद्ध का भोज चल रहा,
और तुम आए हो बारात।
कन्या के भाई और बाराती,
खा रहे हो बैठकर साथ।

सिर पर पैर रख दोनो भाई,
भागे जान बचाकर।
कभी भूलकर न दावत में खाते,
बुलाने पर भी जाकर।

     सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
       स्वरचित, मौलिक

आस्था (लघुकथा )

जय मां शारदे 🙏🙏


मंझली मां के लिए मीठा कुआं से पानी लाने जाना है। सुबह पता चला कि आज उनका व्रत है।घर के खारे कुएं का पानी कोई व्रत में नहीं पीता। मंझली मां ने मिश्री हुमाध के लिए पैसे दिए हैं।किसी के घेरवारी से फूल भी तोड़ कर लाना है।पूजा का बर्तन धोकर तो पहले ही छप्पर पर रख दिए।सारी बातें सोचते हुए गौरव हाथ में ढेला लिए पूजा दुकान पहुंच गया।
दुकानदार ने पूछा-मिश्री -हुमाध चाहिए?
उसने चकित हो पूछा-आपको कैसे पता?
अरे हाथ में ढेला है तो समझ नहीं आया हमें कि तुम्हारे घर आज ढेला बाबा की पूजा है?
यह ढेला बाबा कौन से देवता हैं? सोचता हुआं वह हुमाध-मिश्री लाकर मंझली मां को दे दिया।
  आज वह पता लगाकर ही रहेगा कि मंझली मां व्रत करती हैं तो मंदिर न जाकर पहाड़ी की ओर क्यों जाती हैं।
जब वह उनके पीछे-पीछे पहाड़ी के निकट पहुंचा तो देखा मंझली मां एक वट वृक्ष के नीचे पत्थर पर रखे एक ढेले पर फूल प्रसाद चढ़ा रही हैं। वुक्ष की टहनियों में धागे और कपड़े से बांध कर लटकाए ढेलों को देख वह दंग रह गया।
आखिर वह प्रकट हो कर मंझली मां से पूछा ही लिया कि ये कौन-से देवता हैं?
मंझली मां ने उसके सिर पटकबा कर दण्डवत प्रणाम करवाया और प्रसाद हाथ में देते हुए बताया कि यह ढेला बाबा हैं। इनके आगे से कोई ढेला उठाकर मन्नत मांगा जाता है कि मेरा अमुक काम हो जाएगा तो इस ढेले के वजन से मिश्री का प्रसाद चढ़ाएंगे।
तुम्हारे छोटका चाचा की नौकरी के लिए हम भी मन्नत मांगने थे। और अपने पहचान के कपड़े में बांध कर सूता से पेड़ में लटका दिए। पांच महीने में ढेला बाबा तुम्हारे चाचा को नौकरी लगा दिए तो हम उपवास रखकर प्रसाद चढ़ा दिए।
     मन-ही-मन गौरव ढेला बाबा को फिर से प्रणाम किया ‌।वह सोचा कितनी बड़ी आस्था है।लोग भगवान को मंदिर -मंदिर ढूंढे फिरते हैं। तिरथों और नामों में खोजते हैं और हमारे गांव के लोग एक ढेले में ईश्वर के स्वरूप को पाते हैं।जय ढेला बाबा।
                  सुजाता प्रिय समृद्धि
                   स्वरचित, मौलिक

Friday, March 12, 2021

दुश्मन ने ललकारा है


हथियार उठाकर बढ़ जा वीरों,
दुशमन ने ललकारा है।
गीदड़दिली हमला कर उसने,
जावाँज शेरों को मारा है।।
अपनी सीमा को शत्रुदल,
जब कभी करता हो पार।
पुरुष सिंह तुम काल बनकर,
करता जा दुशमन पर वार।
चौवालिस गुणा चौवालिस मारो,
यही हमारा नारा है।
गरज रहा है चहु दिशा से,
भारत का विजयी हुँकार,
मातृभूमि की रक्षा खातिर।
करने को जीवन न्यौछार।
रुके नहीं अभियान हमारा,
यह संकल्प हमारा है।
पाकिस्तानी भूले से भी,
कदम रखे कश्मीर में।
तीर उठाकर उसको मारो,
या जकड़ो जंजीर मे।
आँख उठाकर इसे न देखे,
यह कशमीर हमारा है।

सुजाता प्रिय,राँची🙏

Tuesday, March 9, 2021

राधा संग कृष्ण मुरारी



राधा संग कृष्ण-मुरारी, 
                  बैठे हैं मधुवन में।
यह दृश्य बड़ा मन हारी,
               लगता है नयनन में।

ऋतुराज ने ली अंगड़ाई,
           प्रीत-मिलन रुत आई।
दिशा-दिशा वासंती छाई,
          चल रहा पवन पुरवाई।
झूमें फूल हैं क्यारी,
                भौंरों के गुंजन में।
राधा संग कृष्ण-मुरारी,
                 बैठे हैं मधुवन में।

वंशी की धुन भूल गए वे,
          बैठे सुध-बुद्ध  खोकर।
मोर छनन-छन नाच रहा है,
            मन मतवाला होकर।
खड़ी है गैया प्यारी, 
            मगन हो चितवन में।
राधा संग कृष्ण-मुरारी,
                बैठे हैं मधुवन में।

वो रे कन्हैया,रास रचैया,
         क्यों ना मुरली बजाते।
छेड़ तू अपनी तान मनोहर,
             क्यों ना हमें बुलाते।
मैं यहां खड़ी बनवारी,
                 अपने आंगन में।
राधा संग कृष्ण-मुरारी,
                   बैठे मधुवन में।

            सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
              स्वरचित, मौलिक

Sunday, March 7, 2021

नारी चेतना (महिला दिवस पर सभी नारियों को समर्पित)







आगत युग में नारियों को 
अपना रूप बदलना होगा।
अपने सुंदर मुखड़े पर ,
अलग मुखौटा रखना होगा।

जगह-जगह पर गिद्ध खड़े हैं,
नयन उठाकर देखो।
नोच -खसोट खाने को आतुर,
जिधर भी नजरें फेंको।
उनको मार भगाने हमको,
तुरंत सम्हालना होगा।

बहुत बनी हम सील-अहिल्या,
बनी द्रौपदी -सीता।
बहुत बनीं हम सुंदर-सुकोमल,
सुहृदया-सुपुनीता।
सती अनुसुइया के पथ पर,
अब हमको चलना होगा।

इस मुखड़े पर दृढ़ता के ,
छलकाने होंगे पानी।
हम वीरांगना बनकर रच दें,
वीरता की अलग कहानी।
रणचंडी बन असुरों को,
तुरंत कुचलना होगा।
 
  सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
      रांची, झारखण्ड
    स्वरचित, मौलिक

बचपन की होली



          रंगीन स्मरण

एक बार छुटपन में मैं होली  में नानीघर में थी। क्योंकि मेरे मामाजी की शादी कुछ ही दिन पहले हुई। नई नवेली मामी घर में थी । इसलिए नानी ने हमलोग को होली में रोक लिया था। हम बच्चों के लिए मस्ती का दिन था। मौसेरी, ममेरी बहनों तथा नयी मामी की छोटी बहन जिन्हें मामी ने रोक लिया था।वह भी हमारी ही उम्र की थी ,के साथ जमकर खेलना और घूमना-फिरना हो रहा था। होली के दो-चार दिन पहले से हमलोग होली खेल रहे थे। होली के दिन तो खुब रंग उढ़ेली एक दूसरे पर।
सामने बाले मामा के दरवाजे पर छोटा-सा हौज था जिसमें थोड़ा सा पानी  था।वो मामा ने मामी की बहन से कहा इसी पानी में नहा लिजिए। लेकिन शरारत में उन्होंने चुपके से उसमें रंग डाल दिया ‌। जब वह नहाई तो पूरी रंगीन हो गई थी।उनका रंग हमें भी माया और मैं और मेरी अन्य बहनें आव देखा ,न ताव झट-झट हौज मैं कुद-कुदकर डुबकी लगा ली।अब   हमारे फ्राक सहित हम सभी हरी-हरी दिख रही थीं।
घर से निकलते हुए मेरे मामा की नजर जब अपनी शाली पर पड़ी तो वे खूब मजे ले लेकर हंसे। और जब हमारी मां-मौसी की नजरें हम सभी पर पड़ी तो क्षणिक गुस्से से ज्यादा हंस-हंसकर लोट-पोट हो गई। फिर पूरे मुहल्ले के लिए हम हंसी के पात्र हो गये। रंग इतना चोखा था कि हमारा रंग उगरने में पूरा सप्ताह लग गया। मामा की रंगीन शाली तो पहले चली गई।  एक-दो दिन में हमारा रंग कुछ फीका पड़ा तो हम भी चल दिए हमारे घर लौटने पर सभी जगह बस हमारी ही परिचर्चा होती। सभी खूब हंसते और उस रंगीन स्मरण में भी जी भरकर हंसती हूं ‌❤️❤️😀😀🙏🙏

                सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Friday, March 5, 2021

ओस की बूंद



ओ अनोखी बूंद चमकती ओस की,
पौधे को पियुष पिलाती रात को।
फुहार बनकर हो बरसती फूल पर,
क्यों नहाती पेड़ के हर पात को।

तुम टपककर मोतियों का रूप ले,
दूव कणियों में लरिया बनाती हो।
निकलती सुबह की सुनहरी धूप जब,
कांच-टुकड़े सम झिलमिलाती हो।

चमचमाती तारकों- सी घास पर,
सप्त ऋषियों की तरह घेरा बनाती।
जगमगाती जुगनुओं-सी डाल पर,
धूप से घबरा सदा ही भाग जाती।

दीप-सी जलती सुबह मुंडेर पर,
बड़े सबेरे तुम दीवाली है मनाती।
तेल बनकर हो ढलकती दीप में,
अदृश्य बाती डाल इसमें हो जलाती।

क्या किसी के अस्क की तुम बुंद हो,
गिरती द्रवित होकर हृदय की वेदना।
या बुझाती तुम किसी की प्यास हो,
या जगाती सुषुप्त मन की चेतना।

जी चाहता,उंगलियों से तुझको बीन लूं,
पर किसी के हाथ तुम आती नहीं।
जल के धरती, क्यों तू नन्हा रूप यह,
क्यों तुम अपना राज बतलाती नहीं।

            सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
               रांची, झारखण्ड
              स्वरचित, मौलिक

Wednesday, March 3, 2021

कलम



बड़े काम की चीज कलम है,
मत इसका अपमान करो।
महाशक्ति प्रदान है करती,
जननी-सा सम्मान करो।

इसकी महिमा हर युग में थी,
कोई काल अपवाद नहीं।
इसकी गरिमा सदा रही है,
जन्म हुआ कब याद नहीं।
हर युग का इतिहास है रचती,
सदा ही इसपर शान करो।
महाशक्ति प्रदान..........

जग भर में जितने सस्त्र हैं,
सभी से यह ही है वरिष्ठ।
तलवार-कृपाण,छूरी-फरसा,
हर  धारदारों से बलिष्ठ।
बहुत बड़ा हथियार हमारा,
सदा इसपर अभिमान करो।
महाशक्ति प्रदान..............

ज्ञान का भण्डारण करती,
मषी अपना यह बहाकर।
सींचकर कागज की क्यारी,
कागज को यह सदा नहाकर।
सुंदर रचना इससे हम रचते,
हमसब इसका मान करो
महाशक्ति प्रदान.........
            सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
              स्वरचित, मौलिक

Monday, March 1, 2021

होली गीत


 
 
चल आज सखी खेलें होली, मिल-जुलकर।
सब मिलकर आज खेलें होली मिल-जुलकर।

सद्भावों के पहनकर गहने।
प्रेम भाव का चुनर पहने।
मिल्लत की पहनकर चोली, मिल-जुलकर।
मिल-जुलकर आज..........

प्यार के रंग से भर पिचकारी।
सराबोर कर दुनिया सारी।
एकरूपता की बना टोली, मिल-जुलकर।
मिल-जुलकर आज..............

सुविचारों के गुलाल लगाएं।
सद्व्यवहार से गांव सजाएं।
बोल मधुर-मीठी बोली, मिल-जुलकर।
मिल-जुलकर आज...........

प्रीत से हो यह जग रंगीला।
भाव सुनहरा , नीला-पीला।
खुशियों से भर लें झोली, मिल-जुलकर।
मिल-जुलकर आज............

        सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
          स्वरचित, मौलिक

पेटियां के पेड़ा ( लघुकथा मगही भाषा )



पांव लगियों चाचा!
खुश रह। तू सुदिनमा रे ?कने जा हीं भोरे- भोरे।
बघोर जा हिऐ । भौजी के लाबे लगी।
आज्हे घुरम्हीं कि?
 हां चचा!
ठिके है ।पुतुलबा के मैया के नैहरा से लेके हमहुं घुरबै संझिया तक।
सिउर से ने चचा।
हां रे! 
ठीके है चचा। एजै पेठिया भिजुन भेटैबै। फिनु सभे साथे चल अइबै।
अरे हां ठीके याद करैल्हीं ‌।पुतुलबा कहलकै ह पेठिया से पेड़ा लाबेले।
घुरे बेरी याद करैंहें ले लेबै।
सांझ के रामदीन चाचा चाची के लेके आउर सुदिनमा अपन भौजी के लेके डुमरी पेठिया पास पहुंचलथी तो दुनु जनानी के पीपर गाछ तर छोड़के पेड़ा लाबेले गेलथिन।
पेड़ा बड़ी महंगा रहै।तबो चाचा सेर भर पेड़ा लेलथिन तो सुदिनमों पांव भर लें लेलकै।
चाचा के सम्मान में सुदिनमा उनकर खोमचा लेबे लगलै। लेकिन चाचा के नागवार भुझैले।ऐसे नै सुदिनमा के हाथ में खोमचा देखके सब सोचै कि सुदिनमा पेड़ा किनलकै आउ रामदीन चाचा नै किनलथिन।
पेड़ा के खोमचा देख चाची के जी ललचाय लगलै । चाचा से कहलथिन थोड़े पेड़बा खिलाहो हमनी के।
चाचा पेड़ा निकलालथिन तो सुदिनमा मन मारके पेड़ा के ठोंगा जेबी में रख लेलकै आउर मुंह घुमा लेलकै काहे कि पाव भर में चार गो तो पेड़बे चढ़लै।
तब चाचा बड़प्पन में उहो दुनु एक गो पेड़ा लेलथिन।पेड़ा खैते देखके पहचान के चार आदमी अउर जुट गेलै।
लाजे चाचा उनको पेड़ा खिलैलथिन।
चाची रास्ता में समझैलथिन खोमचवा के झोलवा में रख लेहो ‌नै तो जे देखतै से मांगतै।
लेकिन इ बात चाचा के नै जचलै।एतना महंगा पेड़ा ले जैते सभे नै देखतै तो शान कैसे बढ़तै।
राह चलते धनपुरनी चाची भेटैलथिन तो हसके कहलथिन अकेले पेठिया के पेड़ा खा हखो।
इ नै कि एका गो बाल-बुतरु के दूं। चाचा पेड़ा निकाल के देबे लगलथिन तब तक आंगनबाड़ी के बुतरुन सब लुझ गेलै । चाचा केेकरा पेड़ा देथिन केकरा नै। चाचा पेड़ा देले जाथिन।सभे हाथ पसारे जाय।
चाची मने मन पितपिताय के अपन घर चल गेलथिन।
घर तक चाचा शान से खोमचा संभालले जाथिन। के जानै कि खोमचा में एको पेड़ा नै हकै ‌।सभे तो सोचै होतै चाचा सेर भर पेड़ा किनलथिन। घर घुसला पर पुतुलबा माय साथ पेड़ा के खोमचा देख खुश भेलै ।कि जानै खोमचा में एको पेड़ा नै है।
                सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
                  स्वरचित,मोलिक