Thursday, April 30, 2020

धरती के दो तारे टूटे

धरती वाले भयभीत खड़े थे,
उल्का पिण्ड टकराने वाला है।
धरती से वह टकराकर अब,
उथल-पुथल मचाने वाला है।

उल्का तो गुजर गया दूर से,
पर धरती के दो तारे टूटे।
ध्रुवतारा- से जगमग करते,
फिल्मी दुनियाँ के सितारें टूटे

दुनियाँ के रंग मंच पर वे,
अंतिम अभिनय दिखा गए ।
कभी साथ अभिनय करते वे,
अंतिम साँस तक निभा गए।

सारी दुनियाँ को यह दुःख है,
शोक-संतप्त हैं भारत के लोग।
दोनों ने साथ अभिनय किया था,
था कैसा यह  अंतिम संयोग।
       सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Saturday, April 25, 2020

झील किनारे

आज रात इक सपना आया।
पुलकित मेरा मन मुस्काया।

मैं जा बैठी हूँ झील किनारे।
जल में अपना पाँव पसारे।

मुस्कुरा रही है सुनहरी उषा।
लेकर खुशियों की मंजूषा।

झील में है हरियाली छाई।
लग रही थी बड़ी सुखदाई।

पत्ते बिखर-बिखर फैले हैं।
कोमल कमल फूल खिले हैं।

मंद-मंद बह रहा था बयार।
तुझसे मिलने का अभिसार।

हाथ बढ़ाकर फूल को छू ली।
उनींदी आँखों में मैं सब भूली।

सुजाता प्रिय 'समृद्धि,स्वरचित
         

Friday, April 24, 2020

बेचारा चूल्हा

चूल्हे में आग जलता है और चुल्हे को जलाता है।
पर, बेचारा चूल्हा कुछ भी तो नहीं कह पाता है।

क्योंकि उसे जलना है बस भोजन पकाने के लिए।
और उसे तपना है सभी चीजों को तपाने के लिए।

जब चाहो रात-बिरात सुबह-शाम और दोपहर।
रहता है तैयार सदा बन- ठन और सज - सँवर।

अच्छी-अच्छी और चटपटी चीजें बनाने के लिए।
स्वादिष्ट भोजन बनबाकर हमें खिलाने के लिए।

बेचारा खाता है क्या?गोबर से बनी हुई रोटियाँ।
और साथ में सुखी हुई लकड़ियों की सब्जियाँ।

कोयले की बर्फियाँ और लड्डू उसे बहुत भाता है।
भूसे की भुजिया,पत्तों के पराठे भी पसंद आता है।

किसी जमाने में वह पीता था किरोसिन का शर्बत।
और खाना बनाने के लिए जलता था भक - भक।

धीरे-धीरे उसका रंग-रूप और स्वरूप बदलने लगा।
मिट्टी और लोहे के बाद स्टील का बन चमकने लगा।

अब तो बेचारा चूल्हा जिंदा है तो बस गैस के सहारे।
उसकेे भोजन के खत्म होते जा रहे  हैं साधन सारे।

अब गोबर की रोटियाँ कहाँ मिलेगी गोपालन होता नहीं।
पत्तों के पराठे लकड़ियों की सब्जीवृक्षारोपन होता नहीं।

अब तो खादान में देखिए जाकर कोयले भी घट रहे हैं।
हरे-भरे जंगल अब गायब होकर मरुभूमि में पट रहे हैं।
                    सुजाता प्रिय 'समृद्धि' , स्वरचित
                             २५/०४/२०

Thursday, April 23, 2020

बड़ों का फर्ज

एक गाय जब गौशाले से निकलकर घास चरने जाती तो किसी-किसी घर के दरवाजे पर उसे एक-एक रोटी मिल जाती।उसे वह बहुत खुश होकर खाती।एक दिन जब उसे पहली रोटी मिली और वह उसे खाने के लिए बढ़ी,तभी एक कुत्ता रोटी लेने के लिए झपटा।गाय रोटी छोड़ कर आगे बढ़ गई।
दूसरे दरवाजे पर भी उसे रोटी मिली । उस समय भी एक बिल्ली सहमती हुई आई और रोटी लेने के लिए बढ़ी। गाय ने उस रोटी को भी छोड़ दिया।
अगले दरवाजे पर भी उसे रोटी मिली ।एक मुर्गा दौड़ता हुआ लपका।गाय ने उस रोटी को भी छोड़ दिया।
कुछ दूर चलने के पश्चात फिर किसी ने उसे रोटी दी।एक कौआ भूख से व्याकुल हो उसे उठाना चाहा।गाय ने उस रोटी को भी छोड़ दिया।
उसकी इस क्रिया को उसके निकट घास चरता हुआ एक साँढ़ बड़ी तन्मयता से देख रहा था।उसने गाय से पूछा-तुमको इतनी रोटियाँ खाने के लिए मिलती हैं जिसे खाकर तम्हारा पेट भर जाता।पर, तुम उन प्राणियों के आगे बढ़ते ही उनके लिए रोटियाँ छोड़ दी।क्या तुम्हें रोटियाँ अच्छी नहीं लगती।
गाय बोली- मुझे रोटियाँ अच्छी तो बहुत लगती हैं।लेकिन उतनी रोटियों से मेरा पेट नहीं भरता।अगर मैं उनके लिए रोटियाँ छोड़ दी तो उनकी भूख तो मिटी।मैं तो अपना पेट घास खाकर भी भर लूँगी।लेकिन कुछ जीव एेसे हैं जो घास नहीं खा सकते।उनके लिए रोटियाँ उपयोगी थीं।फिर मै उन सभी से बड़ी हूँ।इसलिए, मेरा फर्ज है कि मैं अपने से छोटों का ख्याल रखूँ।
साँढ़ ने उसे सम्मान से देखते हुए कहा-तुम्हारी इन्हीं ममतापूर्ण गुणों के कारण तो सभी लोग तुम्हें माँ कहते हैं।सचमुच तू बड़ी महान है।

       सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
          स्वरचित मौलिक
          २४/०४/२०

Tuesday, April 21, 2020

विश्व धरती दिवस पर माँ धरती को समर्पित

धन्य माँ धरती

धन्य-हो तू हे माँ धरित्री,
    हमको तूने जन्म दिया।
        गोद बैठाकर पाला-पोसा,
            और खाने को अन्न दिया।

नदी-तालाब,झील-झरनों से,
    तूने पीने को जल दिया।
        तन मे शक्ति भर जाने को,
            साग-सब्जी और फल दिया।

गिरी-कंदराओं,पेड़-गुफा में,
    जीवों को आवास दिया।
        वायु से शुद्ध संजीवनी दे,
             फूलों से सुवास दिया।

दिन में प्रकाश फैलाने को,
    सूर्य से ले रोशनी दिया।
        काली रात का तम हरने,
            चँदा से ले चाँदनी दिया।

धूरी पर अपनी घूमकर,
    तूने हमको दिन-रात दिया।
        सूरज की परिक्रमा कर,
            त्रृतुओं की सौगात दिया

दुनियाँ के सब जीवों को,
    माँ तू ही पालन करती है।
        हम सबको तू धारण करती,
            नाम तेरा  तभी तो धरती है।

तुम्हें बचाने को माँ धरती।
    हमसब मिल संकल्प करें।
        संरक्षण तुझको देने को,
            तुमको हमसब स्वच्छ करें।

      .         सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
       .           स्वरचित मौलिक
       .              २२/०४/२०२०

Monday, April 20, 2020

गजल


मेरे लिए मन में प्यार पालकर देखो,
एक नजर मुझपर डालकर दैखो।

माना मैं कोई हूर की परी ना हूँ,
तुम अपने रूप को खंगालकर देखो।

किसी बहकावे में कतराओ ना मुझसे,
अपने दिल में मुझे संभालकर देखो।

मैं बुरी लगती हूँ महफिल में अगर,
दिल में मेरा अक्श डालकर देखो।

क्यूँ इतराते हो खुद पे मीत मेरे तुम,
अपने मन में थोड़ा सवाल कर देखो।

आज तुझसे मेरी यह गुजारिस है कि,
मेरे साथ खुद को भी ढालकर देखो।
      सुजाता प्रिय'समृद्धि'
         स्वरचित मौलिक

Thursday, April 16, 2020

बचा लो भगवन

बड़ा भयंकर रोग है छाया।
सबके मन में भय समाया।

यह कैसी आयी महामारी।
जिससे डरती दुनियाँ सारी।

नागिन से भी यह भयंकर।
बिन देखे सब भागे डरकर।

सब जन थर-थर काँप रहे हैं।
कहाँ तक पहुँची भाँप रहे हैं।

अपने घर में हैं छुपकर बैठे।
मित्र जनों से हम रहते ऐठे।

महीने भर से हैं कैद पड़े हम।
घर में भी भयभीत खड़े हम।

मानव से अब मानव हैं डरते।
नाक-मुँह को ढककर रखते ।

मिलने-जुलने से हैं कतराते।
पास जाने से भी हैं घबराते।

आकर हमें बचा लो भगवन।
भय से मुक्त करा दो भगवन।

            सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
             १४/०४ /२०२०

Tuesday, April 14, 2020

उम्मीद न छोड़ो ( गजल )


अकेले खड़े हो मुझे तुम बुला लो।
मायुस क्यों हो ,जरा मुस्कुरा लो।

रात है काली और अँधेरा घना है,
तम दूर होगा तू दीपक जला लो।

उम्मीद न छोड़ो, मंजिल  मिलेगी,
जो मन में बुने हो सपने सजा लो।

देखो तो कितनी है रंगीन दुनियाँ,
इन रंगों को लेकर उर में समा लो।

रूठा न करना कभी भी किसी से,
रूठे हुए को जरा तुम मना लो।

पराये को अपना बनाना  कला है,
अपनों को अपने दिल में बसालो।

बुराई किसी की तू मन में न लाओ,
अच्छाईयों को भी अपना बना लो।

प्यार सिखाता जो वह गीत गाओ,
झंकार करता  गजल गुनगुना लो ।
           सुजाता प्रिय
           राँची झारखंड

Monday, April 13, 2020

सत्तु के गुण

सुन-सुन, सुन भाई सुन।
    सत्तु के हैं बड़े-बड़े गुण।
        बता रही सबको चुन-चुन।
           बनता है अनाजों को भुन।

  बहुत सरल आहार है यह।
       बना-बनाया तैयार है यह।
          खाने में बड़ा मजेदार है यह।
               भोजन का उपहार है यह।

शरीर में है ठंढक पहुँचाता।
    लू-गर्मी यह से हमें बचाता।
        बीमारियों को दूर भगाता।
 .          स्वस्थ्य-निरोग हमें बनाता।

गुथकर खाते ,घोलकर पीते।
    नमक, चीनी मिलाकर पीते।
        खूब सुहाती सत्तु-भरी रोटी।
   .        अच्छी लगती इसकी लिट्टी।

चने का सत्तु ,जौ का सत्तु।
   बहुत प्रकार के हो तो सत्तु।
       खा लो सत्तु औ पी लो सत्तु।
          आ बहना तुम भी लो सत्तु।
     
                सुजाता प्रिय (स्वरचित)
                      १४/०४/२०२०

बढ़ता जा (प्रेरणा गीत)

बढ़ता जा तू पग- पग प्रतिपल                   
जीवन भर बढ़ता जा।
मंजिल की गर राह न सूझे,
पंथ नया गढ़ता जा।

जीवन को तू करले रोशन।
खुशियोँ से तू भरले तन- मन।
इस दुनियाँ में रंग बहुत है ,
हर रंगों से रंग ले जीवन  ।
रंग लगाकर, प्यार जमाकर ,
कंचन-से मढ़ता जा।
बढ़ता जा.....

मारूत से तू बढ़ना सीखो ।
जल-धारा से बहना सीखो।
इस जीवन की राह बड़ी है ,
चंदा से तू चलना सीखो ।
अग्नि- धूम से शिक्षा लेकर ,
पर्वत पर चढ़ता जा ।
बढ़ता जा............

सुजाता प्रिय ,  स्वरचित, मौलिक

Thursday, April 9, 2020

हैवान

वह मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता।उसकी निगाहें निरंतर मेरा पीछा करती रहती है।मानसी खीज भरे लहजे में बोलते हुए रागिनी के पास बैठ गई।
   तुम मयंक की बात कर रही हो ? रागिनी ने पूछा।
हाँ और किसकी ? पहले तो सिर्फ कॉलेज में दिखता था।पर,अब तो मेरे मुहल्ले में भी दिखने लगा है। लगता है मेरे मुहल्ले में ही घर ले रखा है।घर से कभी भी बाहर निकलती हूँ, कहीं-न-कहीं वह मुझे घूरता हुआ नजर आता है।
दिखने में भी अजीव बहसी- हैवान-सा लगता है।रागिनी ने नफरत से मुँह बनाते हुए कहा।
हाँ ईश्वर ने उसे सूरत तो बहुत खराब नहीं दिया है ,पर उसके चेहरे के भाव इतने बुरे हैं कि वह दरिंदा -सा लगता है।
शैतान का नाम लो और शैतान हाजिर।रागिनी ने फुसफुसाते हुए आखों के इशारे से मानसी को उस ओर  दिखाया जिधर मयंक अपने दोस्तों के साथ अपनी लाल-लाल आँखों से उसे घूरता हुआ उस ओर चला आ रहा था।
चलो हमलोग उस पेड़ के नीचे बैठते हैं। उधर राजेश अपने साथियों के साथ बैठा है।मानसी  खुश होतीे हुई बोली और उठकर चल पड़ी।
हाँ ठीक कहती हो ।कम-से-कम उन दरिंदों से तो सुरक्षित रहेंगे।दोनो कॉलेज के पार्क में एक पेड़ के नीचे बैठ गई ।
थोड़ी देर बाद राजेश भी दोस्तों के साथ वहाँ पहुँच गया।सभी में बात-चीत होने लगी। उन लड़कों की चीकनी- चुपड़ी और रसीली बातों ने उनका मन मोह लिया। शुन्यकाल  समाप्ति की ओर था।राजेश के एक दोस्त ने प्रस्ताव रखा कि अगला क्लास हम नहीं करें। थोड़ी देर यहीं बैठकर  बात-चीत करेंगे।क्लास में पढ़ाया गया नोट्स किसी अन्य दोस्त से ले लिया जाएगा।
मानसी और रागिनी का भी मन बहल रहा था। इसलिए उनलोग भी ना नहीं कह सकीं । यहाँ मयंक का खौफ भी नहीं था।कुछ देर में उन्हें छोड़कर सभी छात्र क्लास में चले गए। पार्क में अब शांति और सन्नाटा छाया हुआ था।
रागिनी-मानसी भी बातों में मशगूल थी।
अचानक एक लड़के ने मानसी के बाजू में बैठते हुए कहा- यार आज मुड बड़ा रंगीन है।चलो कुछ मजा हो  जाए ।मानसी सहमकर चीख उठी। एक लड़के ने पीछे से उसके मुँह पर हथेली रखते हुए कहा-जरा भी मुँह से आवाज निकाली तो अंजाम बहुत बुरा होगा। दोनों सहेलियों की घींघी बंध गईं।उन्होंने सहायता के लिए राजेश की ओर देखा। उसने मुस्कुराते हुए  कहा- हमारी बात मान जा। हमलोग थोड़े न किसी से कहने जा रहे हैं।
अब मानसी और रागिनी को समझ में आ गया कि जिन्हें वे भला समझ रहीं थीं वे कितने बड़े शैतान हैं।वे वहाँ से भागना चाहीं पर उन्होंने उन्हें रोकते हुए कहा- जरा भी ना-नुकुर की  तो गोलियों से छलनी कर दी जाओगी।वे उन्हें झाड़ियों की ओर खींचने लगे।विरोध करने पर  पीटते चले जाते।
अब उनके पास भगवान को याद करने के अलावा कोई चारा नहीं था।
तभी अचानक कुछ लड़के दौड़ते हुए उनकी ओर आए और राजेश तथा अन्य लड़कों पर कहर बनकर टूट पड़े। उन्हें पीटते हुए दोनों को उनकी चंगुल से छुड़ाए।
दोनों दल में जमकर मार- पीट एवं हाथा-पाई हुई।किसी ने पुलिस को फोन कर दिया।पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लियाऔर सभी ने बचाने वाले लड़के को शाबाशी दी।
मानसी ने देखा उन्हें बचाने वाले लड़के कोई और नहीं मयंक और उसके साथी थे। वह अजीव उलझन में पड़ गईं।जिसे वह वहसी हैवान समझती थीं,वह उनका रखवाला बना और जिसपर पूरा विश्वास करती थी वह बहसी और दरिंदा निकला।
मानसी ने रुंधे गले से कहा-मैं तुम्हारा  कर्ज जीवन भर नहीं चुका सकती मयंक।
लेकिन मैं तो कर्ज चुकाता रहुँगा बहन ! 
मानसी उसकी ओर देखने लगी।
मयंक ने कहा- अब से पहले मैं दूसरे शहर में रहता था।जहाँ इसी प्रकार मेरी बहन की इज्जत लूटी गई ।साक्ष्य छुपाने के लिए दरिंदों ने मेरी बहन को जलाकर मार डाला।तब से मैने यह संकल्प लिया कि यथासंभव मैं हर नारियों की इज्जत लुटने से बचाउँगा।इन बहसियों की शिकार हर नारी में मुझे अपनी बहन नजर आती है।और मैं उसकी रक्षा करने के लिए दौड़ पड़ता हूँ।मैं जब से यहाँ आया हूँ राजेश और उसके दोस्तों की नजरों में तुम्हारे लिए बुरे भाव देखे।इसलिए मैं हमेशा तुम्हारी रक्षा के लिए तुम्हारे इर्द-गिर्द घूमता रहा।
मानसी सोंच रही थी- कितना दर्द छिपा है उसके दिल में और वह उसे हैवान समझती रही ।सचमुच किसी के रूप-रंग से किसी के मन के भावों का आकलन नहीं किया जा सकता कि वह हैवान है  या भगवान।
                       स्वरचित
                    सुजाता प्रिय
                १० .०४.२०२०

Wednesday, April 8, 2020

भक्त हनुमान को मेरा नमन है

चैत्र पूर्णिमा को जन्म लिए जो,
वीर हनुमान को मेरा नमन है।

शंकर सुवन केसरीजी के नंदन,
प्रतापी हनुमान को मेरा नमन है।

अंजनी के लाल पवन के लालन,
पुत्र हनुमान को मेरा नमन है।

जिनके हृदय में बसे राम-सीता,
सुहृदयी हनुमान को मेरा नमन है।

राम के चरणों में जो हैं सुशोभित,
भक्त हनुमान को मेरा नमन है।

जामवंत-सुग्रीव के संग में रहते,
मित्र हनुमान को मेरा नमन है।

लंका पहुँचकर सिया-सुधी लाए,
दूत हनुमान को मेरा नमन है।

रावण से कुपित हो,लंका जलाए,
गुणी  हनुमान को मेरा नमन है।

लक्ष्मण को जिलाने पर्वत लेआए,
महावीर हनुमान को मेरा नमन है।

भक्तों के बिगड़ी जो काम बनाते,
संकटमोचन हनुमान को मेरा नमन है।
                     सुजाता प्रिय
                     ०८ .०४.२०२०

Tuesday, April 7, 2020

हँसना नहीं जी


मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया।
बेफिक्र दिन-रात बिताता चला गया।

पहनने को कपड़े नहीं,तो कोई गम नहीं।
मुझे कोई गम नहीं,मुझे कोई गम नही।
मै बोरियों की शर्ट बनाती चला गया।

पैसे नहीं हैं जेब में तो कोई गम नहीं।
मुझे कोई गम नहीं,मुझे कोई गम नहीं।
मैं दूसरों की जेब उड़ाता चला गया।

पास नहीं है बाइक तो कोई गम नहीं।
मुझे कोई गम नहीं,मुझे कोई गम नहीं।
मैं दूसरे का बाइक चलाता चला गया।

हॉर्न नहीं है बाइक में तो कोई गम नहीं।
मुझे कोई गम नहीं, मुझे कोई गम नहीं।
मैं चम्मच से थाली बजाता चला गया।

दोस्त नहीं हैं पास में तो कोई गम नहीं।
मुझे कोई गम नहीं, मुझे कोई गम नहीं।
मैं मवालियों को दोस्त बनाता चला गया ।

भोजन नहीं है पास में तो कोई गम नहीं।
मुझे कोई गम नहीं, मुझे कोई गम नहीं।
मैं लंगर में लाइन बनाता चला गया।

रहने को घर नहीं है तो कोई गम नहीं।
मुझे कोई गम नहीं, मुझे कोई गम नहीं।
मैं मंदिरों में रात बिताता चला गया।
                  सुजाता प्रिय, राँची
                      ०७.०४.२०२०

Friday, April 3, 2020

बस शब्दों का दंगल है जी

लेना-देना नहीं किसी को,
सब लोग कुशल मंगल है जी।
ना कोई अधिकार का झगड़ा,
बस शब्दों का दंगल है जी।

सब शब्दों के तीर चलाते।
दूजे का दिल घायल कर जाते।
कोई बोलने से जब कतराते।
तो कड़बे शब्द बोल उकसाते।
शब्दों को सुन ऐसा लगता,
कटुक्तियों का तरू जंगल है जी।
ना कोई अधिकार का झगड़ा,
बस शब्दों का दंगल है जी।

नित्य शब्दों का होता युद्ध।
शब्द -बाण चलाते सभी बेशुद्ध।
हैं पढे़-लिखे सब लोग प्रबुद्ध।
फिर क्यों किसी के खड़े विरुद्ध।
एक-दूजे के कटु शब्दों से,
सबका मन अब चंगल है जी।
ना कोई अधिकार का झगड़ा,
बस शब्दों का दंगल है जी।

बोलते शब्दों को तोड़- मरोड़।
तिरछा- कोना-सा देकर मोड़।
स्वयं शब्दों में कुछ देते हैं जोड़।
सभी का लगा हुआ यह होड़।
दूसरे को नीचा दिखलाना,
सबसे बड़ा अमंगल है जी।
ना कोई अधिकार का झगड़ा,
बस शब्दों का दंगल है जी।
                  सुजाता प्रिय
                 ०४.०४.२०२०

Thursday, April 2, 2020

डाल-डाल खिल गया पलाश

आया वसंत लेकर मधुमास।
वन-उवपन खिल गया पलास।

रंग इसका है श्रृंगार भरा।
है लाल-लाल अंगार भरा।
झूण्ड बना खिल जाता है।
पेड़ों पर आग लगाता है।
दहक-दहक करता परिहास।
वन-उवपन खिल गया पलास।

अधखिला-सा डाल-डाल।
आधा काला आधा लाल।
लगता अंगीठी अधसुलगी।
लटक डालियों के फुनगी।
औषधीय गुण भरें है खाश।
डाल-डाल खिल गया पलास।

लगता लाल चोंच के शुक।
इसलिए कहाता है किंशुक।
रंग फाग का लेकर आता है।
पर हाथ न किसी के आता है।
डालियाँ इसकी चूमे आकाश।
डाल-डाल खिल गया पलास।

यह है परसा यह है केसु।
यह-ही रक्तपुष्प यह-ही टेसु।
पत्तों  को यह ढक जाता है।
इसलिए तो ढाक कहाता है।
है बस त्रीपत्रक सुंदर सुवास।
डाल-डाल खिल गया पलास।
                  सुजाता प्रिय

Wednesday, April 1, 2020

अयोध्या नगर को प्रणाम

अयोध्या नगर को प्रणाम,
जहाँ श्रीराम जनमें।
दशरथ जी के घर को प्रणाम,
जहाँ श्रीराम जनमें।

कौसिल्या के लाल
और दशरथ के ललना,
भारत भूमि को प्रणाम,
जहाँ श्रीराम जनमे।

राम जी जनमे
और लक्ष्मण जी जनमें,
जनमें भरत - शत्रुघ्न,
जहाँ श्रीराम जनमें।

पिताजी की आज्ञा
पालन कर राम जी,
गये चौदह बरस वनवास,
जहाँ श्रीराम जनमें।

राम के प्रेम में
सीता और लक्ष्मण
दोनों गए उनके साथ
जहाँ श्रीराम जनमें।

भरतजी अयोध्या में
राज्य चलाये,
सिंहासन पर रख कर खड़ाऊँ,
जहाँ श्रीराम जनमें।

शत्रुघ्न जी भरत के
संग में रहते
भाई थे चारो महान
जहाँ श्रीराम जनमें।

राम लड़ें जब
ऱावण से जाकर,
लक्ष्मण को लगा
शक्ति- वाण,
जहाँ श्रीराम जनमें।

संजीवनी के लिए
पर्वत ले आए,
राम भक्त वीर हनुमान,
जहाँ श्रीराम जनमें।

राम के जैसा
राज्य न मिलता,
ढूंढ लो दुनियाँ जहान
जहाँ श्रीराम जनमें।

अयोध्या नगर
को प्रणाम।
जहाँ श्रीराम जनमें।
दशरथ के घर को प्रणाम,
जहाँ श्रीराम जनमें।

       .      सुजाता प्रिय