Tuesday, November 30, 2021

पिता (हाईकू )



पिता

पिता हमारे
जनक हैं हमको
उनसे प्यार।

परिश्रम से
वे हमें पालते हैं
देते दुलार।

पिता से होता
सुखी हमारा यह
है परिवार।

पिताजी होते
हम बच्चों के सदा
ही हैं आधार।

हर संकट
मेरे दूर भगाते
हैं ललकार।

बरगद की
घनी छांव बनते
हाथ पसार।

अबोध बच्चे
को ठोक-पीटकर
देते आकार।

सुख देने को
हरदम रहते
हैं वे तैयार।

सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Friday, November 26, 2021

झूमर ( मगही भाषा )

झूमर ( मगही भाषा )

पिया हमरा के ले गेल बजरिया जी।
                         बजरिया जी।
मांग टीका गढ़ैलकै हजरिया जी।

टीकबा पहीन हमें गेलियै बजरिया।
सब छोरन के अटके नजरिया जी। नज़रिया जी।
उनका देखके मारबै लतड़िया जी।

टीकबा पहीन हमें गेलियै अंगनमा।
मोर देवर जी मारे नजरिया जी।
                        नजरिया जी।
उनका ठेलके भेजबै अटरिया जी।

टीकबा पहीन हमें गेलियै दुअरिया।
ननदोई जी मारे नजरिया जी।
                      नजरिया जी।
उनका ननदी संग चढैबै पहड़िया जी।

टीका पहीन हमें गेलियै सेजरिया।
मोर सैंया के अटके नजरिया जी।
                          नजरिया जी।
उनका संग लगाएव यारिया जी।
               सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
                 स्वरचित, मौलिक

Monday, November 15, 2021

आप ही को वोट देंगे ,वार्तालाप ( व्यंग्य)

आप ही को वोट देंगे 
वार्तालाप ( व्यंग्य )

अरे,अरे राजमहल चाचा ! प्रणाम जी प्रणाम ! आइए बैठिए।चाय, काफी,ठंढई के साथ कौन-कौन मिठाई मंगवाए ? साथे में हांट- डांग, एग रोल और मुर्ग मुसल्लम तो खैबै करिएगा। गांव के रोड जैसन टुटल पुड़िया तो खाय में कोय हरजा नै है।थोड़े-थोड़े देर में लाके देले जाएंगे।
अरे हां रे बब्बनमा ! उ तो हमें एने  से जा रहे थे।सोचे जरा भतीजा से मिलले जायं।
अरे हां चाचा ! उ हम भुलाइए गये कि चुनाव चल रहा।आपका तो पहिये छाप न है काका ?
आउर का तुम तो जानबे करता है सारा विकास तो पहिये में है।
हां चाचा पांच साल के विकास देख कर हमलोग जितना अघाएं हैं कि दुसर छाप के बटन के दबाबे ले अंगुली पहुंचिए नै सकता है। सारा कस्बा के लोग आप ही को वोट देगा। कारण कि चुनाव जीतने से पहले से भी ज्यादा आप चुनाव जीतने पर रोज विकास के आश्वासन देते हैं। सड़क पुलिया के निर्माण करने के लिए कहे थे।सो आज तक कह रहे। स्वास्थ्य केंद्र खोलने कहे थे, आज तक कह रहे हैं। आंगनबाड़ी और विद्यालय भवन निर्माण करवाने बोले थे, आज तक कह रहे हैं। तालाब-पोखर की सफाई का काम हर साल कहते हैं।सबको बिजली-पानी की व्यवस्था  दिलाने की बात आज तक करते हैं। पंचायत भवन निर्माण कार्य का शुभारंभ करने के लिए हर पंचायत में करते हैं।कोय काम नै छुटा हुआ जिसको करवाने से आप मुंह मोड़ते हैं।तब कहिए आपको छोड़कर वोट आखिर किसके झोली में जाएगा ?
हां बेटा ! ई काम हम कभी नै करते हैं।दूसर पंचायत में सड़क  बनबाया लोग ,पांच साल लगते-लगते सब टूट गया। पंचायत और विद्यालय भवन खड़ा हो गया लेकिन छत आज तक नहीं बना। साफ-सफाई के काम कहियो होता है कहियो नै होता है।एको काम कहो तो कि शुरुआत करके पूरा भी किया।
ओह चाचा ! उ बात तो हम खुदे कह रहे हैं कि उससे अच्छा तो आप हैं कि सबको बहला-फुसलाकर रखें हैं।झुठ-मूठ के दिखावा तो नहीं किए ‌ कहीं बेकार के पैसा तो नहीं बहाए। इसलिए तो आप वोट के पूरा अधिकारी हैं।आपके अतिरिक्त एक भी वोट किसी को पड़ना नहीं चाहिए।हम खुद भी आपको वोट देंगे और आपके कार्यों को याद दिलाकर सबको उत्साहित भी करेंगे।इस बार उहो आश्वासन के जरुरत नहीं है । हम सब अपने मन से आपको वोट देंगे।बाकी तनी पनियों पीके जाते तो अच्छा लगता।वोटबा तो आपको देबे करेंगें।
           सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

मां शारदे

मां शारदे ! मां शारदे!
अज्ञानता से उबार दे।
मां शारदे................
तेरे शरण में हम हैं आयें,
लेकर बहुत विश्वास मां।
तेरे चरण में सिर नवायें,
रखकर हृदय में इस मां।
मेरी मूढ़ता को दूर कर दे,
मन-ज्ञान को तू निखार दे।
मां शारदे!...................
दिल में विराजे तू सदा,
 मन में बसा तेरा रूप है।
हर भाव में,हर बात में,
हर वाणी तेरा स्वरूप है।
मन-वचन को स्वच्छ रखूं,
सुंदर सदा तू विचार दे।
मां शारदे!...................
तेरे धवल वसन-स्वरूप-सा,
अंत:करण मेरा रहे।
हर जीव के खातिर हृदय में,
इंसाफ का डेरा रहे।
हर पुण्य कर्मों को करें हम,
तुम इसे विस्तार दे।
मां शारदे!....................
        सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Sunday, November 14, 2021

सेवा का संकल्प (लघुकथा)



बिस्तर पर पड़े दादा जी का मल-मूत्र साफ कर रहे पिताजी को देख राजीव और संजीव का मन व्यथित हो गया। आखिर राजीव ने बोला ही दिया-क्या पिताजी आप अपने से यह सब करते हैं।एक केयर-टेकर रख लेते।
और क्या-अभी दो महीने पहले ही जब हम इन्हें लाने पटना गये थे तो देखा था चाचाजी इन लोगों के लिए केयर टेकर रख दिया था।जब दादा-दादी को कोई जरुरत होती कौंल कर देते और उनलोग आकर सब साफ़ सफाई कर देते।कुछ पैसे की ही तो बात है। संजीव ने उसकी बात खत्म होते ही कहा।
बात पैसे की नहीं बेटा! स्नेह-प्रेम और कर्त्तव्य की है। तुम्हारे चाचा बिजनेसमैन हैं।उनके पास समय का अभाव था। ‌तुम्हारी चाची भी अक्सर बीमार रहती हैं। ऊपर से घर के सारे काम नौकरों से करवाना। सो उन्होंने केयर-टेकर रख लिया ‌।
पैसे की कमी हमारे पास भी नहीं ।हम भी आदमी रख सकते हैं, इनकी देखभाल के लिए। लेकिन जब इन्हें जरुरत होगी तब तो नहीं आएगा।और जब-तक नहीं आएगा तब-तक इन्हें मल-मूत्र पर ही पड़े रहना होगा। इसलिए मैं आफिस जाने से पूर्व इनकी साफ- सफाई कर लेता हूं तो आत्मसंतुष्टि मिलती है। तुमलोग को पाल-पोस कर हमने देखा लिया कि बच्चों को पालन-पोषण और पढ़ाने-लिखाने में मां-बाप को क्या-क्या कष्ट उठाने पड़ते हैं। किन-किन कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। फिर वही बच्चे अपने शारीरिक रूप से लाचार मां-बाप की सेवा करने से कतराते हैं।अगर तुम्हारी चाची बीमार नहीं पड़ती तो तुम्हारे चाचू इन्हें कभी आने नहीं देते।अब हमें मौका मिला है तो हमें सहृदय इनकी सेवा करनी चाहिए। 
दादा-दादी के लिए दलिया बनाकर लाती हुई मां ने कहा-हां आप ठीक कहते हैं इस पुण्य कार्य में मैं हमेशा आपके साथ हूं।हमें इनकी सेवा अवश्य करनी चाहिए। 
दादा-दादी के लिए गर्म पानी लेकर आती दीदी ने कहा और हम भी।
और हम भी उनकी बातें सुनकर अनायास दोनों भाइयों के मुंह से निकल गया।
मां-पिताजी संतुष्ट-भाव से बच्चों को निहार रहे थे ।और तीनों भाई- बहन मन -ही- मन यह संकल्प लें रहे थे कि हम भी अपने मां-पिताजी की सेवा स्वयं करेंगे।पैसे की अधिकता से पंगु नहीं होंगे।
               सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
                 स्वरचित, मौलिक

Friday, November 5, 2021

बहन के हाथों का भोजन (लघुकथा)

बहन के हाथ का बना भोजन (लघुकथा)

भैरव का मन बहुत उदास था। लम्बे अंतराल से चल रहे मुकदमे में उसकी हार निश्चित थी।अब तक पानी की तरह पैसे बहाया। कितने वकीलों ने जीत का आश्वासन दिया। लेकिन, उनकी हर दलील निरस्त हो जा रही थी।विपक्ष की ओर से पुख्ते गवाह उपस्थित होते और झूठे आरोप को भी वे इस प्रकार सच साबित कर दिखाते जिसे काट पाना पक्ष को अत्यंत दुष्कर कार्य हो जाता।कल अंतिम तारीख को सजा और जुर्माना लगाया जाना है। कहां से वह जुर्माने की राशि का भुगतान कर पाएगा।सजा मुकर्रर हो गया तो घर परिवार को भोजन-पोषण भी मुश्किल हो जाएगा। इन्हीं उधेड-़बुन में लगा था कि अचानक फोन की घंटी बज उठी।न चाहते हुए भी उसका हाथ फोन उठाने को बढ़ गया।बहन की आवाज सुन आशंकित मन थोड़ा शांत हुआ।बहन ने भाई-दूज के शुभ-अवसर पर अपने हाथ का बना भोजन करने के लिए बुलाया। उसने सोचा-चलो कुछ देर तो सुकून से बीता लूं। फिर तो जो होना है उसे कौन रोक सकता।
        बहन ने भोजन कराते हुए भरोसा दिलाया चिंता नहीं करो भाई!सब ठीक हो जाएगा। भगवान तुम्हें इस झूठे आरोप से अवश्य बरी कराएंगे।बहन की बात सुन वह भोजन कर उठा ही था कि उसके विपक्ष का गवाह वहां पहुंचा और उसे देखकर अचंभित हो उसकी बहन से उसका परिचय पूछा ।जब बहन ने बताया कि वह उसका भाई है तो वह अफसोस जताते हुए कहा-भाभी !आपने अपना अमूल्य खून देकर मेरे भाई की जान बचाई और मैं चंद पैसे की लालच में आपके भाई को सजा दिलाने में लगा हूं।अब जो हो मैं सच्चाई का साथ देकर आपके भाई को बचा लूंगा।
    उसके बयान के आधार पर भैरव पर लगे सारे आरोप हट गये और वह मुकदमा जीत गया तब उसे विश्वास हो गया कि भाई -दूज के दिन बहन के हाथ का भोजन करने से कितना लाभ है। भगवान बहनों के दिल से निकले आशीर्वाद द्वारा भाईयों के हर कष्ट का निवारण इसी प्रकार करते हैं।
             सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
               स्वरचित, मौलिक

Thursday, November 4, 2021

मुहब्बत के दीये



मुहब्बत के दीये, मन में जलाओ।
सभी के लिए मन में मुहब्बत लाओ।

दीप जलाकर खुशियां मनाओ।
नफ़रत के अंधेरे मन से भगाओ।

गिले-शिकवे को अब दूर हटाओ।
सभी को अपने गले से लगाओ।

सभी से रहे अब मुहब्बत का नाता।
मोहब्बत सभी के मन को भाता।

आओ मनाए मुहब्बत की दिवाली।
मन का न कोना रहे आज खाली।

          सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
            स्वरचित, मौलिक

Wednesday, November 3, 2021

दीप से दीप जलाकर देखो

दीप से दीप जलाकर देखो

मन से अंधेरे भगाकर देखो।
दीप से दीप जलाकर देखो।

आओ मनाएं हम आज दिवाली।
कभी नहीं आए रात कोई काली।
मन में सपने सजाए कर देखो।
दीप से दीप जलाकर देखो।

मन में हमारा जब होगा उजाला।
जग से दूर होगा अंधेरा यह काला।
मन में उजाला बसाकर देखो।
दीप से दीप जलाकर देखो।

उर का संतोष ही लक्ष्मी का रूप है।
इसे पाने वाला ही दूनिया का भूप है।
संतोष उर में लाकर देखो।
दीप से दीप जलाकर देखो।

मन से मिटा दो अब अपनी बुराई।
जीवन तुम्हारा हो जाएगा सुखदाई।
मन से बुराई मिटाकर देखो।
दीप से दीप जलाकर देखो।

          सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
            स्वरचित, मौलिक

आयी दिवाली


जगमग-जगमग आयी दिवाली।
बड़ी अनोखी औ बड़ी निराली।
जग से अंधेरे को दूर भगा कर-
हर जगह को रोशन करने वाली।

आओ हम मिल कर दीप जलाएं।
पंक्तियां बनाकर हम इन्हें सजाएं।
प्रेम का दीपक औ प्रीत की बाती-
प्यार का तेल दे इसको सुलगाएं।

अंधकार को हम अब दूर भगाएं।
 घर- घर में बस प्रकाश फैलाएं।
 नव उजास को भरकर जीवन में-
 सबके मन का तम को हर जाएं।

लगता दिशा -दिशा अब बढ़िया।
लरज रही हैं दीपों की लड़ियां।
आ मित्रों संग हम नाचते-गाएं-
फोड़ें पटाखें और फुलझडियां।

आओ अब खूब मिठाई खायें।
नाचें-गाएं हम औ खुशी मनायें।
वैर द्वेष को मन से विसरा कर -
सखियो -मित्रों को गले लगायें।

         सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Tuesday, November 2, 2021

जल के हैं रूप अनेक



देव-शीश पर चढ़कर अभिषेक कहाए।
देव-चरण पखार चरणामृत बन जाए।

फूलों पर गिरे अगर तो है ओस कहाए।
फूलों से निकल कर है ,इत्र बन जाए।

आसमान की ओर चढ़े तो भाप कहाए।
आसमान से गिरे तो है वर्षा बन जाए।

पर्वत से झरकर गिरे तो झरना कहलाए ।
धरा के अंदर रहे तो यह कुआं बन जाए।

गिर कर जम जाए तो यह बर्फ़ कहाए।
जम कर गिरने पर वह ओले बन जाए।

स्थिर होकर रहे  तो यह झील कहाए।
और बह जाए तो है नदिया बन जाए।

शरीर के अंदर जाए तो है पेय कहाए।
शरीर से निकले तो यह स्वेद बन जाए।

आंखों में जाए अगर तो है अर्क कहाए।
आंखों से निकल कर है आंसू बन जाए।

सीमा में अगर रहे तो है जीवन कहाए।
सीमा तोड़ दे अगर,तो प्रलय बन जाए।

गंदगी धोकर बहे तो नाली बन जाए।
गंदगी से छन, पूर्ण पवित्र बन जाए।

लघु रूप धारण करे तो है बूंद कहाए।
वृहत रूप धर कर है सागर बन जाए।
            सुजाता प्रिय'समृद्धि'
              स्वरचित मौलिक

Monday, November 1, 2021

संतोष सबसे बड़ा धन (लघुकथा )



सभी घरों के काम निपटा कर कजरी करुआ के साथ बाजार पहुंची। लोगों के हाथों में सोने-चांदी के जेवरों वाले डब्बे देख मन मारती हुई बुदबुदाती है-सुना है धनतेरस में पीतल के बर्तन खरीदना ज्यादा शुभ होता है। लेकिन पीतल के बर्तनों के दाम सुन सोची यह लेना उसके वस में नहीं। स्टील का बर्तन ही देखती हूं। लेकिन स्टील के छोटे-से-छोटे बर्तन के दाम दोगुने हैं।यह बर्तन खरीद लेगी तो करुआ के बापू की दवाईयां.....।पगार के आधे पैसे तो कर्ज उतारने में ही चले गए।जितने बचे उनसे महीने भर के भोजन-पानी। सारे पर्व-त्योहार भी निपटाने हैं। ‌बर्तनों के दाम पूछती वह आगे बढ़ गयी।
आ मां! सबसे अच्छा बर्तन इ है।करुआ मां की मन: स्थिति को बदलने के लिए मिट्टी का गुल्लक दिखाते हुए बोला। कजरी  उल्लसित हो बोल उठी-हां यह बर्तन हमारे घर नहीं । इसमें हम बचत के कुछ पैसे रखेंगे। थोड़े धन जमा होंगे।जरा सुंदर रंग वाला लेना।
करुआ सादा गुल्लक उठाते हुए बोला उसका दाम दस रुपए है।यह पांच रुपए वाला ले चलते हैं, घर में रंग लेंगे ना।
घर आकर करुआ ने गुल्लक को पीले रंग से रंग कर तख्ती पर रखते हुए कहा-देख माय।यह पीतल जैसा लग रहा है न।
   बिल्कुल बेटा ! कजरी ने आंखों में छलक आए आंसुओं को पीकर मुस्कुराते हुए कहा-संतोष ही सबसे बड़ा धन है।
                सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
                  स्वरचित, मौलिक