बात जो दिल को छू गई
बैठक में मुहल्ले से आने वाली माँ जी की सहेलियों की गोष्ठी लगी थी।माँ जी ने पुकारकर चाय-नाश्ता बनाने के लिए कहा।कितने लोग हैं यह अंदाजा लगाने हेतु दरबाजे पर गई तो गायत्री-चाची को पूछते सुना-"दशहरा में आई थी दुल्हिन तब से क्या यहीं है ?"
"हाँ यहीं है।यही तो बेचारी पत्थर है।जो साथ में है। नहीं तो बेटियांँ तो पत्ते थी जो उड़ गईं।"
माँ जी की बात मेरे दिल को छू गई।आँखों में आँसू छलक आए। क्या मैं माँ जी को बोझ लगती हूँ जो उन्होंने मुझे पत्थर कहा ? स्वयं को सम्हालती हुई चाय-नाश्ते लेकर पहुँची। फिर वही बातें चल रही थी। प्रेमलता चाची बोल रही थी -पाल -पोषकर बेटियों को आदमी बड़ी करता है फिर दूसरे की अमानत समझ उसे दूसरे को सौंप देता।
मांँ जी ने फिर कहा -'मैंने कहा ना । कितना भी करो एक दिन बेटियांँ पत्ते की तरह उड़ जाती है ।"
"क्या करेंगी यही समाज की रीत है।आपके घर भी तो किसी की बेटी उड़ कर आयी है।" तुलसी चाची ने मेरी ओर दिखाते हुए कहा।
"हाँ -हांँ इसी लिए न कहा-कि यही बेटी अब मेरे साथ पत्थर की तरह स्थिर होकर रहेगी।"
अब माताजी की पत्थर और पत्ते वाली बात मेरी समझ में आई।मन में प्यार का गंगा जल हिलोरें लेने लगा। सचमुच मांँ जी चार बेटियों की विदाई कर एक मुझ पराई को ही बेटी मान संतोष किया था।आज विदाई के समय माँ द्वारा दी गई सीख भी याद आ रही थी -"बेटी ! आज से तुम्हारी सासु मांँ ही तुम्हारी माँ हैं"
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
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