सोनू आज बहुत उदास है।दादाजी और दादी माँ गाँव चले गए हैं।अब तक दादा-दादी के साथ घूमने- फिरने , पढ़ने-लिखने, नित नई एवं प्रेरक कहानियाँ एवं भजन - गीत इत्यादि सुनने में उसे जो मजा आता था।वह उनके जाने के बाद कहाँ ।उसने दादाजी को रूकने के लिए बहुत मनाया ।पर वे बोले- दो दिन बाद पितृपक्ष प्रारम्भ होने वाला है।वे गाँव जाकर पितरों को तर्पण करना चाहते हैं।
सोनु ने पूछा -"यह तर्पण क्या होता है और क्यों किया जाता है?"
दादाजी ने समझाते हुए कहा-"इन दिनों हम अपने पूर्वजों के नाम जल, फूल , प्रसाद इत्यादि अर्पित कर उन्हें याद कर प्रणाम करते हैं।"
"क्या आपको अपने पूर्वजों के नाम याद है?" सोनु ने पूछा।
"हाँ मुझे अपने दादा-परदादा के अलावा इक्किस पुस्त तक अपने पूर्वजों के नाम याद हैं।"
सोनु ने पूछा- "आप उनके नाम कैसे जनते हैं और कैसे याद रखते हैं।उतने नामों को याद रखना तो बड़ा ही कठिन कार्य है।"
"मुझे उनके नाम मेरे पिताजी ने बताया था।मैं अपनी डायरी में उनके नाम लिखा हूँ।"
"नाम याद रखना कोई कठिन कार्य नहीं। इतिहास में तो जाने कितने लोगों के वंशजों के नाम याद रखना पड़ता है।"दादाजी ने सरलता से उत्तर दिया।
सोनु ने कहा-"आप यहीं रहकर अपने पूर्वजों का तर्पण करें।"
"नहीं हम अपने पैतृक घर जाकर समस्त परिवार के साथ मिलकर ही यह पुण्य कार्य संपन्न करते हैं। इस तरह गोत्र-परिवार से हमारी भेंट भी हो जाती है।कुछ दिन उनके साथ भी रहना अच्छा लगता है।जब हम नौकरी करते थे तब भी गाँव जाकर ही यह कार्य करते थे।"
"पितरों को तर्पण करने से क्या लाभ है?" सोनु ने उत्सुकता बस पूछा।
"तुम मुझे चाय ,पानी ,नाश्ता लाकर क्यों देते हो ?" उसकी बातों के उत्तर में दादाजी ने एक प्रश्न कर दिया।
"क्योंकि आप खुश होकर वाह-वाह बोलते हैं।"
"ठीक उसी प्रकार हमारे पूर्वज तर्पण करने से प्रसन्न होकर हमें आशीर्वाद देते है।यह हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है।हम अपने पूर्वजों एवं बड़ों को जैसा आदर सम्मान करते हैं ,हमारी अगली पीढ़ी के मन में भी हमारे प्रति वैसे ही भाव उत्पन्न होते हैं।"
"इसलिए हमें पितरों को तर्पण - नमन अवश्य करने चाहिए।उन्होंने हमें इस जगत में उत्पन्न कर पाला-पोसा और लायक बनाया।इसलिए वे हमारे देवता है।"
सोनु तथा उसके माँ-पिताजी का मन इन बातों को सुनकर बहुत खुश हुआ।उन्होंने दुर्गा पूजा के अवसर पर गाँव आने का वादा किया ताकि परिवार के सभी लोगों से उनकी भेंट-मुलाकात हो सके।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित
सादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 04-09-2020) को "पहले खुद सागर बन जाओ!" (चर्चा अंक-3814) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.
…
"मीना भारद्वाज"
नमस्कार दी !सादर धन्यबाद एवं आभार मेरी रचना को चर्चा अंक में साझा करने के लिए।
ReplyDeleteसांस्कारिक बोध जगाती सुंदर लघु कथा।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यबाद भाई।
ReplyDeleteबहुत सुंदर लघुकथा।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यबाद सखी ज्योति जी।
ReplyDeleteसुन्दर लघुकथा
ReplyDeleteसादर धन्यबाद एवं आभार
Deleteआदरणीया सुजाता प्रिये जी, पूर्वजों के प्रति सम्मान और तर्पण का महत्व दर्शाती सुंदर रचना। हार्दिक साधुवाद!
ReplyDeleteमैंने आपका ब्लॉग अपने रीडिंग लिस्ट में डाल दिया है। कृपया मेरे ब्लॉग "marmagyanet.blogspot.com" अवश्य विजिट करें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएं। सादर!--ब्रजेन्द्रनाथ
बहुत-बहुत धन्यबाद भाई।मेरी रचना को पढ़ने और उस पर अपनी बहुमुल्य प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए हार्दिक आभार। आपकी रचनाएँ भी अवश्य पढ़ूगी।
Deleteबहुत सुंदर लघुकथा। नई पीढ़ी को भी इन संस्कारों का ज्ञान होना जरूरी है।
ReplyDeleteसादर धन्यबाद एवं आभार सखी।
ReplyDelete