यह दुनिया है एक विशाल भँवर।
जी रहे हैं हमसब उसमें फँसकर।
लाख भरें हैं हमसब में सद्गुण।
हर कला में चाहे हम हैं निपुण।
कर दिखाते हैं बड़े-बड़े करतब।
देखते हमें अचंभित होकर सब।
खुद को दुनिया में सावित करते।
अपनी विशिष्ठता का दम भरते।
यह भूल है हमारे अन्तर्मन की।
संकुचित भावना है जीवन की।
अकेले आना और अकेले जाना।
पाई भर न साथ में है ले जाना।
मिला है जीवन हमें अनमोल।
बनाकर रखें सबसे मेल-जोल।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित
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