जिंदगी का जहर है नशा मानिए।
कण-कण में यह है बसा मानिए।
ग़लती से भी पास फटकने ना दें,
आ जाए भूल से तो बेवफा मानिए।
जलाती है लहू को आग बनकर,
तन को भस्म करती है जरा मानिए।
कमजोर करती कलेजे पात भाँति,
करती है ना किसी से वफ़ा मानिए।
सबसे बुरी लत है यह तो जीवन की,
और सबसे बड़ी है यह सजा मानिए।
घर को उजाड़ता, रिश्ते को है तोड़ता,
इसकी वजह अपने होते खफा मानिए।
पनपने नहीं देती है जिंदगी किसी की,
क्योंकि नाश का घर है नशा मानिए।
सदा ही दूर रहिए इस छुपे दुश्मन से,
करती है ना कभी भी वफ़ा मानिए।
भूलकर भी स्वाद इसका ना लिजिए,
जिसने छुआ उसमें यह बसा मानिए।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (31-5-22) को हे सर्वस्व सुखद वर दाता(चर्चा अंक 4447) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
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ReplyDeleteबात तो सोलहो आने सच है पर नशाबन्दी होगी कब, क्यूं और कैसे?
ReplyDeleteइस ज़हर को बेचने वालों से मोटा टैक्स वसूल कर ही तो सरकार का खज़ाना भरता है.
बहुत सुंदर गजल।
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