देव-शीश पर चढ़कर अभिषेक कहाए।
देव-चरण पखार चरणामृत बन जाए।
फूलों पर गिरे अगर तो है ओस कहाए।
फूलों से निकल कर है ,इत्र बन जाए।
आसमान की ओर चढ़े तो भाप कहाए।
आसमान से गिरे तो है वर्षा बन जाए।
पर्वत से झरकर गिरे तो झरना कहलाए ।
धरा के अंदर रहे तो यह कुआं बन जाए।
गिर कर जम जाए तो यह बर्फ़ कहाए।
जम कर गिरने पर वह ओले बन जाए।
स्थिर होकर रहे तो यह झील कहाए।
और बह जाए तो है नदिया बन जाए।
शरीर के अंदर जाए तो है पेय कहाए।
शरीर से निकले तो यह स्वेद बन जाए।
आंखों में जाए अगर तो है अर्क कहाए।
आंखों से निकल कर है आंसू बन जाए।
सीमा में अगर रहे तो है जीवन कहाए।
सीमा तोड़ दे अगर,तो प्रलय बन जाए।
गंदगी धोकर बहे तो नाली बन जाए।
गंदगी से छन, पूर्ण पवित्र बन जाए।
लघु रूप धारण करे तो है बूंद कहाए।
वृहत रूप धर कर है सागर बन जाए।
सुजाता प्रिय'समृद्धि'
स्वरचित मौलिक
बहुत सुन्दर सुजाता जी। जल के कितने ही रूपों पर आपकी ये रचना बहुत भावपूर्ण और मनमोहक है। जल ओस से लेकर नाली तक--- वाह 👌👌👌
ReplyDeleteदीप पर्व पर आप को सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई। ज्योति पर्व आपके लिए शुभता और खुशियां लेकर सीसीआए यही कामना करती हूं ❤️❤️🌷🌷
ReplyDeleteहार्दिक आभार प्रिय सखी रेणु जी!सादर नमन। आपको भी हमारे परिवार के तरफ से आपके पूरे परिवार को शुभ दीपावली एवं छठ महापर्व की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।आप सदा हंसती मुस्कुराती एवं सुखी रहें। हमारी मंगल कामनाएं आपके साथ है।
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