Monday, March 23, 2020

मानव उतरे मानवता ना उतरी

घंटों से रही थी मैं बाट जोह।
हर जगह थी जिसकी टोह।

नजरें फेंक चहुँ ओर तलाशी।
दिखी न मन में भरी उदासी।

एक गाड़ी आकर हुई खड़ी।
थी मानवों से खचाखच भरी।

कुछ मानव बैठे थे कुछ खड़े।
कुछ थे दरवाजे के साथ अड़े।

कुछ थे हत्थे-पृष्ठों पर अटके।
कुछ थे पायदानों पर लटके।

कुछ बैठे चढ़ छत के ऊपर।
जान को हथेली पर लेकर।

उतरने लगे सब रेलम-पेल।
लोगों और सामानों को ठेल।

सबको घिसते-पिसते उतरे।
चीख-पुकार सब करते उतरे।

बुड्ढों की लाठी को धर रोका।
बच्चों को हाथ पकड़ रोका।

महिला , महिला से झगड़ी।
गाली दी और झोंटे पकड़ी।

उतरने की देख आपा-धापी।
मन-ही-मन में मै थी काँपी।

घूम-घूम कर रही थी तलाश।
मानवों से मानवता कीआस।

ले मानवों से भरी इस गाड़ी से।
मानवता की आस नर-नारी से।

मैं आवाक देखती रह गई खड़ी।
मानव उतरे मानवता ना उतरी।
                      सुजाता प्रिय
                     २४.०३.२०२०

7 comments:

  1. जी सादर नमन। मेरी रचना को साझा करने के लिए बहुत-बहुत धन्यबाद

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  2. ले मानवों से भरी इस गाड़ी से।
    मानवता की आस नर-नारी से।

    मैं आवाक देखती रह गई खड़ी।
    मानव उतरे मानवता ना उतरी।

    बहुत खूब .... ,सादर नमन

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  3. बहुत-बहुत धन्यबाद सखी।सादर नमन।

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  4. सुन्दर प्रस्तुति

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  5. वाह!!!!
    क्या बात...बहुत लाजवाब सृजन
    मानता न उतरी...
    मानवता तो बेच खा चुके लोग

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    1. बहुत-बहुत धन्यबाद सखी!

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