Wednesday, September 25, 2019

अच्छा वरदान माँग

पारसमणि नाम का एक बड़ा ही आलसी  व्यक्ति था।दूसरे का धन-दौलत,इज्जत-सोहरत से उसे बड़ी ईर्ष्या होती।वह सबसे सुंदर,धनवान और यशस्वी बनना चाहता था । लेकिन ,इन्हें प्राप्त करने के लिए मेहनत नहीं करना चाहता था।
एक दिन उसे एक महात्मा से भेंट हुई।उसने उनसे अपनी मनोकामनाएँ पूर्ण होने का कोई सरल-सा उपाय पूछा। महात्मा जी ने कहा- मैं तो केवल महान कार्य एवं उद्वेश्यों का मार्ग बतलाता हूँ।" मनोकामनाएँ पूर्ण तो सिर्फ ईश्वर की इच्छा से होती है।"
पारसमणि ने उनसे ईश्वर से साक्षात्कार का उपाय पूछा।महात्माजी ने उसे ईश्वर से साक्षात्कार के लिए एक मंत्र देते हुए कहा- तुम इस मंत्र का नियमपूर्वक जाप करो।कृपालु भगवन एक दिन अवश्य दर्शन देकर तुम्हारी सारी कामनाएँ पूर्ण करेंगे।
पारसमणि को महात्मा जी का यह सुझाव बहुत पसंंद आया।वह वन जाकर महात्मा जी के बताए अनुसार तप करने लगा।
उसके तप से प्रसन्न होकर एक दिन भगवान ने उसे दर्शन दिया और  कहा- वत्स ! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। कहो तुम्हें क्या वरदान चाहिए ?
पारसमणि ने हाथ जोड़कर विनयपूर्वक कहा - हे परमेश्वर! मैं समस्त प्राणियों से सुंदर धनवान और विजयी बनना चाहता हूँ।इसलिए हे अंतर्यामी! आप मुझे मेरे मन की सारी अभिलाषाएँ पूर्ण होने का वरदान दें।
परम पिता परमेश्वर ने कहा- हे भद्रे ! तुम अपने मन से तीन भावों का त्याग करो और मन में तीन भावों को ग्रहण करो तुम्हारी सारी कामनाएँ पूरी हो जाएगी।
पारसमणि ने परित्याग करने के और ग्राह्य करने के उन तीनों भावों के बारे ईश्वर से पूछा।ईश्वर ने कहा-परित्याग करने के लिए तीन भाव हैं- ईर्ष्या-द्वेष और आलस्य।तथा ग्राह्य करने के लिए तीन भाव हैं-सेवा,त्याग और परिश्रम।
लेकिन पारसमणि को भगवान का बताया यह मार्ग बड़ा ही वक्र और कठिन लगा।वह उनसे इसके बदले तीन वरदान देने की जिद करने लगा। उसकी हठ भरी याचना से उबकर भगवान ने उसे तीन वरदान मांगने को कहा।लिकिन आलसी  पारसमणि ने वर सोंचते-सोंचते तीन दिन लगा दिए।उबकर भगवान ने कहा-जब तुम्हें वरदान याद पड़े मुझे याद कर लेना। और वे अंतरध्यान हो गए।
वरदान की आस में पारसमणि और आलसी हो गया।बैठे-बैठे वह बस यही सोंचा करता कि ऐसा कौन सा वरदान भगवान से माँगू ,जिससे समाज में मेरी मान - प्रतिष्ठा बढ़ जाए। इस प्रकार कोरे आत्मसम्मान के लिए वह अपना  लाभ और सबका हानि की बात सोंचने लगा।
इसी बीच उसकी भेंट एक सेठ परिवार से हुई।सेठजी का ऊँच कोटि- का आन-बान-शान देख उसका मन विद्वेष से भर गया।वह सोंचा सेठ का धन- दौलत नष्ट हो जाय तो उसका सारा ठाट-बाट चकनाचूर हो जाएगा।आव-देखा-न-ताव उसने झट से ईश्वर को स्मरण किया और दर्शन पाकर हाथ जोड़कर उनसे विनित स्वर में कहा- हे प्रभो ! आपने हमें तीन वरदान देने का वचन दिया है,इसलिए मेरे प्रथम वरदान के रूप में इस सेठ के सारे धन-दौलत नष्ट कर डालें।
कृपालु भगवन ने उसे समझाते हुए कहा- उसके धन नष्ट हो जाने से तुम्हें कोई लाभ तो नहीं।इसलिए तुम उसकी बुराई की अपेक्षा अपने हित के लिए कोई वर मांगो।
लेकिन विद्वेषी पारसमणि ने उनकी बातों पर ध्यान दिए बिना बड़े-ही कठोर शब्दों में कहा - आपने हमें वरदान देने का वचन दिया है।अतः मैं वरदान माँग रहा हूँ ।आप हमें ये व्यर्थ की बातें समझाकर टालने की कोशिश ना करें।
उसकी इस कटु वाणी से नाराज होकर ईश्वर ने उसके प्रथम वरदान स्वरूप सेठ के सारे धन-दौलत नष्ट कर दिया।ईर्ष्यालु पारसमणि सेठ को कंगाल देख कर बड़ा प्रसन्न हुआ।सोंचा कोई तो ऐसा है जिससे मैं धनवान हूँ। इस प्रकार एक दिन मैं सबसे धनवान व्यक्ति बन
जाउँगा।
कुछ ही दिनों बाद उसका एक चचेरे भाई सागर ने अपनी जान- जोखिम में डालकर किसी को नदी में डूबने से बचा लिया।जिस कारण वह सारे शहर में प्रसंशा का पात्र बन गया।उसकी इतनी सराहना सुन पारसमणि को फिर ईर्ष्या ने आ घेरा ।आनन-फानन में उसने तुरंत ईश्वर का आह्वान किया।वचन के हारे भगवान तुरंत पधारे।उन्हें देख पारसमणि ने कहा- भगवन अब आपको मेरा दूसरा वरदान देने का वक्त आ गया।अपने वचनानुसार मेरे दूसरे वरदान के रूप में मेरे चचेरे भाई की सारी प्रसंशा खत्म कर दें।
भगवान को उसके तुच्छ विचारों पर बड़ी तरस आई।उन्होंने पूर्व की तरह फिर उसे समझाने की कोशिश की और उसे अपने लिए कोई अच्छा-सा वर माँगने के लिए प्रेरित किया।लेकिन मूढ़मति पारसमणि अपने निर्णय पर अडिग रहा।
भगवान ने सोंचा इसे सुधारने का एकमात्र उपाय भी यही है।अपनी माया का ऐसा चक्र चलाया कि कल की अच्छी बातें आज बुराई में बदल गई।हुआ यूं महल्ले मे आग लगी।और आग लगने का सारा आरोप महल्ले वालों ने  सागर पर लगाया ।इस प्रकार जितना लोग कल उसकी प्रसंशा कर रहे थे सब उसकी निंदा करने लगे।उसके माथे पर लगा कलंक ने पारसमणि के ईर्ष्यालु मन को बहुत ठंढक पहुँचाई।
जब वह भगवान से अपने तीसरे वरदान के बारे में सोंचने लगा।कौन-सा ऐसा वर माँगू जिससे बहुत कुछ हासिल हो जाए।
तभी उसके अंतर्मन ने उसे धिक्कारते हुए कहा -मुर्ख! तूने दो वरदान माँगकर ही क्या हासिल कर लिया ? क्या तुम सेठ से ज्यादा धनवान हो गए ? या फिर सागर से ज्यादा यश प्राप्त कर लिया ? ईर्ष्या और द्वेष में घिरकर दूसरे की क्षति की जगह यदि तुम अपने लिए धन और यश की माँग करते तो आज तुम भी बहुत धनवान और यशस्वी होते।
उसके ग्यान चक्षु खुल चुके थे।आत्मग्लानि से भर अपनी करनी पर पाश्चाताप करते हुए भगवान का आह्वान किया।जब उन्हें देखा तो उनके चरणों में गिरकर विनम्रता से प्रा्र्थना करते हुए कहा - हे अंतर्यामी आपने हमें तीन वरदान देने का वचन दिया।परन्तु अग्यानतावश मैंने जो आपसे दो वरदान माँगे उसके लिए मैं अक्षम्य पाप का भागी हूँ।इसलिए हे जगदीश अपने इस पाप के प्रायश्चित के लिए मेरी आपसे विनती है कि तीसरे वरदान के रूप में मेरे मन के दुर्विचारों को दूर करें और जिस प्रकार दो बार मुझे अग्यानता के मार्ग पर भटकने से रोकने की कोशिश की उसी प्रकार सदा मेरी संमार्गदर्शक बने रहें।
भगवान प्रसन्न होकर एम्वस्तु के भाव से मुस्कराए और अपने दूसरे भक्तो की ओर बढ़ चले।
उस दिन से पारसमणि लोभ-मोह, ईर्ष्या-द्वेष क्रोध-आलस्य सभी को त्याग दिया।अब वह किसी की प्रसंशा और दौलत देख जलने की अपेक्षा स्वयं अच्छे कर्म करता । खूब परिश्रम कर धन कमाता और उससे जरुरतमंदों की मदद करता।इस प्रकार उसके यश का शुभ्र प्रकाश दसो दिशाओं में फैल गया। सभी लोग उसके गुणों के प्रसंशक बन गए।अपने अच्छे कर्म में और सद्विचारों द्वारा धनवान गुणवान और यशस्वी हो गया।अब वह काफी प्रसन्न और संतुष्ट रहने लगा,जिससे उसका चेहरा देदीप्यमान हो उठा और वह काफी प्रभावशाली दिखने लगा।
अब वह सभी को उपदेश देता-ईश्वर बड़ा दाता है ।उससे अच्छा वर माँग जिससे जगत के समस्त जीवों सहित तेरा भी कल्याण हो।
                                 सुजाता प्रिय

2 comments:

  1. व्वाहहहह
    बेहतरीन कहानी
    सादर

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  2. सुप्रभात दीदीजी !
    सादर नमन।
    उत्साहवर्धन के लिए बहुत-बहुत धन्यबाद।

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