Friday, December 31, 2021

सुनहरा कल

सुनहरा कल

मास बीते,दिवस बीते,बीत रहे हैं कल।
कल के पहर-घंटे बीते,बीत रहे हर पल।
बीतते कल की हर घड़ी पहर कहता-
धीर धरो अब आने वाला है सुनहरा कल।
          सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

Thursday, December 30, 2021

चुगली

चुगली

चुगलखोर जब-तक न चुगली करे,
जब-तक उसका उदर ना भरे।
इधर से उधर वह मारा फिरे।
भटककर-अटककर किसी की सदा,
किसी-न-किसी से शिकायत करे।

जनों को जनों से लडा़ते चले,
नमक-मिर्च बातों में वह लगा।
चुगली-विधा में महारत उसे,
महाज्ञानी-शातिर वह है भला।
कानाफूसी सबसे सदा ही करे,
अपनापन का हमेशा दम है भरे।
चुगलखोर जब -तक न चुगली करें,
जब-तक उसका उधर न भरे।

दूजे के घर महाभारत मचा,
मधुर वाणियों से मन बहला।
मीठी-जहर का चूरण खिला,
लड़ाता अपनों से मतभेद करा।
भाई को भाई से लड़ाई करा।
बक-झक पति-पत्नी में करा।
चुगलखोर जब तक न चुगली करे।
जब-तक उसका उदर न भरे।

मानव का चुगली बड़ा रोग है,
जिसका कहीं भी न होता इलाज।
वैद्य-ओझा भी कुछ न करें,
चिकित्सक भी कहते है लाइलाज।
बनाते हैं रिश्ते में सदा वे दरार।
बिना फीस के हैं न पाते पगार।
चुगलखोर जब तक न चुगली करे,
तब तक उसका उदर न भरे।
               सुजाता प्रिय समृद्धि
                 स्वरचित, मौलिक

Wednesday, December 29, 2021

अंग्रेजियत



अंग्रेजियत

अंग्रेजों को भगा दिए पर,
अंग्रेजियत भगा न पाये हम।
संस्कृत,हिन्दी,मगही भूले, 
अंग्रेजी भुला न पाये हम।

नमस्कार-प्रणाम करना भूले,
करते हम हाय और हैलो।
दोस्त-सखी सब फ्रेंड बने हैं,
सहपाठी बन गये क्लासफेलो।

चार अक्षर अंग्रेजी बोलकर,
अपनी शान दिखाते हम।
मम्मी-डैडी कह मां-पिता का,
झूठा मान बढ़ाते हम।

चाचा-चाची के रिश्ते को,
तनिक निभा न पातेे हम।
अंकल-अंटी कह अंग्रेजी के,
दलदल में मुफ्त गिराते हम।

भाई को ब्रदर हम कहते,
बहना को कहते हैं सिस्टर।
श्रीमान-श्रीमती कहना छोड़,
कहने लगे मिसेज-मिस्टर।

पत्नी को गृहिणी न कहकर,
कहते हैं हम हाउस वाइफ।
रोते पति हसबैंड कहाकर,
मजबूर हुई उनकी लाइफ।

पुलाव बन गया फ्राइड राइस,
तबा रोटियां बन गयीं नान।
अपने स्वादिष्ट देशी भोजन की,
नहीं रही अब कोई पहचान।

साड़ी-चुनरी छोड़ दुशाले,
पहनते हम वन पीस नाईटी।
धोती-कुर्ते त्यागकर पहनते,
फटी जिन्स वह माइटी।

टोपी पगड़ी छोड़ चले हम,
पहनते हैं हम सिर में हैट।
यह ,वह बोलना हम भूलें,
मुंह बना कहते दिस-दैट।

बिलायती चूहे खरगोश को,
विस्तर पर चढ़ा सुलाते हैं।
आदमी के बच्चों को देख,
घृणा से मुंह बनाते हैं।

गैया मां को काऊ हैं कहते,
बछड़े काफ कहाते हैं।
कुत्ते को डागी कह प्यार से,
गोदी में ले घूमाते हैं।

सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
  स्वरचित, मौलिक

Monday, December 27, 2021

रक्षा का कर्तव्य

रक्षा का कर्तव्य

जब पाण्डव वनवास में थे,तो दुर्वासा ऋषि दुर्योधन के घर पधारे। दुर्योधन ने उनकी खूब आवभगत की। क्योंकि,वह जानता था कि दुर्वासा ऋषि बड़े क्रोधि स्वभाव के हैं। आतिथ्य में किसी भी प्रकार की कोई कमी होने पर तुरंत श्राप दे डालते हैं।उसके आदर -सत्कार से प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि ने उससे कोई वरदान मांगने के लिए कहा। दुर्योधन कब चूकने वाला था। उसने हाथ जोड़ते हुए उनसे कहा-आपके आशीर्वाद से मुझे किसी भी चीज की कमी नहीं। फिर भी आप चाहते हैं कि मैं आपसे कोई वर मांगू, तो बस इतना कृपा करिए की जिस प्रकार आप हमारे यहां पधारे,उसी प्रकार वन में रह रहे हमारे भाइयों के यहां भी पधारें। दुर्वासा ऋषि ने एमवस्तु कहां और वे वन में अर्जुन की कुटिया पर पधारे और अर्जुन से बोले -मेरे साथ मेरे दस हजार शिष्य हैं।हम सभी नदी में स्नान कर आते हैं,तब तक हम सभी के लिए भोजन का प्रबंध हो जाना चाहिए।यह सुन द्रौपदी बहुत परेशान हो गयी।वह सोच रही थी इतने सारे लोगों को भोजन कैसे करवा पाएगी। वनवास में उन्हें भोजन की दिक्कत हुई तब श्रीकृष्ण ने उन्हें एक अक्षय-पात्र प्रदान किया था।उस अक्षय-पात्र की यह विशेषता थी कि उसमें थोड़ा अन्न डालकर भी पकाया जाता तब भी चाहे जितने लोगों को भोजन करवाया जा सकता है। लेकिन उस पात्र को मांजने के पूर्व तक।दौपदी घर के सभी सदस्यों को भोजन कराने के पाश्चात् उस पात्र को मांज चुकी थी। अब कुछ नहीं हो सकता था। चिंतातुर द्रौपदी ने अपनी इस विषम घड़ी में करुणाकार भाई श्रीकृष्ण को स्मरण किया।बहन के स्मरण-मात्र से श्रीकृष्ण तुरंत प्रकट हुए और अंतर्यामी होते हुए भी द्रौपदी द्वारा याद करने का प्रयोजन पूछा।
दौपदी ने दुर्वासा ऋषि के आगमन से आई परेशानियों को उनके समक्ष रखते हुए कहा-मैं आपका दिया गया।अक्षय-पात्र मांजकर रख चुकी हूं।आज उससे किसी को भोजन नहीं करवाया जा सकता।
श्रीकृष्ण ने कहा-बहन मुझे एक बार वह पात्र दिखा तो। तब  द्रौपदी ने वह पात्र लाकर दिया। श्रीकृष्ण ने उस पात्र के अंदर झांककर देखा। उसके अंदर भोजन का एक कण लगा हुआ था। भगवान श्रीकृष्ण ने भोजन के उस कण को निकालकर अपने मुंह में रखा और ऐसी डकार लगायी कि दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों के पेट से भूख की ज्वाला शांत हो गई।भोजन की अधिकता से वे नदी किनारे लेटकर सुस्ताने लगे तथा अर्जुन के घर भोजन के लिए जाने से मना कर दिया। तब दुर्वासा ऋषि ने अपने एक शिष्य द्वारा अर्जुन के घर यह खबर भिजवाई कि हम भोजन करने नहीं आ रहे ,हमें किसी अन्य शिष्य के घर जाने है। द्रौपदी ने राहत की सांस ली और श्रीकृष्ण के चरणों में शीश नवाकर बोली-हे संकटहारी, कृपालु माधव ! आज आपने हमारी लाज रखकर बहुत बड़ा उपकार किया नहीं तो क्रोधी ऋषि भूख से तिलमिला कर जाने हमें कौन-सा श्राप दे डालते।हम पहले ही अभिशापित जीवन जी रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा-हे बहन मैंने तुम पर कोई उपकार नहीं किया है। बहनों का संकट हरना,मदद और रक्षा करना प्रत्येक भाई का परम कर्तव्य है। मैंने तो सिर्फ अपने कर्तव्यों का पालन किया है।यह सिर्फ मेरा भातृत्व-भाव है। तुम्हें जब भी कोई परेशानी हो, मुझे एक बार याद जरूर करो। तुम्हारे हर कष्ट का निवारण मैं करूंगा।यह कह लें वहां से अंतर्ध्यान हो गए।
उन्होंने अपना वचन हर समय निभाया।उनकी जीता-जागता उदाहरण नीचे प्रस्तुत है।
युधिष्ठिर द्वारा किए गए राजसूय यज्ञ में परिवार के सभी सदस्यों को उनका कार्य भार सौंपा जा रहा था। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा-मैं अतिथियों के जूते उतार कर यथास्थान रखूंगा और भोज के झूठे पत्तलों को उठाकर फेंकूंगा। उन्होंने अपना कार्य हंसते-हंसते भलि-प्रकार किया।सभी लोगों की दृष्टि में उनका सम्मान पहले से ज्यादा बढ़ गया।यज्ञ के समय जब अग्र-पूजा की बात कही तो,सभी ने इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए श्रीकृष्ण  को चयन किया, क्योंकि वे सम्पूर्ण जगत के पालक एवं रक्षक हैं। श्रीकृष्ण का इतना आदर-सम्मान देख उनके फुफेरे भाई शिशुपाल ने ईर्ष्या वश उन्हें काफी भला-बुरा कहने लगा और भद्दी गालियां देने लगा। श्रीकृष्ण शांत मन से उसकी गालियां सुनते रहे क्योंकि उन्होंने शिशुपाल की माता को यह वचन दिया था कि शिशुपाल की सौ गलतियां माफ़ कर दूंगा। लेकिन जब शिशुपाल ने उन्हें सौ से अधिक गालियां दे डाली तो भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र द्वारा उसके सिर को उसके धड़ से अलग कर दिया। सुदर्शन चक्र की गतिशीलता से श्रीकृष्ण की उंगलियां घायल हो गयीं।उनकी घायल उंगलियों को देख द्रौपदी ने झट अपनी साड़ी के पल्लू फाड़े और श्रीकृष्ण की घायल उंगलियों में लपेटकर बांध दिए।बांधे जाने के कारण श्रीकृष्ण की घायल उंगलियों के दर्द घट गये। श्रीकृष्ण ने द्रौपदी द्वारा बांधे गये साड़ी के टुकड़े को बहन द्वारा बांधा गया रक्षासूत्र मान यह संकल्प लिया कि जब भी मेरी बहन पर कोई संकट आएगा।उस संकट से उसकी रक्षा अवश्य करूंगा।
जब कौरवों ने चौपड़ के खेल में पांडवों को पराजित करते हुए उससे धन की मांग की तब अर्जुन ने कहा- अब मैं निर्धन कहां से धन दे सकता हूं।सारे धन तो जूए में आपको हार कर दे दी। दुर्योधन ने मजाक स्वरूप ललकारते हुए कहा-अभी तो आपके पास द्रौपदी भाभी जैसा धन है। उन्हें दांव पर लगा दें। फिर क्या था-जीत की ललसा में अर्जुन ने दौपदी को दांव पर लगा दिया। दुर्योधन के मामा शकुनि की दुष्चक्र से वे एक बार फिर बूरी तरह पराजित हुए। और सभा में द्रौपदी को खींच कर लाया गया। द्रौपदी को देखते ही दुर्योधन के कानों में उसके द्वारा बोले गए तीखे बोल ' अंधे का पुत्र अंधा ही न होगा।' गूंजने लगा और वह बदले की आग में जलता हुआ अपने भाई दु:शासन को भरी सभा में उसका चीर-हरण करने के लिए कहा। दौपदी ने अपनी लाज की रक्षा हेतु भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण किया और भगवान श्रीकृष्ण ने वहां प्रकट होकर द्रौपदी का चीर बढ़ाने लगे। कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने द्रौपदी द्वारा बांधे गए उस साड़ी के टुकड़े को ही इतना विस्तार दिया कि दु: शासन खींचते-खीचते तक गया।सभा में साड़ी की बहुत बड़ी ढ़ेर लग गई लेकिन द्रोपदी के वदन निर्वस्त्र न हुए।इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने एक भाई के रूप में अपनी बहन की हर प्रकार की रक्षा का कर्तव्य निभाया।
             सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
                स्वरचित, मौलिक

Friday, December 24, 2021

तुलसी पूजन



तुलसी पूजन 

तुलसी की महिमा अपार,
चलो सखी तुलसी पूजन को।
कर लो तू सोलह श्रृंगार,
चलो सखी तुलसी पूजन को।

हर घर में माता तुलसी बिराजे।
हरी-हरी डाली,श्याम पत्र साजे।
शोभे सकल संसार,चलो सखी.....

गंगा जल से लोटक भरकर।
तुलसी-जड़ में जल अर्पण कर।
तुलसी का कर विस्तार,चलो सखी.....

सिंदूर,अक्षत,,पुष्प चढ़ाओ।
दाख-छुहारा भोग लगाओ।
कपूर से आरती उतार,चलो सखी.....

तुलसी की सेवा राम जी को भाबे।
राम जी को भाबे,कृष्ण को सुहाबे।
शालिग्राम जी लिए अवतार,चलो सखी.....

तुलसी महिमा सबको सुनाओ।
भक्ति-भाव से भजन तू गाओ।
कर लो जय-जयकार,चलो सखी.....

तुलसी मां को शीश नवाकर।
वर मांगो दोनों हाथ उठाकर। 
आशीष मिलेगा अपार,चलो सखी.....
           सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
             स्वरचित,मौलिक

Wednesday, December 22, 2021

सर्वश्रेष्ठ शासक

सर्वश्रेष्ठ शासक

मगध साम्राज्य का विस्तार में सहयोग करने के हेतु चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने अधिनस्थ सम्राटों की एक सभा आयोजित की। इसमें सहयोगी सम्राटों को उनकी सहयोग की स्तर के आधार पर सम्मानित करने की भी व्यवस्था थी।इस पुनीत कार्य के लिए उन्होंने अपने राजनैतिक गुरु चाणक्य को आमंत्रित किया।
निर्धारित दिवस इस आयोजन में उपस्थित सभी सम्राट अपने -अपने क्षेत्र में अपना सहयोग प्रदान करने की बात बताई। गूरु चाणक्य के सहयोगी सभी शासकों द्वारा सहयोग की तालिका  एवं सारे विवरण अंकित कर इकट्ठा करते जाते।
प्रथम सम्राट ने अपनी विस्तृत सैन्य प्रणाली की व्याख्या करते हुए महाराजा को सैन्य  सहयोग प्रदान करने की बात बताई। 
द्वितीय शासक ने अपने खजाने की जमा अपार धन की बड़ाई करते हुए चंद्रगुप्त मौर्य को खूब आर्थिक सहयोग करने की बात कही।
तृतीय शासक ने अपने दरबार के बुद्धिमान मंत्रियों एवं सुघड़ सलाहकारों की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए कहा हम अच्छे  मंत्री एवं कुशल दरवारियों को नियुक्त कर उसे अच्छा मानधन देते हैं इसलिए वे हमारे सहयोग हेतु हमेशा तत्पर रहते हैं। आप चाहें तो मैं उन्हें आपकी सेवा हेतु भेज दूं।
 चतुर्थ शासक ने अमूल्य हीरे-जवाहरातों का सहयोग देने का आश्वासन दिया। 
पंचम शासक ने अपनी नयीे तकनीकी से उन्नत किस्म के अन्न उपजाने की बात करते हुए अन्न-सहयोग करने के का आश्वासन दिया।
इस प्रकार सभी शासकों ने अपनी-अपनी उपलब्धियों को बताते हुए अधिकाधिक सहयोग का आश्वासन दिया । सिर्फ एक शासक ने हाथ जोड़कर विनम्र शब्दों में  कहा-महराज मैं आपको कोई भी सहयोग  दे सकने में असमर्थ हूं। क्योंकि मैंने न तो सेना का विस्तार किया ना ही राजकोष में अपार संपदा इकट्ठा किया , ना ही मेरे पास कुशल दरवारी हैं ।ना ही हीरे जवाहरात हैं ।ना ही अन्न का विस्तृत भण्डार है,इसलिए मुझे क्षमा करें।
सभी उपस्थित सम्राट सीना ऊंचा कर उस सम्राट को हेय दृष्टि से निहार रहे थे।
जब सम्मान प्रदान करने का समय आया तब सभी सम्राट स्वयं को सर्वश्रेष्ठ घोषित किये जाने का इन्तजार कर उचक-उचक कर देख रहे थे।
लेकिन गुरु चाणक्य ने सभी उम्मीदवारों की इच्छा एवं आशाओं पर पानी फेरते हुए सहयोग ना करने वाले सम्राट को सर्वश्रेष्ठ सम्राट घोषित कर सम्मानित किया।सभी दरबारियों सहित महाराज चंद्रगुप्त मौर्य भी अचंभित हो गुरु चाणक्य के निर्णय को सुनते रहे। किन्तु उनके निर्णय को खण्डित करने या प्रश्न उठाने का दुस्साहस कोई नहीं कर सके।
जब सभा समाप्त हो गई तो महाराज चंद्रगुप्त मौर्य ने गुरु चाणक्य से उस असहयोगी राजा को सर्वश्रेष्ठ घोषित कर सम्मानित करने का कारण पूछा। गुरु जी ने कहा-महाराज पहले आप यहां उपस्थित प्रत्येक शासक के राज्य का भ्रमण कर आएं। फिर मैं आपके इस प्रश्न का उत्तर दे दूंगा।
गुरु देव की आज्ञा मान चंद्रगुप्त मौर्य वेश बदलकर एक-एक दिन प्रत्येक अधिनस्थ राज्यों का भ्रमण करते रहे। उन्होंने देखा वहां के शासक अपनी प्रजा से मनमाने कर वसूल करते हैं और प्रजा को सुख-सुविधाओं में भी कटौती करते हैं। वहां की प्रजा की आर्थिक स्थिति बहुत ही दयनीय है। लेकिन राजकोष में अपार धन भरा है। सेना हमेशा हमेशा लड़ने -मारने को तैयार रहती है।बहुमुल्य रत्नों के ब्यापार जोर पकड़ने हुए है।यह देख महाराज चंद्रगुप्त मौर्य ने उस शासक के राज्य में पहुंचे जिसने किसी तरह का सहयोग करने से मना किया था। उन्होंने देखा कि उनके राज्य में सभी खुशहाल थे।वहां के शासक ने प्रजा की भलाई के लिए  बाग -बगीचे बाबड़ी , प्याऊ -तालाब , क्रीड़ा-स्थल आदि का निर्माण करवाया है। शिक्षा की उत्तम व्यवस्था है और सभी लोग साक्षर और सुलझे विचारों वाले हैं। अल्प सैन्य व्यवस्था है जो बाह्य शत्रुओं से राज्य की  सुरक्षा करने के लिए हैं। आंतरिक सुरक्षा की आवश्यकता पड़ती ही नहीं।सभी लोगों में आपसी भाईचारे का भाव भरे हैं।अपराधियों को दण्ड देने के बदले सुधार-गह में रखकर सुविचार सिखाए जाते हैं। भीख मांगना अपराध की श्रेणी में रखा जाता है।आशक्तों एवं अपाहिजों को भोजन-वस्त्र एवं आवास दान किए जाते हैं। पशुओं के लिए चारागाह एवं पक्षियों के लिए दाने की व्यवस्था है। अनावृष्टि के समय किसानों के कर माफ कर दिए जाते। स्वरोजगार को बढ़ावा दिया जाता है।गरीबों को रोजगार हेतु धन दिया जाता है और उनके निर्मित सामानों की बिक्री के लिए बाजार व्यवस्था है। सफाई की उत्तम व्यवस्था है। कलाकारों को सम्मानित किया जाता है।कूल मिलाकर राज्य के लोग खुशहाल जीवन यापन करते हैं।महाराज चंद्रगुप्त मौर्य को अब समझ में आया कि गुरु चाणक्य ने उस प्रशासक के द्वारा सहयोग नहीं करने पर भी उसे सर्वश्रेष्ठ सम्राट के रूप में क्यों सम्मानित किया।शायद वे समझ रहे थे कि एक उत्तम शासक के राजकोष में इतनी राशि नहीं हो सकती कि दूसरों को अत्यधिक सहयोग प्रदान करें।वे अपने राज्य वापस आकर गुरु चाणक्य के चरणों में शीश रख दिए।
              सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
                स्वरचित, मौलिक

Saturday, December 18, 2021

सांच को आंच क्या (लघुकथा )

सांच को आंच क्या

धीरु नामक एक मूर्तिकार था। पत्थरों को तराश कर अनेक प्रकार की मूर्तियां एवं खिलौने बनाता और बाजार में बेचा करता। उसकी मूर्तियां काफी खूबसूरत और आकर्षक होती थी, इसलिए उसे उन मूर्तियों के अच्छे दाम मिल जाते।रोज की इस आमदनी से वह अपने परिवार का भरण-पोषण भलि प्रकार से कर लेता था।इस प्रकार उसके दिन सुख पूर्वक बीत रहे थे।
    बीरु नामक उसका एक दोस्त था।वह मोमबत्तियों एवं लाभ के सामानों का व्यापार करता था।उसे धीरू के सुख-शांति से बड़ी ईर्ष्या होती उसने धीरू को नीचा दिखाने की योजना बनाई।उसने धीरू के मुख्य ग्राहकों में यह अफवाह फैला दी कि -धीरू द्वारा बनाई गई अधिकांश मूर्तियां लाह और मोम के बने होते हैं। किन्तु वह उन्हें कीमती पत्थरों द्वारा निर्मित बताकर मनचाही कीमतें वसूल लेता है।ऐसी बातें सुन धीरू  के सभी ग्राहक भड़क उठे।और खरीदी गई मूर्तियां वापस करने लगे।धीरू ने उन्हें बहुत समझाया कि वे उन मूर्तियों की जहां चाहे जांच करवा ले। लेकिन वे उसकी बात मानने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे।वे धीरू से मूर्तियों के लिए दिये गये पैसे वापस मांगने लगे।अब बेचारा धीरु पैसे कहां से वापस करता।सारे पैसे तो उन्होंने परिवार की जरूरतों एवं मूर्तियां निर्माण के लिए पत्थरों की खरीद पर खर्च कर चुका था।
बढ़ते -बढ़ते बात ग्राम पंचायत तक पहुंच गई। गांव के मुखिया ने कहा- यदि धीरु द्वारा बेची गईं मूर्तियां नकली हुयी तो धीरु अपने ग्राहकों को मूर्तियों की कीमत के दोगुना पैसे वापस करने होंगे।धीरु से ईर्ष्या करने वाले लोग से झूम उठे। किन्तु धीरू ने धैर्य पूर्वक मुखिया का यह फैसला स्वीकार कर लिया।
दूसरे दिन पंचायत सभा में एक भट्ठी जलाई गई। उसमें धीरु द्वारा बेची गई मूर्तियों को तपा कर देखा गया।धीरु सच्चा था,उसकी मूर्तियां असली थीं। उन्हें भट्ठी की आग भला किस प्रकार पिघला सकती थी।सारी मूर्तियां सती- सीता की तरह अग्नि-परीक्षा देकर   निकल गई। ग्राहकों और जलने वालों के मुंह बन गये और धीरु प्रसन्न हो मुस्कुरा उठा।
              सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
                  स्वरचित, मौलिक