प्यारी सीता माता
जनक सुता प्यारी,सिया थी दुलारी।
जनम ली धरा से,थी जग उजियारी।।
सुना है कि थी वह, सुंदरता की मूरत।
बड़ी मनमोहिनी,थी उनकी सूरत।।
श्रीराम से उनका , था ब्याह रचाया।
राजा दशरथ की,कुलबधू था बनाया।
नियति ने राम को,ऐसा खेल खेलाया।
था चौदह बरस का, वनवास दिलाया।
गये सीता,लक्ष्मण दोनों ही संग में।
वहाँ कंद-मूल खा रहते आनंद में।
वहांँ मारीच स्वर्ण-मृग बन घूम रहा था।
राम को आकर्षित उसने किया था।।
गये मारने उसको धनुष बाण लेकर।
मारीच ने अपनी आवाज बदलकर।
पुकारा लक्ष्मण-लक्ष्मण कहकर।।
लक्ष्मण ने कुटी में थी,खींच दी रेखा।
कहे भाभी! तुम नहीं लांघना रेखा।।
आ गया रावण संन्यासी बनकर।
मांगने भिक्षा बड़ा दीन बनकर।।
देने के लिए भिक्षा ,लांघी रेखा सीता।
हर लिया रावण,बड़ी रोयी पुनीता।।
जटायु ने राम को,यह बात बताई।
गीरा उनके गहने, उन्हें थी दिखाई।।
हरा उनको रावण,पर छू न सका था।
उसे भस्म होने का डर भी लगा था।।
उसे यह पता था कि सती यह नारी।
बड़े कुल की थी वह, पतिव्रता भारी।।
बिना स्वीकृति के जो,सीता को छूता।
तो गिरता मही पर, होकर भभूता।।
वानर सेना संग राम ने कर दी चढ़ाई।
सोने की लंका को, पूरी थी ढाई।।
इस विधी सीता को वापस ले आये।
अयोध्या की रानी थे उनको बनाये।।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
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