Tuesday, May 30, 2023

चित्रमेल (कहानी)

जय माँ शारदे

चित्रमेल
चूने- पत्थर से निर्मित स्तंभ में एक बड़ी और असंख्य छोटी-छोटी दरारें मुंँह फाड़े अपनी प्राचीनता का प्रमाण दे रहे थे।फिर भी इस पुराने स्तंभ की बूढ़ी हड्डी इतनी मजबूत है कि यदि इसे नवनिर्मित स्तंभ से मुकाबला के लिए मैदान में उतारा जाए तो हर पैतरे में जीतने के उपरांत अपनी सलामती कायम रखेगा।इस  पौराणिक विशाल और बलिष्ठ स्तंभ से पीठ टिकाकर एक रूपसी खड़ी है।उसके हाथ में थमें दीपक के लो में प्रदर्शित  हिंदी पल्लू के अर्ध घूंघट में, नुकीली नासिका के अग्र भाग में झूल रही झूलनी और नासिका के दोनों ओर चुंबकीय प्रभाव से आकर्षित,मछलियों का शक्ल लिए दो कजरारी आंँखों के सागर में तैर रहे लाल धागों से जाल तरुणी के नवोड़ा होने की सूचना दी रहे थे। पतली कलाईयों पर कैद कांँच की अनगिनत हरी चूड़ियों में खनक का आभाव नवोडे़ के विचारों के भंवर में गोते लगाने की चुगली कर रहे थे।
अनायास तरुणी की विचार- तल्लीनता भंग हुई। उसके गुलाबी अधर की पतली नाजुक पंखुड़ियांँ फड़फड़ाए और उल्लासित-सा मधुर मुस्कान मुख पर तीरते ही नन्हे दानों- सा धवल दंत पंक्तियांँ मुख के दरवाजे खोल बाहर झांँकने लगीं।
 फिर ?
फिर तो चूड़ियाँ  भी खनके लगी। ओठ बुदबुदाए और अस्फूट-सा कोई स्वर भी उभरा। तदोपरान्त तरुणी ने घूंघट को थोड़ा और आगे सरकाया और पंजों के बल उचकती हुई दीपक को उस बूढ़े स्तंभ के कंधे पर रख दी। फिर स्वयं में ही सिमट गई।
अब पदचाप उसके निपट सुनाई पड़े थे ।इस पदचाप को वह पहचानती थी फिर भी पुष्टि के लिए नजरें तिरछी करके देखी।
 खाना ....................
उसके मुंँह से बस एक ही शब्द निकला था कि आगंतुक ने धीरे से सर हिलाते हुए स्तंभ के निकट रखा लोटा उठाकर अपने सर से ऊपर किया और मुंँह खोलकर पानी उढ़ेलने लगा।गड़प !गड़प ! गड़प ! पानी गड़पने ही आवाज उसके कंठ से उभर कर घर की निरवता चीर गई। पानी पीकर जब उसने हाथ नीचे की, तरुणी ने झट हाथ बढ़ाकर लोटे को थाम लिया।
बाबूजी ?
मालूम नहीं पंचायत में हैं ? इस घूड़की के साथ वह चला गया।
अब वह सास-ननदों से भला कैसे पूछे भोजन के लिए ? वे तो दो टुक का जवाब देकर अपना आदर्श प्रस्तुत करेंगी कि मर्दों को खाये बगैर..................।
      अपने कलकतिया भाई की दी गई दीबार-घड़ी पर निगाह डाली।आज तो सचमुच दस बज गये।कल भोजन के प्रकारों को तैयार करने में आठ बजे थे तो सांस की नौ-नौ पसेरी की बातें सुनने को मिली थी।हाय....ई घर अब रहे वाला नाहीं।जे घर दस बजे घर के महतो के आगे थाली जाय उस घर में दरिद्रा का ही न बास होगा। पता नहीं कैसा दुष्ट घर से आई है।समूची वस्ती खा-पीकर सुख की नीँद ले रही है और इस महारानी को सतहरु छू गया।    
लेकिन आज! आज वह पूरी तरह चौकस थी। घड़ी की छोटी सूई छठे अंक को छू नहीं पायी थी और बड़ी ने दस को पार करने के लिए कदम बढ़ाया था तभी रसोई का समापन दाल बघारते हुए किया था।
सास ने छौंक में डाली गयी मिर्च को अधिक जलाकर नाक में सुरसुरी पैदा करने का आरोप लगाया और उसी समय से बिस्तर सम्हाल लिया।
दोनों ननदें दिन की बची रोटियाँ ताजी बनी तरकारी चखने के बहाने खाकर गीत गाने का पुर्वाभ्यास करती हुई सो गईं। चार दिन बाद टोले की गौरी का गौना जो होने बाला है।वह सोचने लगी गौने के मिठास के पीछे क्या गौरी को भी इन्हीं कड़वाहटों का सामना करना पड़ेगा ?
शरीर अकड़ा जा रहा था । सुबह जागी थी ठीक तरह से चार भी नहीं बजे थे। आराम के ख्याल से खाट पर बैठी और बैठते ही इस प्रकार से चिहुंक कर उठ खड़ी हुई मानो खाट पर रखी हुई कोई सूई चुभ गई हो।अभी दो दिन ही तो हुए हैं जब ओसारे की खाट पर लेटने के अपराध में सास-ननदों ने  काफी फटकार लगाई थी।पांजेब झंकारती हुई वह अपने कमरे में चली गई।
*  *  *  *  *  *  *  *  *  *  *
उठ रही कुलक्ष्णा ! क्या आराम फरमा रही है महारानी जी ! सास के कर्कश स्वर ने उसके कर्ण पटल पर डंका बजाया तो वह किसी कुशल पैतरेवाज की तरह उठ खड़ी हुई ।उनींदी आंँखों के पलक-पट फिहका कर एक सरसरी सी नजर सास के चेहरे पर डाली तो उनकी लाल-लाल आंँखों में क्रोध,घृणा,क्षोभ,कुण्ठा, तिरस्कार और जाने कैसे-कैसे मिले-जुले बुरे भाव नजर आए। वो s  वो s s वो, वह मारे डर के हकलाने लगी।अरी जाकर खाना तो परोस ।घर में मर्दुए आकर बैठे रहें और महारानी को सुख नींद आई है। दुष्टा कहीं की ! बाप के घर में नींद पूरी नहीं किया गया था।
    उसने अपने कांपते कदमों को घसीटा और कमरे से बाहर निकल आई।देखा,ससुर जी और पति परमेश्वर खाट पर बैठे हुए थे। उनके सामने से गुजरने का अपराध कैसे करती यह तो बड़ों के सम्मान पर चोट होती।एक पाए कि ओट लेकर खड़ी हो गई। काहे पांँव में लकवा मार गया है ? कमरे से निकलकर सास ने दहाड़ा तो कुछ सास की ओर लेती हुई और कुछ दिए के प्रकाश को अपनी ओट में छिपाती हुई रसोई घर में घुस गई।बड़ा अफसोस लग रहा था मायके की उन्मुक्तता और गौने से पहले बुनने वाले मीठे ताने-बाने को याद कर और मन के तरंगों पर तैरने वाले रंगीन सपनों को सोंचते हुए पता नहीं कब आँखे लग गई  ? झांँककर घड़ी देखी। बस पंद्रह मिनट ही सोई होगी । 
खाना परोसने में देर नहीं लगा। चौका -पानी तो पहले से ही करके रखी थी।अत्यंत धीमी आवाज में ननदों को पूछी थी, जिसका सीधा अर्थ था थाली उन लोगों के आगे पहुंचाना । अरे ला न मैं पहुंचा दूंँ थाली।वे क्या तेरे बाप के घर से आई हुई गुलाम हैं जो इतनी रात तक तुम रसोई करती रहो और वे तुम्हारी जी हजूरी करतीं रहें ? थाली पकड़ाती हुई सास के क्रोधित नेत्रों की जलन अपने चेहरे पर महसूस की। एक थाली तुरंत वापस आ गई। ससुर जी को आंँगन के उस पार जाते देखी। समझ गई सांध्य-आराधना बाकी है। पति के खाकर जाने के बाद आधा घंटा और इंतजार करना पड़ा ससुर जी के लिए।उनके खाने के 15 मिनट बाद एक देवर पहुंचा। चौका पर जाते ही उसके आगे थाली रख दी पर वह अपने मंझले भाई के इंतजार में बैठा रहा। वह घड़ी की सुई को पंद्रह मिनट फिर चलते  हुए देखती रही। सोलहवीं लकीर की ओर कदम बढ़ाते ही मंझला देवर आ गया।
अच्छा रुक !!! अब जल्द ही तुम्हारी लपटों को दबाती हूँ। मन-ही-मन अपने पेट की ज्वाला को दुत्कारती हुई दूसरे देवर के आगे थाली रखी और ननदों के कमरे की ओर दौड़ पड़ी। माई उठो ! खाना खाने के लिए ! मनुहार करती हुई बड़ी ननद को जगाई। उसने अलसाते हुए छोटी बहन को ठुहकारा।
 उठो माई वह छोटी को भी पुचकारी ।
खाने का मन नहीं ।पेट भरा है ।पेट पकड़ते हुए उसने करवट बदल ली।
हांँ इतनी रात को कौन खाए। मेरी भी इच्छा नहीं।जरा दिया बुझा दें। बड़ी ननद का आदेश मिला ।उजियारे में नींद नहीं आती।उसके पांँव जहांँ-के-तहांँ थम गए । शरीर सिहर उठा।इन दोनों के भोजन नहीं करने का अपराध भी तो उसी के मत्थे मढ़ा जाएगा। जाने कैसी-कैसी गालियांँ सुननी पड़ेगी ।
लेकिन ननद के आदेश उसे कदम बढ़ाने पर मजबूर कर रहे थे ।
दीये के लॉ तक अभी हथेली खींची ही थी कि सास की कर्कश बोलियांँ कानों में प्रविष्ट हुई।दिये को जलता छोड़कर दौड़ पड़ी। 
     और कुछ चाहिए दोनों थालियांँ भरी देख कर भी डर के मारे बरबस उसके मुंँह से निकल गया।
   कर्मजली ! सास ने दांँत पीसकर जैसे बेटों को बोलने की इजाजत दी।
 खाक चाहिए ! किसी आज्ञाकारी सुपुत्र की तरह मंझले देवर ने कहा ।
सूझता नहीं क्या ? दूसरे  देवर ने प्रश्न किया थाली भरी पड़ी है ।फिर भी चाहिए क्या, तुम्हारा कलेजा ?
 न s s न s s न s s s नहीं,

 एक भी कौर खाया जा रहा है उसकी हकलाहट को नजरअंदाज करते हुए एक देवर ने कहा -बर्फ मानिंद ठंडा लग रहा है। अभी-अभी राजू के घर खाना खाया क्या स्वाद था उसमें। मात्र प्याज रोटी ही थी पर कितना मजा आया ।
हांँ भाई उसकी भौजी एक- एक रोटी सेंक कर डाली हमारे आगे। कितना बढ़िया लगा ।पेट भर गया, मन नहीं भरा। वैसे भी रात में सूखा खाना ही अच्छा लगता है। पर हमारे घर भात बन जाता है। दाल- तरकारी सभी ठंडे हो गए हैं ।
हैं कैसे घराने की !जानते नहीं ? नीच घर में नीच का हीना जन्म होगा।
जरा सी नजर घुमाकर वह सासु माँ को देखी।जैसे पूछ रही हो कि रात में भात बनाने का नियम क्या उसी ने बनाया है।पर सास को अपनी कब दिखती है उन्हें तो बस बहू की ढूंढनी होती है। टोले भर मैं बस राजू की भौजी ही है जो मन से अपना फर्ज निभाती है। तब भी तो राजो के माय खीजत रहत है। जब मिलेगी, देर से खाना बनाती है, तेज चलती है, जहर जुबान है ।अरे हमको तो ऐसी पतोहू रहती तो पाँव धोकर पीती उसकी।
 वह अविश्वास भरे नेत्रों से सांस को निहार रही थी।
 मुंँह धोकर पिएगा इसका भला छोटे देवर ने घृणा पूर्ण स्वर में कहा। फिर एक-एक कर दोनों देवर उठकर चले गए।
 डरते-सहमते रसोई घर घुसी और हंडी की तली से गर्म भात निकालकर सासू मांँ के आगे रखती हुई बोली खाना खाइए मांँ जी!
 तू ही खा री कुतिए ! सास का नथुना जलते तेल के बैंगन के समान फूल रहा था।हमहूं तोहार ऐसन नीच पापिन थोड़े हैं जो घर में बेटा -"बेटी पेट पीटते सो रहे हैं और हम अपना पेट भर लें।तीन थालियां पड़ोसी हैं हंडिया में भी दो जनों का खाना पड़ा होगा भरले अपना पेट।बाप घर में कहांँ भाग्य लगा होगा इतना बढ़िया खाना ।अपना तो वैसे ही पेट भारी लग रहा है। पिछली पहर ही सत्तू खाई थी मंगरी के घर।
 एक मंगरी की पतोहू है ।अभी पाँच दिन आए हुआ है ।क्या आवभगत करती है ।बैठिए चाची! जाते ही चटाई बिछा दी। फिर खाने के लिए सत्तु दी,पानी दी। बड़भागिन को ही भली बहुरिया मिलती है। हमारा तो भाग्य ही फूटा है।अपने चाटे से सर पिटती हुई अपने कमरे की बढ़ गई।
          एक मंगरी चाची की बहू स्यानी है, तो एक मंगरी चाची भी तो भली हैं। वह सोचने लगी पाँच दिन की बहू को इतनी छूट दे रखी है।यहांँ बोलना बैठाना तो दूर किसी के दर्शन देने में भी मनाही है। एक बच्ची भी आई तो वालिस्त भर लंबा घूंघट खींचो।कोई बुजुर्ग आ जाएँ तो जहांँ की तहांँ अटकी रहो। चाहे रसोईघर में पक जाओ चाहे गुसलखाने में दम घुट जाए। कोई खबर लेने वाला भी नहीं ।
 उठ ऐ रमिया-झमिया !सास तेज आवाज में बेटियों को जगा रही थी। खाना खा ले जाकर थोड़ा। किसी के जवाब देने का अस्पष्ट शब्द सुनाई पड़ी । 
हांँ हांँ  खाने का मन किसका करेगा । यह भी कोई खाए के वेला है ।
खाए वही कलमुहीं । इतना देर इसलिए तो करती है सबका हिस्सा ठूसेगी।  
सास के कमरे से रोशनी लुप्त हो गई ! बेचारी इधर मूर्तियों  समान निर्जीबता लिए खड़ी थी ।
क्षणभर में आंँखों में नमी आई फिर किसी चश्मे की भांति भरती चली गई ।
और ? और फिर इतनी भर गई कि अपने बांध को पार कर अविरल धाराओं का रूप उसके आंँचल सागर में समाने लगे।इन खारे गर्म जल से सराबोर हो उसका आंँचल उसके पेट पर चिपक गया उसके आंँचल से ही आंँखे पोछी फिर परोसी थालियों को उठाकर रसोई घर ले गई और अन्य बर्तनों से ढक कर रखने लगी ।अपनी अंतड़ियों का होस जाता रहा। हाँ पके खाने की चिंता अवश्य आ घेरी।इतनी गर्मी में खाने खराब होने तथा बर्बाद होने का दोष मेरे ही ऊपर मढा जाएगा ।जब से इस घर में आई है हर बिगड़ी का आरोप उसी पर लगाया जाता है।
 रसोई घर के दरवाजे का सांकल चाढ़ाती हुई देखी एक गिलास बाहर ही छूट गया था। झुर्झुरी-सी दौड़ गई शरीर में ।एक भी सामान छूट गया तो सुबह सड़ी -बूसी गालियांँ तवज्जो की जाएंँगी उसके बाप को।
गिलास उठाती हुई एक नजर घड़ी पर डाली दोनों सुइयां मानो आलिंगन बद्ध हो बारहवें अंक का स्पर्श कर रही थी ।जी चाहा , गिलास दे मारे उस पर। अच्छे बुरे किसी भी वक्त चलना भूलती ही नहीं । रसोईघर का सांकल धीरे से खोली नहीं तो जागी हुई सासु मांँ की नींद टूट जाएगी ।फिर गिलास रसोई घर में रखकर अपने कमरे में पहुंँची। खर्राटे का तेज स्वर गूंज रहा था।कहीं नींद न टूट जाए। बड़े धीमें से पाइताने में लेट कर सोने का झूठा उपक्रम करने लगी।आंखों में नींद कहांँ ? अभी उसके मानस-पटल पर दो चित्र उभर रहे थे ।एक गौने के पहले आने वाले स्वप्नों-कल्पनाओं में उभरने वाले चित्र और दूसरा गौने के बाद का चित्र जो आजकल ससुराल में साकार रूप में उभर रहा था।वह दोनों चित्रों को मिला कर देख रही थी दोनों चित्रों का कोई भी आकार रंग रूप बनावट कुछ भी तो मेल नहीं खाता है। लेकिन इन चित्रों को मिलाने का उसके पास समय कहांँ था  ? शीघ्र ही दोनों चित्र धूमिल पढ़े और फिर लुप्त हो गए ।फिर उस रिक्त पटल पर आने वाले कार्यक्रमों,कार्यकलापों और कार्य फलों की विवरणात्मक सूची तैयार होने लगी ।
    सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

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