जेठ की दुपहरी
जेठ माह की
तपती दुपहरी
ना मन भाए।
सूर्य तपता
लहक-दहक जो
यूं झुलसाए।
अग्नि लपटें
लप-लप झपटे
तन जलाए।
हो गया जीना
अब तो है मुश्किल
जी घबराए।
बंद हुआ है
घूमना औ फिरना
किसे बताएं।
गर्मी के मारे
पढ़ना-लिखना भी
रास न आए।
सूरज भैया
क्रोध क्यों करते हो
बिना बताए।
कंठ हैं सूखे
पानी औ शर्बत ना
प्यास बुझाए।
सूख गए हैं
कूप ताल-तलैया
जल धाराएंँ।
हर प्राणी का
बढ़ी तेरी गर्मी से
मन चिंताएँ।
तुम्हीं बता दो
ये संताप तुम्हारा
किसे बताएँ।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
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