Wednesday, July 3, 2019

बचपन के दिन (भाग ३ )

,कहाँ खोया रे बचपन ?

हाय कहाँ खोया रे बचपन,
खेल-खिलौने सब छोड़कर।
तुतली  बोली  से रूठकर,
भोलापन से मुख मोड़कर।

कहाँ  गए वे लट्टू - घिरनी,
और कहाँ वे गिल्ली - डंडे।
साँप-सीढ़ी,लूडो - शतरंज,
और  वे ब्यापारी  के फंडे।

इक्खट - दुक्खट  का मजा,
वह कित-कित-कित करना।
रूमाल - चोर, ओ सम्पाजी,
वो आँख-मिचौनी का छुपना।

कहाँ गया वह गेंद और पिट्टो,
कूदना और फांदना  रस्सी से।
रेल बनाकर बम्बई को घुमना,
और झूला झूलना  मस्ती  से।

लउवा - लाठी, चंदन - काठी,
आईस-पाईस, चोर - सिपाही।
अटकन-मटकन दही-चटाकन,
और वो दोस्तों  की  गलबाहीं।

आहा,क्या थे दिन बचपन के,
मन में  कोई  क्लेश  नहीं था।
ना किसी से शिकायत शिकवा,
किसी से भी वैर- द्वेष नहीं था।

बड़े  हुए  तो खेलने  पड़ते हैं,
जिम्मेदारियों के बड़े-बड़े खेल।
छूट  गए  सब   संगी - साथी,
नहीं किसी से हो पाता है मेल।
                   सुजाता प्रिय

No comments:

Post a Comment