हैं जनम लेते हम जिसकी कोख से,
नाम उस जननी का ही टकसाल है।
पैसा ,अन्नी ,चबन्नी , अठन्नी ,रूपया,
उसके अनेकों नाम के हम लाल हैं।
रूप - रंग बदलते रहे हमारे सदा,
आकर भी छोटा - बड़ा होता गया।
पुराना लगा जब कभी भी रूप यह,
बदलकर होता गया है तब नया।
गोल है मुखड़ा हमारा चाँद - सा,
रंग सूरज का भी थोड़ा है मिला।
हाथ अथवा पाँव हमारे हैं नहीं,
टूटे न चलने का हमारा सिलसिला।
यात्रा करते हैं गाँव-नगर-राज्य की,
देश - विदेश भी कभी हम घूमते।
खनकते हैं हम बाबुओं की जेब में,
रूपसियों के हाथ भी हैं हम चूमते।
राजकोषों को भरें हम शान से,
भिक्षुओं के कटोरे भी हैं झंकारते।
शोभित करते सेठों की तिजोरियाँ,
जुआरी भी हमसे मात देते हारते।
कैद रहते गुल्लकों में बरसों तलक,
बंधे हम हैं रहते कभी रूमाल में।
देव सिर पर चढ़ कभी इतराएँ हम,
तपते कभी हम आरती की थाल में।
इस तरह हम पूर्ण करते हैं सदा,
अपने जीवन का यह लम्बा सफर।
चलते हैं सदा चलना हमारा काम है,
पता न होता कब कहाँ होगा गुजर।
सुजाता प्रिय
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