Sunday, March 9, 2025

हिंसक पर विश्वास नहीं



एक बार जंगल की राह में। 
एक बाघ था बंद पिंजरे में। 
राहगीरों को रोकर कहता। 
खोल दो कोई पिंजरा मेरा। 
बहुत दिनों से मैं हूँ भूखा। 
बिन खाये-ही मर जाऊंगा। 
पंडितजी को आ गयी दया। 
बोले-पर तेरा भरोसा क्या। 
पिंजरे से बाहर तू आओगे। 
झट मार  मुझको खाओगे। 
कहा बाघ विश्वास करो तुम। 
बेकार मुझसे नहीं डरो तुम। 
नहीं खाऊँगा  तुझको मार। 
मानूँगा जीवन भर उपकार।
मरते की जान तू बचाओगे। 
तुम पुण्य बहुत कमाओगे।
पंडितजी तब कर विश्वास। 
पहुँच गये  पिंजरे के पास। 
खोले पिंजरा हाथ बढ़ाकर।
निकल बाघ पिंजरे से बाहर। 
कहा-तुझे मैं अब खाउंँगा।
अपनी मैं भूख मिटाउँगा। 
पड़ी खतरे में उनकी जान। 
पछताये बाघ का कहना मान।। 
नजर घुमाई  इधर -उधर। 
एक गीदड़ आया नज़र।। 
पंडित जी ने उसे बुलाया। 
सारी बातों को समझाया।। 
बोला-गींदड़ विश्वास न होता। 
पिंजरे में भी बाघ है होता। 
शैतान बाघ ताव में आकर। 
दिखाया पिंजरे में घुसकर। 
कहा गीदड़ -पंडित जी से।
 पिंजरा बंद होता है कैसे? 
पंडितजी ने पिंजरा लगाया। 
गीदड़ को विश्वास दिलाया। 
कहा गीदड़ मुझे है विश्वास।
पिंजरे में बंद होता है बाघ। 
जैसे आपको धोखा देकर। 
निकला है पिंजरे से बाहर। 
वैसे ही इसे भी बहलाया। 
वापस पिंजरे में पहुँचाया। 
विश्वास न हिंसक पशुओं पर। 
खाएगा कैसे  धोखा देकर।

सुजाता प्रिय 'समृद्धि'

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