अंध कक्ष से झांक रही मैं,
भारत का रूप निराला।
नव भारत के स्वतंत्र रूप में,
सबका मुंँह है काला।
भारत माँ बैठी सिसक रही
नहीं है कोई रखवाला।
रक्षक ही इसको लूट रहे,
करते गड़बड़-घोटाला।
एक स्तम्भ है बेकारी का,
एक पूर्ण भ्रष्टाचारी का।
ये दोनों शक्ति भूज है,
रिश्वतखोर अधिकारी का।
दोनों के बीच दबा हुआ है,
हम नवयुवकों का गर्दन।
मन कुण्ठित जीवन असुरक्षित,
बस रहा भविष्य का चिंतन।
नव भारत के नव वृंद हम,
छुपा रहे हैं मुखड़ा।
यहाँ सभी हैं एक सरीखे,
किसे सुनाएंँ दुखड़ा।
घोटाले कर लूट रहे हैं,
भारत माँ को रक्षक।
सिसक रही बैठी माँ मेरी,
बेटे बन बैठे हैं भक्षक।
त्रस्त-भविष्य की असह पीड़ा से
व्याकुल हो रहै हम।
भ्रष्ट हो गया अपना ही घर,
जाएँ और कहांँ हम।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
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