श्रद्धा कर्म
आज स्वर्गीय पूर्णिमा देवी जी का बारहमा ......।
सात गाँव की भोज व्यवस्था ........
एक सौ आठ ब्रहामणों का वस्त्र -छंदा सहित भोज........
स्वजन तथा दूर-दूर के नाते-रिश्तेदार न्योते पर पधारे हैं।
अपना घर तो क्या पास-पड़ोस के घरों में मेहमानों को ठहराया गया है।सभी के रहने एवं खाने पीने की उत्तम व्यवस्था.....भोज के सारे भोजन पूर्णिमा देवी के पसंद के बनाए जा रहे ............।
सेज दान का कार्यक्रम........। बड़ी बहू ने सुंदर सा दीवान पर मुलायम तोसक- तकिया,मसनद और सुंदर कीमती चादर लगवाते हुए कहा -"मांँ जी को दीवान का बहुत शौक था इसलिए मैंने दीवान......।"
बड़े बेटे ने श्रद्धा पूर्वक सोने की अंगूठी चढ़ाते हुए -"माँ ने अपने सारे गहने बेचकर मुझे इंजीनियरिंग पढ़ाया इसलिए मैंने माँ के लिए यह अँगूठी खरीदी है।"
मंझली बहू कीमती श्रृंगार-प्रशाधन रखते हुए -"माँ जी को सजने-संवरने का बहुत शौक था। इसीलिए मैंने श्रृंगार...... ।"
मंझला बेटा नोटों से भरा बटुआ रखते हुए -" माँ-ने घर-खर्चे में कटौती कर मुझे शिक्षा दिलवाई इसलिए एक महीना का पगार मैं माँ के नाम..........।"
सभी के मुँह से वाह-वाही सुन बेटियांँ भी कहाँ चुकने वाली थीं। बड़ी बेटी पायल और बिछिया तथा छोटी बेटी मंगलसूत्र और सिंदूर की डिबिया चढ़ाती हुईं बोली -"माँ ने हम दोनों की शादी में खेत,आधा घर और बगीचे बेचकर दोनों दामाद इंजिनियर लाया हमने भी माँ के लिए यह सामान..........."
उनकी ननद, देवरानी,बहनें,भाभी व अन्य रिश्तेदारों के तरफ से भी कपड़े, श्रृंगार -प्रसाधन मिठाइयांँ,फल मेवे इत्यादि.........।
उनके सबसे छोटे बेटे के पास जाकर चाचाजी ने सलाह देते हुए कहा -"बेटा ! तुम भी अपनी कमाई का कुछ अंश माँ के नाम दान कर दो ,माँ को स्वर्ग में सुख मिलेगा।"
लेकिन वह अफसोस भरी नजरों से दान के सारे सामानों को देखता रहा।
" क्यों तुम नहीं दोगे कुछ ?"
बड़े भाई ने प्रश्न किया तो पिताजी ने कहा -"नहीं!"
"क्यों नहीं ?" दोनों बड़े भाइयों के मुँह से एक साथ निकाला।
"क्योंकि यह श्राद्ध कर्म में नहीं श्रद्धा कर्म में ...............।"
"श्रद्धा कर्म ?"
"हाँ श्रद्धा-कर्म ।तुम्हारी माँ ने दुःख सहकर, जमीन-जायदाद,जेवर गहने बेचकर तुमलोग को पढ़ाया-लिखाया, अच्छे घर में ब्याह किया इसलिए तुम सभी ने मरने के बाद दिखावा करने हेतु...........।
लेकिन जब इतने दिनों से माँ बीमार थी तो इलाज करवाने का भी समय और पैसे नहीं थे.....।माँ के अंतिम दर्शन.......
लेकिन मेरा यह बेटा सीमित कमाई में भी अपनी माँ का इलाज-पानी ,सेवा -सुश्रुषा बड़ी श्रद्धा और प्रेम से किया। जिंदगी भर तुम्हारी माँ टूटी खाट पर सोती रही और उसपर से ही गिरने के कारण उसकी कमर की हड्डियां टूट गयीं तब कोई उसे एक खाट-चौकी तक नहीं दिया ।यही एक महीने का वेतन उस दिन दिया होता तो शायद उसका अच्छे-से इलाज....
यही मेवे-फल उस दिए होते तो जीते जी उसकी आत्मा तृप्त होती।अब मरने के बाद इन सामानों को दान का ढकोसला और.............. ? "यदि किसी को ज्यादा श्रद्धा और प्रेम दिखाना है तो उसके जीवन में करो , मरने के बाद वह व्यक्ति स्वयं इस आकांक्षाओं से मुक्त हो जाता है।सारे दान-दक्षिणा, भोज-भात लोग समाज के दिखाबे के लिए करते हैं।" इसलिए -"मान करो दान नहीं।श्रद्धा में विश्वास करो श्राद्ध में नहीं।"
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
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