दोहा
ईर्ष्या-द्वेष-क्रोध का,करते जाओ त्याग।
असंतोष व लालच का,सदा कर परित्याग।।
दुख का कारण यह सभी,मन से इसको छोड़।
अगर सामने यह दिखे,इससे मुखड़ा मोड़।।
निरोग काया हो जहाँ,सुंदर शील- स्वभाव।
सभी प्राणियों के लिए,मन में हो समभाव।।
बस वाणी की मधुरता,मन को लेती जीत।
मन को दे यह सुख सदा,आपस में हो प्रीत।
मानव मानवता सदा, करना अंगीकार।
माया कभी न त्यागना, रखना उच्च विचार।।
सबका करते जो भला,पाते सुख की छाँव।
बुराई करने जो कभी, कहीं न पाते ठांव।
तन को निरोग चाहते,मन को रखिए स्वस्थ।
तन तो होता है सदा, निर्मल मन से स्वस्थ।।
सुजाता प्रिय 'समृद्धि'
सुगढ़ता से गढ़े गये अत्यंत अर्थपूर्ण ,सुंदर दोहे दीदी।
ReplyDeleteसादर चरणस्पर्श दीदी।
सस्नेह।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १२ जनवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुन्दर
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर सृजन सुंदर सीख के साथ।
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