Tuesday, October 6, 2020

माँ कुछ तो बोलो

उठो माँ उठो! कुछ तो बोलो।
क्यों चुप्पी साध पड़ी हो।
मुँह तो खोलो।

मैं जाता था सीमा- सुरक्षा के लिए,
तुम विजय तिलक लगाती थी।
जंग जीतकर आऊँ मैं,
ईश्वर से सदा मनाती थी।
माँ भारती की रक्षा करना,
मुझको सदा समझाती थी।
होठों पर मुस्कान ला,
आँसुओं को छिपाती थी।
आज रो रहा लाल तेरा माँ,
तुम भी थोड़ा रो लो।
क्यों चुप्पी साध पड़ी हो,
कुछ तो बोलो।

क्यों शांत पड़ी धरती पर ,
आँखें दोनो मींचे।
तुम्हें दिया मैं ऊँचा आसन,
क्यों सोई हो नीचे।
क्यों बेजान पडी हो आज,
मुट्ठियाँ दोनों भींचे ।
ना ही जागती ममता तेरी,
प्यार न तुझको खींचे।
क्यों नहीं देखती एक नजर,
एक बार आँखें खोलो।
क्यों चुप्पी साध पड़ी हो,
मुँह तो खोलो।

देखो माँ तुझसे मिलने को,
कितने लोग हैं आए।
बेटी-दामाद, नाती- पोते,
बहु-बेटे सब आए।
मायके से तेरे भाई-भतीजे,
सब मिलने आए।
लोग- परिवार,रिस्तेदार,
पास-पडो़स सब आए।
सभी रो रहे तुझे देखकर,
तुम भी नयन भिंगो लो ।
क्यों चुप्पी साध पड़ी हो,
मुँह तो खोलो।
       सुजाता प्रिय'समृद्धि'
       स्वरचित ( मौलिक )

3 comments:

  1. बहुत मार्मिक रचना सखी | स्नेही सैनिक पुत्र के माँ के प्रति मन के ये उदगार किस का मन ना भिगो देंगे ?

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  2. सादर धन्यबाद सखी।मेरी बुआ का देहांंत हो गया ।उनके सैनिक बेटे की करुणा देख ही मेरे मन में यह उद्गार उठा।

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  3. जी ये सुनकर बहुत दुःख हुआ सखी | बुआजी की पुण्यस्मृति को सादर नमन |

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