हाथ बड़े
जब मैं रोती थी बचपन में,माँ कहती थी चंदा दूँगी।
नयन नक्श से सुंदर मुखड़ेवाली, मंजू सुनंदा दूंगी।
जब मैं रूठा करती थी,तो कहती थी माँ तारे दूंगी।
आसमान में जगमग-जगमग करते सुभग सितारे दूंगी।
जल्दी से मैं चुप हो जाती,समझ न पाती माँ की भाषा।
रूठे मन को तुरत मनाकर चांद-तारे की करती आशा।
आश औ विश्वास लिए यह नादाँ बचपन मेरा खोया।
झूठ- मूठ की भूलभुलैया में मन मेरा चुपके सोया।
चपल-किशोर हृदय ने समझा माँ की आशा दूँ मैं छोड़।
वयः प्राप्त कर हाथ बढ़ाकर छत पर से खुद लूंगी तोड़।
होती गई बड़ी लेकिन ज्यूं- ज्यूं मन ये होता गया निराश।
हाथ न नभ को छू पाते थे अंतर होता गया हताश ।
सुन माँ ने मुझको समझाया,भोली बेटी समझ जरा री।
इन हाथों से नहीं कभी तुम,छू सकती हो चंदा- तारे।
जिग्यासा ले माँ से पूछी, हाथ बनाऊँ लम्ब बाँस का।
लम्बे-लम्बे ताड़-खजूर का,या ऊँचे शीशम-पलाश का।
माँ बोली कि नहीं री भोली ग्यान का हाथ बनाना होगा।
चाँद-सितारे को चाहे तो अच्छाई अपनाना होगा।
हाथ बड़े होेते हैं केवल, पढे-लिखे गुणवान जनो के।
हाथ बड़े कब होेते बोलो ,हृष्ट-पुष्ट बलवान जनो के।
सुजाता प्रिय
क्षमा करें जब मैं को की थी गलती से छप गया।वहाँ जब मैं रोती थी बचपन में होगा।
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